Monday, April 4, 2011

रोशनी की भेंट चढ़ा बढ़ैयाखेड़ा










प्रशांत कुमार दुबे

यहां पर आज भी बिजली नहीं है, लोग इस बात से आस बांध रहे हैं कि खंभे तो आ गये हैं। पिछले 25 वर्षों में दूसरों को बिजली देने के कारण डूबे इन गांवों में आज भी अंधेरा है। यहां पर आजीविका का कोई साधन नहीं है, लोग पलायन पर जा रहे हैं। यदि मजदूरी पर जाना भी है तो लोगों को 20 रुपये पहले अपने खर्च करने पड़ते है, महिलाओं के पास तो पिछले 25 वर्षों से घर के काम के अलावा कोई काम ही नहीं हैं और यही कारण है कि यहां के नवयुवकों ने यहां से बाहर निकलने के लिए कलेक्टर को पत्र लिखा है। लोग इतने हताश है कि रछूछ कहते हैं कि सरकार ने हमें डूबा तो दिया है, अब बस एक परमाणु बम और छोड़ दे तो हमारी यहीं समाधि बन जाए। जरा सोचिए कि यह गांव तो डूबा ही इसलिए कि बांध बन जाए और उससे बिजली बने, सभी को रोशनी मिले। लेकिन दूसरे गांव तो इससे रोशन हो गए यह गांव आज भी रोशनी का इंतजार कर रहा है।

मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले का बढ़ैयाखेड़ा गांव इसलिए विषिष्ट है क्योंकि इसके तीन ओर से रानी अवंती बरगी बांध का पानी भरा है और एक ओर है जंगल। यानी यह एक टापू है। एक ऐसा टापू जिससे जीवन की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के लिए भी कम से कम 10 किलोमीटर जाना होगा और वह भी नाव से। कोई सड़क नहीं है। पानी जो भरा है वहां पर। अगर किसी को दिल का दौरा भी पड़ जाए और यदि उसे जीना है तो उसे अपने दिल को कम से कम तीन घंटे तो धड़काना ही होगा, तब कहीं जाकर उसे बरगीनगर में न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधा नसीब हो पाएगी और वो भी तत्काल किश्ती मिलने पर। सुसाइटी राशन दुकान से राशन लाना है तो भी किश्ती और हाट बाजार करना है तो भी किश्ती। यानी किश्ती के सहारे चल रहा है जीवन इनका। कहीं भी जाओ एक तरफ का 10 रुपया।

साहब, इंदिरा गांधी के कहने पर बसे थे जहां पर! तब आप ही बताओ देश का प्रधानमंत्री आपसे कहे कि उंची जगह पर बस जाओ, तो बताओ कि आप मानते कि नहीं। हमने हां में जवाब दिया जो उन्होंने कहा कि हमने भी तो यही किया। उनकी बात मान ली तो आज यहां पड़े हैं। इंदिरा जी बरगीनगर आई थी और उन्होंने खुद आम सभा में कहा था। श्रीमती गांधी ने यह भी कहा था कि सभी परिवारों को पांच-पांच ऐकड़ जमीन और एक-एक जन को नौकरी भी देंगे। अब वो तो गई ऊपरे और उनकी फोटो लटकी है, अब समझ में नहीं आए कि कौन से सवाल करें? का उनसे, का उनकी फोटो से? सरकार भी सरकार है, वोट लेवे की दान बारी तो भैया, दादा करती है और बाद में सब भूल जाते हैं। फिर थोड़ा रूक कर कहते है पंजा और फूल, सबई तो गए भूल। यह व्यथा है जबलपुर जिले की मगरधा पंचायत के बढ़ैयाखेड़ा गांव के माहू ढ़ीमर की, जो अपने आप को इस गांव का कोटवार मानते हैं।

