Monday, January 24, 2011


Meeting India's growing water challenges

Arghyam has brought a new dynamism in water sector

Sopan Correspondent/ New Delhi


Water is the elixir of life. No one perhaps realizes it better than Arghyam, the Bangalore based charitable foundation setup with an endowment from Rohini Nilekani.

Working in the water and sanitation sector since 2005, as a funding agency Arghyam primarily works through partnerships with government, NGOs and institutions to understand and address issues of quantity, quality and access to domestic water in communities across the country.

For the organization, addressing issues of the poor and the vulnerable in accessing water for their basic daily needs is a priority and addressing these issues in a manner that is environmentally sustainable is important. Even as the organization has created a name for itself, Chairperson Rohini Nilekani says there is a long way to go and many structural and policy issues to be tackled before integrated management of urban water becomes a reality. "We believe there are moral and strategic imperatives to rethink municipal water in India. The current models are socially unjust, economically ineffective and ecologically unsound," says Nilekani. Referring to rural water, Nilekani says that there is again a "gap between the obligation of the local government to provide safe, predictable water to people and their capacity to do so, given the number of constraints. She says Arghyam hopes to be part of a deepening national discourse on urban water in days to come.

In 2009-10, more than five lakh people in 1000 villages were given access to water and sanitation with the efforts of the organisation. In addition more than 40 projects were supported by Arghyam in 18 states with an overall budget of Rs 11.03 crore.

Key principles which guide the efforts of Arghyam include recognition of water as a basic need and right, decentralization, community participation and ownership, an integrated approach to managing water from source to sink, managing water locally and effective use of technology.

Working through a combination of project grants to grass roots organizations, knowledge building and sharing through the India Water Portal, promoting new models of water science, technology and system design, participatory action research and advocacy, Arghyam now collaborates with a diverse range of actors across 18 States in India through 80 projects.

The key themes include water quality, ground water management, water security, sanitation, integrated water management, education, outreach and capacity building and also advocacy initiatives.

Realizing the role which the governments can play in the sector, Arghyam, since its inception has been actively participating in state government programmes for gap filling support and making strategic funding. Within a short period, these interventions matured and transformed from participation to partnership.

Sunita Nadhamuni, CEO, says that one of the challenges facing water sector today is to make a compelling case for participatory approaches and smaller, decentralized interventions so that they can be seen as viable options for towns and villages. "Weak local capacities for implementation and lagging sanitation performance continue to be a cause of concern," she points out. Nadhamuni says Arghyam is conscious of the looming challenges and is designing its activities in this context.
sopanstep@gmail.com

