Tuesday, November 6, 2012

दलितों के लिए नहीं है ‘ग्राम-स्वराज’

डा. सुनील कुमार ‘सुमन’

भारतीय गांवों को नजदीक से देखने पर साफ हो जाता है कि ये गांव ही हैं जो दलितों के शोषण-उत्पीड़न व गुलामी के सर्वाधिक क्रूर और प्रभावशाली केंद्र हैं

गाँव का नाम आते ही दिल-दिमाग में मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियां गूंजने लगती हैं- ‘भारतमाता ग्रामवासिनी!!’ बचपन से सुनते आया कि ‘भारत गांवों का देश है’ और ‘भारत की आत्मा गांवों में बसती है।’ गांधी जी की ‘ग्राम-स्वराज्य’ की संकल्पना को लेकर भी बहुत महिमामंडन किया जाता रहा है। सबसे पहले यहां यह देखना होगा यह ‘गांव’ आखिर किसका है? उन सवर्णों का, जिनकी संख्या देश की कुल जनसंख्या का दस से पंद्रह फीसदी है और जो स्वयं कुछ न करते हुए भी सारे संसाधनों पर काबिज रहे हैं? अथवा दबा-सताकर शोषित-प्रताडि़त किए गए उन लोगों का, जिन्हें अछूत बनने और जानवर से भी बदतर जिंदगी जीने पर मजबूर किया गया? भारतीय गांवों को नजदीक से देखने पर साफ हो जाता है कि ये गांव ही हैं जो दलितों के शोषण-उत्पीड़न व गुलामी के सर्वाधिक क्रूर और प्रभावशाली केंद्र हैं। कालांतर से लेकर अब तक वर्ण-व्यवस्था और अस्पृश्यता को जिसने सबसे ज्यादा मजबूती प्रदान की है, वे भारत ‘माता’ के दुलारे गांव ही हैं। गांवों को लेकर अब तक जो लोग गौरवमयी, स्वप्निल और मनोरम चित्र खींचते रहे हैं, वे प्रभु वर्ग के वर्चस्वशाली लोग हैं, जिनके लिए गांव सचमुच में उनका ‘स्वर्ग’ है। गांधी जी भी गांवों को लेकर खासा भावुक और उत्साहित रहते थे। लेकिन उनके समानान्तर बाबा साहब डा. अंबेडकर की नजर में ‘गांव अछूत समुदाय के लिए अभिशाप के अलावा और कुछ नहीं हैं।’ काश, गांधी जी दलित प्रश्न पर ईमानदार और निष्पक्ष होते तो वे डा. अंबेडकर की नजर से गांवों को देखते और फिर उन्हें भारत में ‘ग्राम-स्वराज्य’ की हकीकत समझ में आ  ही जाती।