दशरू/मिठ्ठू आदिवासी कहते हैं पहले अपनी खेती थी तो ठाठ से रहते थे। क्या नहीं था हमारे पास। मेरी 10 एकड़ जमीन थी, मकान था, महुए के 15 पेड़, आम के 2 पेड़, सागौन के 5 पेड़, 18 मवेषी थे। दो फसल लेते थे। जुवार, बाजरा, मक्का, तिली, कोदो, कुटकी, धान, सावा, उड़द, मूंग, रहर, अलसी, गेहूं, चना, सरसों, बटरा और सब्जी भाजी जैसी कई चीजें। नमक और गुड के अलावा कभी कुछ नहीं लिया बाजार से हमने। तेल तक अपना पिरवा लेते थे हम। अब इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि षिवरात्रि को पर भोले को चढ़ने वाली गेहूं की बाली भी दूसरे गांव से लाते हैं। पहले चना महुआ का तो भोजन था साहब। पर आज तो सुसाइटी से 20 किलो. लात है और आधो-दूधो (आधे पेट) खात है। उसमें भी आने-जाने के किश्ती से 20 रुपये लगते हैं और कहीं उस दिन दुकान नहीं खुली तो राम-राम।

इस गांव में चिट्ठी नहीं आती तो संदेश भिजाना हो तो क्या करें? नोकिया है न! हां, इस गांव में मोबाइल है। लेकिन जब इस गांव में बिजली नहीं तो फिर मोबाइल कैसे काम करेगा? मोबाइल को चार्ज कराने लोग जीरो टंकी जाते हैं, यानी 10 किलोमीटर दूर। एक बार की फुल चार्जिग का 10 रुपया। यहां पर नवयुवक चार्ज करा लाते हैं और सहेज कर रखते हैं एक सप्ताह के लिए। यह एक आपातकालीन व्यवस्था ही है संदेशे की।

ज्ञात हो कि रानी अंवती बाई परियोजना अंतर्गत नर्मदा नदी पर बने सबसे पहले विशाल बांध बरगी से मंडला, सिवनी एवं जबलपुर जिले के 162 गांव प्रभावित हुए हैं और जिनमें से 82 गांव पूर्णतः डूबे हुए हैं। सरकारी आकड़ो के मुताबिक लगभग 7000 विस्थापित परिवार हैं, इनमें से 43 प्रतिशत आदिवासी, 12 प्रतिशत दलित, 38 प्रतिशत पिछड़ी जाति एवं 7 प्रतिशत अन्य हैं। जबकि बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ की माने तो 10 से 12 हजार परिवार विस्थापित हैं। दशरू का बढ़ैयाखेड़ा भी जबलपुर जिले का पूर्ण डूब का गांव है। सरकारी आकड़ो के अनुसार इस गांव में 25 परिवार हैं परन्तु अब यहां पर 42 परिवार हैं।

माहू बताते हैं कि हमारे गांव का खेती की जमीन का रकबा 1600 एकड़ का था और अब तो चारों तरफ मैया ही मैया है यानी पानी ही पानी है। हमारे जंगल कहां गए? पानी की ओर इशारा करते हैं और कहते हैं कि यही नीचे ही है। हम तो वो दवाई भी भूल ही गए जो जंगल से मिलती थी। अपना इलाज खुद करना जानते हैं। पहले नीचे पांचवीं तक स्कूल था। हम 1986 में यहां आए और उसके बाद 10 साल यहां कोई स्कूल नहीं था। 1997 से यहां पर स्कूल बना, लेकिन इस 10 साल में तो हमारी ऐ पीढ़ी का भविष्य दांव पर लग गया? आंगनवाड़ी भी बहुत बाद में बनी वह भी न के बराबर ही है। कभी खुलती है तो कभी नहीं। आवागमन के साधन के आभाव में जननी सुरक्षा योजना का लाभ मिलने का प्रश्न गैर वाजिब ही था लेकिन लोगों से पूछा तो उन्होंने बताया कि हमारे यहां सभी प्रसव घरों में ही होते हैं और दाई के न होने के कारण स्थानीय महिलाएं ही कराती है। ऐसे में राष्ट्रीय मातृत्व सहायता योजना का नाम आता है तो इससे लाभ लेने का प्रतिशत भी शुन्य ही है।