संपादक की कलम से

संपादक की कलम से
अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से जवाब की मांग और उनकी जवाबदेही को लेकर धीरे-धीरे समाज में जागरूकता आ रही है। बिहार में मुख्मंत्री नीतीश कुमार ने घोषणा कर दी है कि मुख्मंत्री समेत सभी मंत्री, अफसरशाह, विधायक और सभी सरकारी बाबू-कर्मचारी सभी भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए अपने परिसम्पत्तियों का ब्यौरा दे। भ्रष्ट अधिकारियो और कर्मचारियों की सपति की घोषण करे,भ्रष्ट अधिकारियो को उनके अपराध के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद उनके सपति का उपयोग स्कूल खोलने के लिए किया जा सकता है।
इस तरह की नीतिया केंद्र और दूसरी राज्य सरकारे क्यों नही अपना सकती है, जब घोटालो पर बड़े घोटाले एक के बाद एक करदे सामने राज्य आ रहे है। क्या यह सही समय नही है, जब सरकार को गंभीरता के साथ कुछ अच्छे शासन के तरीको के साथ समय आना चाहिए। हम विस्वास करते है, समय आ गया है और चुने हुए जन प्रतिनिधियों को इन सवालों का जवाब देना चाहिए और उन्हें और अधिक जवाबदेह बनना चाहिए। इन सबके बाद वे आम आदमी का पैसा इस्तमाल करते है, ना सिर्फ भ्रष्टाचार के अर्थो में बल्कि मोटा वेतन जो उन्हें खुद के लिए कानून बनाकर लिया है। वह पैसा भी जनता की जेब से ही आता है।
शासन विकाश पर 'नेशनल सोशल वाच' की रिपोर्ट सही समय पर आई है। सोशल वाच ने अपने अध्यन में विशुद्ध रूप सांसदों को सदन में उनके प्रदर्शन के आधार पर स्थान दिया है। यह भारतीय संसद इतिहास में पहली बार हुआ है। यहाँ शासन और विकास के संबंध मी चौकाने वाले आकंडे थे। रिपोर्ट को ध्यान से देखने पर सांसदों का प्रदर्शन कितना खराब था और यह भी देखने योग था कि किस तरह उनके धन मी अप्रत्याशित विर्धी हुई है।
रिपोर्ट बताती है कि संसद के दोनो सदनो ने कुल समय का पाचवा हिसा भी विधायी कार्यो पर खर्च नही किया है, विधायी बह्सो मे शामिल होने वाले सांसदों की संख्या कम होती जा रही है, किस तरह संसद मे पैसे वाले सांसदों की संख्या बढती जा रही है, दूसरी तरफ सांसदों की सपती मे भी आश्चर्यजनक तरीके से ब्रिधी हो रही है। एक मामले मे तो पाच सालो यह ब्रिधी ३०२३% की रही।
रेपोर्ट मे इस बात को रेखांकित किया गया है कि २५% लोकसभा सदस्य उदोग, व्यापार, बिल्डर श्रेणी के होते है, जबकी देश की जनसख्या मे इनका प्रतिनिधित्व ना के बराबर है।
कोई आश्चर्य नही यादी आजादी के छह दशको बाद भी देश के सामने विकाश के क्षेत्र
मे गंभीर चुनौतीया मौजूद है। सामाजिक विकाश, स्वास्थ, शिक्षा जैसे मनको पर हम बेहद पिछ्डे है।
यदि हम सरकारी अधिकारियो के उदासीनता को हटा दे। फिर भी क्या हुआ। वे गरीब लोगो के हितकारी योज्नाओ का प्रचार नही करेगे क्योकी इससे उनके काम मे ब्रिधी होगी।
उपर की सारी बाते तो सरकार और तत्र से संबंधित है। ऐसा बहुत कुछ है जो इस तंत्र से बाहर भी किया जा सकता है। लगता है कि देश मे एक शुरुआत हुई है। कई व्यावसायिक घरानो ने रास्ता दिखाने का काम किया है, जीससे हम उम्मीद कर सकते है कि गरीबो का भविष्य उतना बुरा नही है जितना हम समझते है। इस अंक मे हमने ना सिर्फ बिहार के फल का जिक्र किया है बल्की औदोगिक घरानो का भी वर्णन किया है, जिन्होने अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करणे मे अहम योगदान दिया है। सरकार, समाज और निजी संस्थाये यदि मिलकर काम करे तो भारत के नवनिर्माण मे एक एसी गति आ सक्ती है जो गरीबी, पिछ्दापन, अशीक्षा जैसे शब्दो को बीते समय की बात बना देगी।