बाबा साहब ने स्पष्ट रूप से गांवों को जातिवाद और वंचना का सबसे बड़ा पोषक बताया। अपनी पुस्तक ‘‘अनटचेबल्स आर दि चिल्ड्रेन आफ इंडियाज गेटो’’ में उन्होंने कहा कि ‘‘हिंदुओं का गांव हिंदुओं की समाज-व्यवस्था की मानो प्रयोगशाला है। गांव में हिन्दू समाज-व्यवस्था का पूरा-पूरा पालन होता है। जब कभी कोई हिन्दू भारतीय गांवों का जिक्र करता है तो वह उल्लास से भर उठता है। वह उन्हें समाज-व्यवस्था का आदर्श स्वरूप मानता है।’’ यह उल्लास वास्तव में प्रभु वर्ग के वर्चस्व को बनाए रखने में गांवों की भूमिका का उल्लास है। भारत एक कृषि प्रधान देश है तो क्या यह बात समाज के सभी तबके के लिए समान रूप से लागू होती है? गांवों में दलित हमेशा से भूमिहीन मजदूर रहे हैं। गंदा और घृणित माने जाने वाले सारे काम करने के लिए उनको मजबूर किया जाता रहा है। मजदूरी के रूप में भी उनको पैसे न देकर अनाज आदि दिए जाते रहे हैं। बेगारी और बंधुआ मजदूरी आज भी गांवों की एक बड़ी सच्चाई है। आजादी के पैंसठ सालों बाद भी छुआछूत का क्रूरतम रूप गांवों में देखने को मिलता है। गांवों में दलितों के लिए आजीविका के रास्ते हमेशा से बंद रहे हैं। शोषण-उत्पीड़न की अगर बात की जाए तो लक्ष्मणपुर बाथे, बेलछी, गोहाना, झज्जर, चकवाड़ा, मिर्चपुर से लेकर खैरलांजी तक की नृशंस और हृदयविदारक घटनाएं गांवों में ही घटित होती रहीं हैं। पिछले कुछ वर्षों में आरक्षण के चलते ग्राम-पंचायतों में दलित सरपंच, मुखिया, प्रधान आदि की उपस्थिति दिखने लगी है। सरकार की ‘मिड डे मिल योजना’ के तहत कई सारे गांवों में दलित बच्चों को खाना न देने तथा उन्हें अलग पांत में बैठाने के वाकये भी होते रहते हैं। अकारण नहीं कि बाबा साहेब डाॅ. अंबेडकर ने इस ‘ग्राम-स्वराज्य’ की बखिया उधेड़कर रख दी। भारतीय गांवों के सामाजिक-आर्थिक जीवन की गहरी छानबीन करते हुए उन्होंने गांवों को गणतन्त्र का दुश्मन बताया है । वे जोर देकर कहते हैं कि ‘‘ इस गणतन्त्र में लोकतन्त्र के लिए कोई स्थान नहीं। इसमें समता के लिए स्थान नहीं। इसमें स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान नहीं। इसमें भ्रातृत्व के लिए कोई स्थान नहीं। भारतीय गाँव  गणतन्त्र का ठीक उल्टा रूप है। अगर कोई गणतन्त्र है तो यह स्पृश्यों का गणतन्त्र है, स्पृश्यों के द्वारा है और उन्हीं के लिए है। यह गणतन्त्र अस्पृश्यों पर स्थापित हिंदुओं का एक विशाल साम्राज्य है। यह हिंदुओं का एक प्रकार का उपनिवेशवाद है, जो अस्पृश्यों का शोषण करने के लिए है। ’’ यही कारण था कि डाॅ. अंबेडकर ने दलितों को गांव छोड़कर शहर जाने और वहीं बसने का रास्ता सुझाया था। उन्होंने नगरीकरण और आधुनिकता की भी बड़ी वकालत की थी। शहर में आजीविका के साधनों की प्रचुरता है और वहां जातिवाद का वह घिनौना रूप नहीं है। शिक्षा के दरवाजे दलित बच्चों के लिए सुगम हैं। दलित महिलाओं के लिए भी रोजगार के रास्ते खुले हुए हैं। आज के संदर्भ में देखें तो यह पता चलेगा कि जो भी दलित गांव छोड़कर शहर चले गए, उनकी अगली पीढ़ी तरक्की के रास्ते पर चल पड़ी। इसके विपरीत जो दलित गांव में ही रह गए, उनकी कई पीढि़यां वैसी की वैसी ही रह गईं। 
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के साहित्य विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं)

Friday, November 2, 2012

ग्राम स्वराज की ओर बढ़ते कदम


जब आप इस साक्षात्कार को पढ़ रहे हैं, उस समय राजाजी के नाम से लोकप्रिय पुत्तन वीटिल     राजगोपाल, दलित-आदिवासी-वंचित सत्याग्रहियों के साथ जल-जंगल-जमीन के सवाल पर ग्वालियर से दिल्ली की तरफ बढ़ रहे होंगे। बकौल राजाजी-‘यह यात्रा ग्राम स्वराज को पाने की दिशा में हमारा पहला कदम है।’ ग्राम स्वराज के रास्ते में अलग-अलग तरह की कई बाधाएं हैं, जिसकी वजह से कई बार ग्राम स्वराज में आस्था रखने वाले समाजसेवी और गांधीमार्गी भी निराश हो जाते हैं। श्री राजगोपाल ने ग्राम स्वराज की अवधारणा, मार्ग की रूकावटे और ग्राम स्वराज की अपनी कल्पना पर आशीष कुमार ‘अंशु’ से लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंशः


आज ग्राम स्वराज की बातें किसी यूटोपियन समाज की कल्पना सरीखी नहीं हो गई हैं? क्या देश के छह लाख गांवों के लिए ग्राम स्वराज संभव है?
सिद्धांततः संभव है। देश में कई सारे ऐसे गांव है, जहां ग्राम स्वराज का दर्शन मिल सकता है। ग्राम स्वराज यूटोपिया नहीं है, यह संभव है। लेकिन हर एक चीज को सही बनाने के लिए एक क्लाइमेट चाहिए। जैसे खेत में फसल को उगाने के लिए एक क्लाइमेट चाहिए, पानी चाहिए, सूरज की रोशनी चाहिए, बच्चे को बड़े होने के लिए सही पालन-पोषण चाहिए। ग्राम स्वराज को आने के लिए भी एक वातावरण चाहिए, वह हम नहीं दे रहे हैं। अब एक पेड़ को एक जगह से दूसरी, दूसरी से तीसरी जगह लगाने से वह सही से नहीं बढ़ेगा। अगर राज्य लोगों को विस्थापित, प्रताडि़त और अपमानित कर रही है, तो ग्राम स्वराज नहीं होगा। आप समाज को देखकर कहे, बहुत सुन्दर, अपने जीवन में झांके कि अच्छा करने के लिए हम क्या कर सकते हैं? यह एक नजरिया है और तुम लोग गलत हो, तुमसे कुछ नहीं होगा यह कहने वाली सरकार हो या समाजसेवी गलत हैं। हम दूसरी पद्धति को स्वीकारने को तैयार नहीं होते हैं। जब हम लोगों का मन, पढ़े-लिखे लोगों का मन ग्राम स्वराज के   अनुकूल होगा, तब ग्राम स्वराज संभव होगा। 

क्या सरकार की नीतियां भी  ग्राम स्वराज के राह में बाधा है?
अभी कुछ दिनों पहले जब मोंटेक सिंह से मिला तो मैंने उनसे कहा- आपने ;योजना आयोगद्ध परावलम्बी समाज खड़ा किया है। वृद्धि  पेंशन, मनरेगा और विधवा पेंशन की लाइन में सबको लगा दिया। इस बार जब मैं पंजाब गया तो गांव वालांे ने आकर कहा-अपने सारे कार्ड वापस ले लो और हमें एक शौचालय बनाकर दे दो। एक शौचालय जाने का कार्ड दे दो, बदले में मनरेगा, बीपीएल, वृद्धि पेंशन सारे कार्ड ले लो, क्योंकि हमारे पास शौचालय की जगह नहीं है। 
मोंटेकजी से मैंने कहा, आप जो परावलम्बी समाज की रचना कर रहे हैं। इसे बदलिए और स्वावलंबी समाज की रचना कैसे हो, इस पर विचार कीजिए। मोंटेक ने कहा, सारे निर्णय राजनीतिक स्तर पर होते हैं, मैं नहीं कर सकता। 
स्वावलंबी समाज की रचना कैसे होगी और इसमें सरकार की भूमिका क्या होगी?
इसी संबंध में मैंने मोंटेक सिंह से कहा, आप सिर्फ एक काम कीजिए। आप पूरे देश से गरीबी उन्मूलन तो करना चाहते हैं? इसके लिए पिछले अनेक वर्षों से आप प्रयास भी कर रहे हैं और जान भी गए हैं कि गरीबी का उन्मूलन आप के तरीकों से नहीं होगा। अब एक काम कीजिए कि गांव के ग्राम सभा को कहिए कि यहां के संसाधन, यहां की योग्यता को इस्तेमाल करके सामाजिक कार्यकर्ता और सरकारी कर्मचारियों की यथासंभव मदद लेकर अपने गांव के विकास के लिए वे स्वयं योजना बनाएं। अब पांच सालों तक इस प्रतिस्पर्धा के साथ गांवों को काम करने दीजिए। 
उनको कहिए भगवान का दिया हुआ जल, जंगल, जमीन और तुम्हारी योग्यता को इस्तेमाल करके गरीबी उन्मूलन की ओर काम करो। जो मदद सरकार से चाहिए कहो। लोग तुरन्त तैयार हो जाएंगे, लोगों में इतनी तैयारी है। बिहार की यात्रा में मैं अक्सर कहता था। बिहार इतना संपन्न राज्य है, एक तरफ इतना संसाधन और दूसरी तरफ प्रशिक्षित कामगार, जिस योग्यता से उसने पंजाब को पंजाब बनाया, उस योग्यता का हम उपयोग करेंगे, तभी तो स्वराज की रचना होगी। ग्राम स्वराज आएगा। 