सरकारी रिपोर्ट की माने तो विस्थापन के बाद से परिवारों का मुख्य व्यवसाय कृषि के स्थान पर मजदूरी रह गया है। कृषि, बांस के सामान, किराना, लुहारगिरी जैसे व्यवसायों में गिरावट आई है। जबकि मजदूरी, मत्स्याखेट, सब्जी भाजी, पषुपालन आदि में लोग संलग्न है। मजदूरी में अप्रत्याषित रूप से बढ़ोत्तरी हुई है। इसका असर इस गांव में भी देखने को मिलता है। इस गांव के 80 प्रतिशत लोग पलायन कर गए हैं। कोई जबलपुर में निर्माण मजदूरी कर रहा है तो कोई नरसिंहपुर में खेती की मजूरी करने गया है। इस गांव के नवयुवक अभी बाणसागर, खुडिया डेम में मछली मारने गए हैं। तीन से चार महीने मारेंगे। इस गांव में क्यों नहीं मारते है मछली? तो रछछू बरउआ बीच में ही बात काटते हुए कहते हैं कि यहां रहेंगे तो भूखे मर जाएंगे। एक तो मछली कम है दूसरा ठेकेदार रेट भी नहीं दे रहा है। 18 रुपया किलो बिकता है जबकि शहर में यह 10 गुना ज्यादा बिकती है। यानी हमें तो छैहर (मछली के ऊपर का छिलका) तक के पैसे नहीं मिल रहे हैं। जब की मेहनत पुरी हमारी।

इसी गांव के सुनील की उम्र 35 हो रही है लेकिन उसकी शादी नहीं हो रही है। लड़की वाले कहते हैं कि हम अपनी लड़की को यहां मरने के लिए क्यों छोड़े? और फिर हमारे पास है ही क्या? एक-दो साल और कोशिश कर लेते हैं , हो गया तो ठीक।

सरकार की तरफ से कोई परिवाहन की व्यवस्था नहीं की गई क्या? या सरकार से आप लोगों ने मांग नहीं की क्या? इस पर वो कहते हैं कि हमें तो अलग-अलग लोगों ने लूटा। पिछली साल कलेक्टर हरिरंजनराव आए थे और उन्होंने कहा था कि तीन किश्ती लाई जाएगी। फिर सभी हंसते हुए कहते है कि समिति तो बन गई थी पर राव साहब ही चले गए और आज तक नहीं आई किश्ती। यदि हम कलेक्टर की बातों में आ जाते और हमारे गांव की किश्ती नहीं हो तो हम तो यही मर जाते।

पूरे देश में रोजगार गांरटी की चर्चाएं जोरों पर है। इस गांव में भी लोगों के जॉब कार्ड तो है लेकिन यहां पर पिछले तीन सालों से कोरे पड़े वे व्यवस्था को और काम के अधिकार को चिढ़ा रहे हैं। जब उनसे रोगायो की बात कही गई तो वो कहते हैं कि हां कार्ड तो है लेकिन चूंकि उन्हें काम नहीं मिला है, इसलिए वे पक्का नहीं कह सकते हैं कि यही जॉब कार्ड है। वे षिवराज सिंह की फोटो वाले तीन कार्ड भी लाते हैं। लेकिन अफसोस कार्ड तो सारे हैं पर सभी कोरे के कोरे। काम न मिलने की वजह यह है कि वैसे तो यह आबाद गांव है लेकिन सरकारी रिकार्ड में यह विरान गांव है। शोभेलाल कहते हैं कि हमें यह नहीं पता है कि पहले का राजस्व गांव बढ़ैयाखेड़ा, अभी फारेस्ट का है या इलीगेसन (इरीगेसन) का है। इसी दुविधा के कारण आज भी लोगों के हाथ खाली हैं।

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