Thursday, January 20, 2011

अपने लिए जीए तो क्या जीए

अपने लिए जीए तो क्या जीए
समाज में जिस तरह की अवनति दे रही है, हो सकता है सीधा लोकोपकार उसका हल ना हो, लेकिन हम जैसे लोग जो एक आराम की जिन्दगी जी रहे है, की किसी की बुरी हालत के लिए वे जिम्मेवार नहीं है लेकिन क्या
उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए, कि वे किसी परिवार की खुशी , किसी समाज की सशिक्त का हिस्सा हो सके है'।
इसी साल 'इंडियन फिल्न्थ्रापी फोरम' के मंच से मुम्बई में अपने व्याख्यान के दौरान रोहिणी निकेनी ने यह बात कही तो पूरा हाल तकियों से गुंज उठा वास्तव में समाज का एक समृद्ध तबका चाहता है क़ि वह समाज के उस वर्ग के लिए कुछ करे जो जिन्दगी की तेज रफ्तार दौड़ में वेहद पीछे छुट गए भारती के सुनील भारती मित्तल जहाँ पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडू, और उत्तरप्रदेश के तीस हजार बच्चो को अंग्रेजी पढ़ा रहे है तो वही एचसीएल के शिव नाडार ने हाल में ही ५८० करोड़ रूपए शिक्षा के लिए दान दिया है यहाँ हमारे संवाददाता आशीष कुमार 'अंशु' ऐसे कुछ लोगो से आपका परिचय करा रहे है, जिनके पास समाज को देने के लिए पैसा नहीं था तो उन्होंने अपना जीवन समाज की सेवा में समर्पित कर दिया ।
मानवता के नाम एक अस्पताल
'किसी को खोने में कितना दर्द होता है, मै जानता हू मैंने अपना पति खोया है, इलाज के अभाव में। इसलिए मै चाहती हू कि इस देश में इलाज ना मिलने की वजह से किसी को अपना कोई खोना ना पड़े।
सुभाषिनी मिस्त्री के कहें हुए शब्द आज सच सच साबित हुए है आज इस बात को चालीस साल होने को जा रहा है, जब १९७१में३५ वार्षीय कृषि मजदुर साधन मिस्त्री को इलाज के अभाव में अपनी जान गंवानी पड़ी थी चूकी उनकी
पतनी सुभाषिनी मिस्त्री के पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे इस बार जब कोलकाता में ठाकुर पुकुड़ से दो क़िलोमीटर की दुरी पर स्थित हंस पुकुड़ स्थित ह्यूमिनिटी अस्पताल में उनसे मुलाकात हुई तो वे पुराने दिनों को याद करके भावुक हो गई जैसे किसी ने एक बार फिर उस रंग हाथ रख दिया हो, जहा सबसे अधिक पीड़ा थी इस बातचीत में भाषा भी किसी प्रकार की समस्या नहीं बनी। बावजूद इसके की वे बंगला छोड़कर दुसरी कोई भाषा नहीं समझती लेकिन भाव की कोई भाषा नहीं होती सुभाषिनी मिस्त्री के अनुसार- 'अब मेरा सपना पूरा हो गया है इस अस्पताल से प्रतेक साल हजारो लोगो को निशुल्क इलाज मिलता है' उनसे बात करते हुए ही जाना क़ि वे मथुरा जाने की तैयारी कर रही है।
'अब कृषण शरण में ही मुक्ति मिलेगी' ।
सुभाषिनी मिस्त्री जिन्होंने स्कूल की शिक्षा नहीं ली लेकीन जीवन से उन्होंने बहुत कुछ सीख लिया पति की मृतु के बाद हंस पुकुड़ में अपना परिवार चलाने के लिए उन्होंने सब्जी की दुकान लगाई उन्होंने उस परिस्थिति में भी समाज के लिए एक अस्पताल का सपना देखा १९७१ में देखा हुआ सपना २१ सालो के बाद पूरा होता हुआ उस समय जन पड़ा जब १९९२ में उन्होंने अस्पताल के नाम पर एक बीघा जमीन खरीद ली १९९४ में इस अस्पाल की एक अस्थायी सी ब्यवस्था की गई यह अस्पताल मिस्त्री की ली हुई जमीन पर एक झोपड़ी डालकर प्रारम्भ हुआ आज के पास अपनी दो मंजिला ईमारत है और १०० लोगो के लिए बेद का इंतजाम है अस्पताल के पास अपना आपरेशन थियेटर है अब इस अस्पताल की चर्चा देश भर में है, लोग इसे जानने लगे है, इसलिए कुछ मददगार भी आगे आए अस्पताल का विस्वास अपने मरीजो को निशुल्क और अच्छा इलाज देने में है आज अस्पताल में प्रतिदिन ५० से ६० मरीज आते है रविवार के दिन यह संख्या १५० भी हो जाती है ऐसा नहीं है के इस अस्पताल में आसपास से मरीज आते है, कई बार बार ५०-१०० किलोमीटर की दुरी से भी मरीज एस गाव के अस्पताल में इलाज के लिए आये है।