बिना सरकार की मदद लिए क्या ग्राम स्वराज की कल्पना देश में साकार नहीं हो सकती? 
इस देश से आजादी के बाद से अब तक विभिन्न वजहों से  92 हजार गांव गायब हो गए। आज के समय में ग्राम स्वराज कठिन है। जिन गांवों ने अपने प्रयासों से इसे कायम किया है, उसे भी सरकार तोड़ देना चाहती है। सरकार नहीं चाहती कि उसके सिस्टम के बाहर कुछ भी रहे। इसलिए वे तोड़ने में लगी है। मैं कहूंगा, आज के समय में भारत में ग्राम स्वराज की संकल्पना सफल न हो, उस कोशिश में सरकारें लगी हुई हैं । सिर्फ सामाजिक संगठनो की कोशिश से ग्राम स्वराज संभव नहीं होगा। कोशिश से इक्के-दुक्के नमूने खड़े कर सकते हैं। 
हमने रायगढ़ जिले में जितने भी गांव खड़े किए उसे एक दिन में जिन्दल ने बिगाड़ दिया। जिन गांवों को हमने खड़ा किया स्वावलंबी समाज, आत्मनिर्भर समाज के तौर पर, वे अपना तालाब बना रहे थे, अपना वनोपज बेच रहे थे, वे बाहरी दुनिया पर अधिक निर्भर नहीं थे। सरकार ने जिन्दल के साथ मिलकर सारे गांव उजाड़ दिए। वे सारे काम खत्म कर दिए गए। गांव वालों की सालों की मेहनत पर पानी फेरने के लिए, सरकार का एक दिन काफी है। ऐसे में जब तक अनुकूल माहौल नहीं होगा, ग्राम स्वराज संभव नहीं है। इसके लिए ग्राम पंचायतों और गांव के चाहने से नहीं होगा। नीति निर्माताओं के चाहने से होगा। जिन कुछ गांवों में यह बचा है, वह गांव के प्रतिरोध की ताकत की वजह से बचा है। वे जबर्दस्त प्रतिरोध कर रहे हैं।

क्या किसी गांव का उदाहरण देना चाहेंगे, जहां आपने ‘ग्राम स्वराज’ देखा? 
मध्य प्रदेश के बालाघाट में कुछ लोग ग्राम स्वायतता के नाम से एक प्रयोग कर रहे हैं, यह मुझे नहीं पता कि यह प्रयोग कितने दिन टिकेगा, वहां नीचे से कोयला निकल आया तो प्रयोग खत्म हो जाएगा। वहां नक्सली आ गए तो प्रयोग खत्म हो जाएगा। गांव के लोगों ने अब तक नक्सलियों  को भी दूर रखा है। उन लोगों ने कहा कि हम अपने ढंग से गांव को चला रहे हैं। अपने ढंग से अपने संसाधनों को बांट रहे हैं। ऐसे उदाहरण भी देश में हैं। 