सुभाषिनी याद करती है, जब पति उसे छोडकर गए थे उनकी उम्र मात्र २३ साल की थी चार बच्चे पीछे रह गये थे जो सबसे बड़ा था वह नौ साल का और सबसे छोटा तीन साल उस समय तक सुभाषिनी कोई काम नहीं करती थी पति की जब मौत हुई उस वक्त घर में कुल जमा नब्बे पैसे थे किस तरह भातेर पानी (माड़-चावल का पानी) के लिए उन्हें अपने पड़ोसियों के सामने हाथ पसारना पड़ता था कई बार उन्होंने अपने को घास उबल कर नमक पड़ता था कई बार उन्होंने बच्चो को घास उबाल कर नमक के साथ खिलाया है अपने बुरे दिनों में जब वे अपने अस्पताल का सपना किसी को बताती थी तो लोग उनपर हँसते थे आज सुभाषिनी मिस्त्री का वह सपना पूरा हो गया है वे खुस है।
श्रमिक का श्रमिको के लिए श्रमजीवी
नदिया जिले के छोटे से गाव नवदीप का रहने वाला रिक्शा चालक सन्यासी के पाव की हड्डी एक दुर्घटना में टूट गई घर में पैसे नही थे फिर सन्यासी को इलाज के लिए उसके कुछ साथी कोलकता हावड़ा स्थित श्रमजीवी अस्पताल में छोड़ गए इस विस्वास के साथ कि यहाँ सन्यासी के इलाज के आड़े पैसे की कमी नहीं आयेगी इस अस्पताल में न सिर्फ सन्यासी का इलाज हुआ बल्कि जब उसके पास अपने घर तक जाने के लिए पैसे नहीं थे। और घर से कोई लेने भी नहीं आया तो अस्पताल ने ही तक जाने का पैसा उसे कोई लेने भी नहीं आया तो अस्पताल ने ही घर जाने का पैसा उसे उपलब्ध कराया इतना ही नहीं, अस्पताल का एक साथी उसे घर तक छोड़ने भी गया क्या आप ऐसे किसी निजी अस्पताल की कल्पना कर सकते है, जंहा मरीज का स्वस्थ लौटना प्रबंधको की प्राथमिकता होती इलाज से पहले मरीज का जेब नहीं टटोला जाता इसलिए किसी मरीज को दाखिल करते समय कभी पैसा बीच में नहीं आता दुसरी बात, यहाँ इलाज कोलकाता के किसी भी निजी अस्पताल से कमतर नहीं है लेकिन पैसे दुसरे अस्पतालों की तुलना में कम लिए जाते है इस साल अस्पताल में ओंपीडी में तीस हजार से अधिक लोग आए डैलिसिस के लिए लगभग सतैसा सौ लोग आए, अस्पताल में लगभग आठ हजार लोगो को भर्ती किया गया श्रमजीवी अस्पताल से जुड़े फनिगोपाल कहते है, 'अस्पताल हमारे लिए पैसा बनाने की जगह नहीं है सेवा का माध्यम है इसलिए हमारे लिए साथ जो लोग काम करते है, उन्हें हम सजी स्थित फटे स्पष्ट क्र देते है' फनिगोपाल स्पष्ट शब्दों में कहते है अस्पताल से जुड़े साथियों को इतना पैसा ही मिलता है, जिससे वे अपना जीवन चला सके और मरीजो की सेवा कर सके खुशी की बात है कि इन शर्तो पर भी अस्पताल को नए-पुराने लोगो का भरपूर स्नेह मिल रहा है,।
इस अस्पताल की शुरुआत इंडो जापान स्टील फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों के हाथो ८० के दशक के शुरुआती वर्षो में हुई यह वह समय था, जब मजदूर सगठन को मजदूर अपने जीवन की हर मुश्किल और बड़ी से बड़ी समस्या का हल मानते थे एक दिलचस्प बात और, उस दौर में इस अस्पताल का उदघाटन किसी भी बड़े राजनेता या सामाजिक कार्यकर्ता से करवाया जा सकता था लेकीन श्रमजीवी अस्पताल से जुड़े लोगो नए फैक्ट्री के अपने सबसे पुराने साथी मुरारी उपाध्याय से इस अस्पताल का उदघाटन करवाया उन दिनों उपाध्याय फैक्ट्री में बतौर गेट मैं कम करते थे इस अस्पताल में बाई पास सर्जरी जैसा आपरेशन अच्छे डाक्टरों के हातो मात्र बीस- पच्चीस हजार रुपए में आज भी सभव है आने वाले समय में इस अस्पताल के साथ एक मेडिकल कॉलेज से निकले डाक्टर भी अस्पताल की तरह देश में मिसाल बने
विदर्भ के किसानो को मिले साथी
यवतमाल में विजय कुमार पाटिल का नाम बहुत जाना पहचाना नही है मीडिया की सुर्खियों में भी वे नही है फिर आप सोच रहे होगे कि उनका जिक्र यहाँ क्यों आया ? बताते है, थोडा सब्र कीजिये विजय की उम्र होगी यही करीब तीस बत्तीस साल के आस पास तीन साल पहले टीस (टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस) की तरफ से ब्लाक प्लेसमेंट के लिए एक महीने के लिए विदर्भ आए और एक महीना गुजरने के बाद भी वापस नही गए विजय और उनके आठ साथी इस वक्त जो काम यवतमाल में कर रहे है, हो सकता है, वह कम आपको साधारण ही लगे लेकीन उनका यह काम तारीफ के काबिल जरुर है चूकी उनका यह कम सरकार से किसे प्रकार के फंड के लोभ में नही है ना ही उन्हें अपने कम के बदले सरकारी- गैर सरकारी पुरस्कार पाना है कोल्हापुर के रहने वाले विजय अपने दोस्त अल्वीन डिसूजा के साथ ही यवतमाल आए थे टीस की तरफ से दोनों नए साथ-साथ यहाँ रहने का फैसला किया प्लेसमेंट का समय बीत जाने के बाद भी चूकी खालिस समाज सेवा से घर तो नही चलता। ब्यक्ति की कुछ जरूरते होती है। शुरुआत के छह महीने विजय और आल्वीन दोनों के लिए मुश्किल भरे थे। बाद में आल्वीन मुंबई चले गए। इधर विजय के पास बचे हुए पैसे भी धीरे- धीरे खत्म हो रहे थे। इसी बीच टीस की तरफ से उन्हें फेलोशिप मिल गई और यवतमाल में उनका रहना आसन हो गया। फेलोशिप में मिलने वाले पैसे वैसे बहुत कम थे लेकिन विजय की जरूरते उसमे भी कम थी। उन्हें लगा इतने पैसे में कुछ और साथियों को वे अपने साथ जोड़ सकते है, जो किसानो के पक्ष में कुछ करना चाहते है। इस तरह अकेले ही चले विजय का काफिला बढ़ता गया, और लोग साथ आते गये जिससे कारवा बनता गया।
आज विजय के साथ पंकज महाले,रुपेश मारबते, अम्बादास कुशलकर, अर्चना दवारे, कीर्ती देशपान्डे, संगीता वसाले, शवेता ठकरे, जैसे साथी है। यह सभी साथी एक साथ किसी टेलेंट हंट से चुने हुए साथी नहीं है, यह सभी एक एक करके आए। आज भी इस टीम से जो वापस जाना चाहे या कोई इमानदारी से किसानो के हक के लिए लड़ना चाहे, इन दोनों के लिए विजय एंड कंपनी जिसका अर्थ होता है 'कास्तकार', के दरवाजे खुले हुए है।
कास्तकार किसी एनजीओ या ट्रस्ट का नाम नहीं है। यह सिर्फ एक मंच है, जिसका इस्तेमाल सिर्फ कास्तकार मंडल के सदस्यों अपने कम को सुबिधाजंक तरिको से आगे बढ़ाने के लिए किया है। चूकि इस मंडली के सदस्य ब्यक्ति पूजा की जगह कम की पूजा में यकीन रखते है।