क्या उस उदाहरण को देश के दूसरे इलाकों में दोहराया नहीं जा सकता?
इन उदाहरणों की वजह से हम नहीं कह सकते कि यह हम सभी जगहों पर कर देंगे। इस काम में सरकार को मदद के लिए आगे आना ही होगा और सरकार की ऐसी मंशा नहीं है। लेकिन जो भी सोचने और समझने वाली सरकार है, जो सारे बोझ को अपने सिर पर लेकर नहीं चलना चाहती। जिसकी ग्राम विकास  में रूचि है, उसकी बहादूरी इसी में है कि वह इस प्रक्रिया को प्रमोट करे। मां-बाप अच्छे वहीं हैं जो बच्चों को स्वावलंबी बनने की सीख दें। 
स्वतंत्र ढंग से चलने वाले ग्राम रचना को हम स्वीकार करेंगे और उसे प्रमोट करेंगे तो देश के हजारों-हजार, लाखों लाख गांव अपने पैरों पर खड़े होंगे और स्वावलंबी बनेगे, परस्पर अवलंबी बनेगे। लेकिन परस्परावलंबी नहीं बनेगे।

गांव को लेकर, आदिवासी समाज को लेकर मुख्य धारा का समाज सोचता है कि गांव में कम पढ़े लिखे और कम समझदार लोग रहते हैं। क्या कम पढ़े लिखे लोगों के दम पर गांवों में स्वराज की कल्पना की जा सकती है?  
देश के पढ़े-लिखे लोग जो अल्पसंख्यक हैं, उन्होंने बहुसंख्यक समाज के लिए तय कर लिया, हमारी सोच एक है, सबको इसी सोच के साथ चलना चाहिए। यही मुख्यधारा में लाना कहलाता है। जो सो काल्ड पढ़े-लिखे लोग है, उनका देश की संपत्ति पर कब्जा है। नीतियां वे बना रहे हैं, उन्होंने  ही यह तय किया है, हम पढ़े लिखे बाकि सब अनपढ़। जिनके लिए यह सब कर रहे हैं, अब वही इसका विरोध करने लगे हैं। केरल के एक जिले में  लोगों ने तय किया, कोका-कोला को उनके यहां आने की जरूरत नहीं है। उन्होंने साफ-साफ कहा- हम अपने जल-जंगल-जमीन के दम पर अपना विकास स्वयं कर लेंगे। कुडनकुलम में गोली चलने लगी है, मछुआरे लोग हैं, समुन्द्र के आधार पर जी रहे हैं। जमीन के बदले तो जमीन दी जा सकती है लेकिन जिनका समुन्द्र छीना जा रहा है, उसे सरकार दूसरा समुन्द्र कहां से लाकर देगी? मछुआरे पूछ रहे हैं, हमारा समुन्द्र सरकार छीन लेगी तो हम जाएंगे कहां?
हम आराम से जी रहे हैं। हमें सरकार बर्बाद क्यों करने पर तुली है। अब लोग विरोध कर रहे हैं। आर्मी और सारे साधन सरकार के पास है। अब इसके ताकत से सरकार दबाव बना सकती है। आदिवासी इलाकों में यही हो रहा है। उनकी जमीन छीनी जा रही है। उन्हें बेदखल किया जा रहा है। कुछ समय के लिए आप इन सबमें सफल भी हो सकते हैं। लेकिन लंबे समय में उनकी विविधता और उनके अधिकारों को स्वीकार करना ही होगा। 
यह लड़ाई सिर्फ भारत के दलित आदिवासियों की लड़ाई नहीं है, यह कनाडा के भी आदिवासियों की लड़ाई है। यह अमेरिका के भी आदिवासियों  की लड़ाई है। यह आस्ट्रेलिया के भी आदिवासियों की लड़ाई है। सभी जगह जो अपने स्वावलंबी जीवन पद्धति  के लिए लड़ने वाले लोग हैं, उन्हें दबाया जा रहा है। यह समय बताएगा कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा? क्योंकि इतनी ताकत लगाई जा रही है, अभिव्यक्तियों को दबाने के लिए। खासकर आदिवासी अभिव्यक्तियों को, जहां अंदर थोड़ी स्वराज की कल्पना दिखाई देती है। इसलिए पढ़े-लिखे लोगों को जब तक हम संवेदनशील नहीं बनाएंगें कि वे विविधता का सम्मान करें। तब तक हल आसान नहीं होगा। जब हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई की विविधता को सम्मान देना हम सीखते हैं, फिर आदिवासियों और दलितों की भी विभिन्न परंपराएं हैं, उसका सम्मान करना भी सीखना चाहिए। 

आदिवासी परंपराएं और ग्रामीण परंपराएं बीते सालों में जिस तेजी के साथ खत्म होती जा रहीं हैं, इनका इस तरह खत्म होना क्या देश और समाज के हित में है?
जैसे एक ही जैसा साबून, एक ही जैसा तेल, एक ही जैसा कपड़ा, वैसे ही एक ही जैसे लोग बनाने की एक खतरनाक साजिश चल रही है। हमने विविधता को सम्मान देना छोड़ दिया है। विविधता के खिलाफ खड़े लोग हमें कह सकते हैं, यह चालाक लोग हैं, विविधता के नाम पर सबको अलग रखना चाहते हैं। स्वावलंबन के नाम से अलग करना चाहते हैं लेकिन गांधी के अनुभव से आज हमें कुछ सीखना है तो यही कि ग्राम स्वराज ही इस देश का भविष्य है। जहां सबके लिए सम्मान है।
जिस दिन आपका पैट्रोल आपका कोयला खत्म होगा आपको आदिवासियों के पास लौटना होगा। जीएं कैसे? यह गुरू ज्ञान उस समय आदिवासी समाज ही देगा। कम संसाधनों में जीने वाले, प्रकृति के सान्निध्य में जीने वाले लोगों को अपमानित करके हम अपनी ही संभावनाओ को खत्म कर रहे हैं। किसानों के साथ भी यही हो रहा है। किसानों को टेप रिकार्डर की तरह समझा दिया गया है कि खेती घाटे का सौदा है। यह बड़े कायदे से हुआ और इसमें भारी मात्रा में इन्वेस्टमेन्ट हुआ। किसानों से यह कहलवाने में कि खेती घाटे का सौदा है। जब आप उनके मन मंे पहले से बिठा देंगे कि खेती घाटे का सौदा है फिर आसान हो जाएगा कहना कि अपनी जमीन बेच दो, हम इसे खरीद सकते हैं। 
इसी प्रकार आदिवासी पिछड़ेपन के पर्यायवाची हैं, यह समझाया गया, गांव से बना दिया गंवार, गांव में रहने वाले सभी गंवारू हैं। उनके मन में हीन भावना भर दिया गया। इस तरह बड़ी-बड़ी डिग्रिया हासिल किए लोगों ने अपने लिए जो दुनिया रची है, उस दुनिया के लिए जरूरी था कि बाकि दुनिया के लोगों को समझाया जाए कि वे मूर्ख हैं। 

जल-जंगल-जमीन के लिए अपकी जनसत्याग्रह 2012 यात्रा में क्या ग्राम स्वराज के पक्ष में भी कोई मांग है?
जीवन जीने के संसाधन गांवों से तेजी से छीना जा रहा है। इस देश के छह लाख गांव बर्बाद हो रहे हैं। एक लाख गांव खत्म हो ही गए। गांव का साधन ग्राम समाज के पास हो, यह तो एकता परिषद् का नारा भी है। जल, जंगल और जमीन, हो जनता के अधीन। हम मानते हैं कि जल-जंगल और जमीन का हक ही ग्राम स्वराज की तरफ इस देश का पहला कदम होगा।