कास्तकार के साथियों से परिचय के बाद, अब यह जानते है कि यह मंडली काम क्या करती है? 'कास्तकार' से जुड़े साथी किसानो के पक्ष में खड़े होते है, उनके हक के लिए लड़ते है और उन्हें जागरूक करने की कोशिश करते है। पहले शहर से दूर वाले गावो में रहने वाले किसानो को मंडी भाव पता नहीं होने के कारण बिचौलिए गलत भाव बताकर सस्ता सौदा ले आते थे और उसे स्थानीय मंडियों में उचे भाव पर बेचते थे। आज कास्तकार के साथी प्रतिदिन सुबह शाम लगभग हजार किसानो के मोबइल पर इन्टरनेट के माध्यम से अनाज से लेकर सब्जी तक के ताजे मंडी भाव भेजते है। इस तरह गाव के किसान बाजार भाव से परिचित हो जाते है। किसी दिन इन्टरनेट कनेक्शन में गडबडी की वजह से किसानो को यह अपडेट नही मिलता तो कास्तकार के साथियों के मोबाईल पर किसानो के फोन काल्स की झंडी लग जाती है। भेजते है। इस तरह गाव के किसान बाजार भाव से परिचित हो जाते है। किसी दिन इन्टरनेट कनेक्शन में गडबडी की वजह से किसानो को यह अपडेट नही मिलता तो कास्तकार के साथियों के मोबाईल पर किसानो के फोन काल्स की झंडी लग जाती है। किसानो के लिए हितकारी कोई योजना हो या सूचना, सरकारी स्तर पर आई हो या गैर सरकारी स्तर पर। कास्तकार के साथियों को मिलती है तो वे फौरन उस सूचना को पोस्टर बध करके उसकी दो-
कार किसी एनजीओ या ट्रस्ट का नाम नहीं है। यह सिर्फ एक मंच है, जिसका इस्तेमाल सिर्फ कास्तकार मंडल के सदस्यों ने अपने काम को सुबिधाजंक तरिको से आगे बढ़ाने के लिए किया है। चूकि इस मंडली के सदस्य ब्यक्ति पूजा की जगह काम की पूजा में यकीन रखते है।
कास्तकार के साथियों से परिचय के बाद, अब यह जानते है कि यह मंडली काम क्या करती है? 'कास्तकार' से जुड़े साथी किसानो के पक्ष में खड़े होते है, उनके हक के लिए लड़ते है और उन्हें जागरूक करने की कोशिश करते है। पहले शहर से दूर वाले गावो में रहने वाले किसानो को मंडी भाव पता नहीं होने के कारण बिचौलिए गलत भाव बताकर सस्ता सौदा ले आते थे और उसे स्थानीय मंडियों में उचे भाव पर बेचते थे। आज कास्तकार के साथी प्रतिदिन सुबह शाम लगभग हजार किसानो के मोबइल पर इन्टरनेट के माध्यम से अनाज से लेकर सब्जी तक के ताजे मंडी भाव भेजते है। इस तरह गाव के किसान बाजार भाव से परिचित हो जाते है। किसी दिन इन्टरनेट कनेक्शन में गडबडी की वजह से किसानो को यह अपडेट नही मिलता तो कास्तकार के साथियों के मोबाईल पर किसानो के फोन काल्स की झंडी लग जाती है। भेजते है। इस तरह गाव के किसान बाजार भाव से परिचित हो जाते है। किसी दिन इन्टरनेट कनेक्शन में गडबडी की वजह से किसानो को यह अपडेट नही मिलता तो कास्तकार के साथियों के मोबाईल पर किसानो के फोन काल्स की झंडी लग जाती है। किसानो के लिए हितकारी कोई योजना हो या सूचना, सरकारी स्तर पर आई हो या गैर सरकारी स्तर पर। कास्तकार के साथियों को मिलती है तो वे फौरन उस सूचना को पोस्टर बध करके उसकी दो-ढाई सौ कापी कराके गाव-गाव में जाकर चिपका आते है। कई बार बात दो ढाई सौ पोस्टर से नहीं बनती नजर आती तो वे हजार दो हजार पर्चे छपवा लेते है । समय-समय पर अलग-अलग गाव के किसानो के साथ अलग-अलग विषयों पर गोष्ठी करते है। जिससे कोशिश यही होती है की उस विषय से सम्बन्धित सभी समस्याओं का निदान उस गोष्ठी में ही हो जाए। यदि किसी सवाल में किसी प्रकार का संशय शेष रह जाता है तो कास्तकार के साथी उस विषय के विशेषग्य से मिलकर उस सवाल का निराकरण करते है। यह सच है की कास्तकार कुछ जुनूनी साथियों का एक छोटा प्रयास है लेकिन इस तरह के छोटे छोटे प्रयास जिले में किसी मुहीम की तरह शुरू हो जाय तो किसानो की आत्महत्याओं पर राजनीति नही होगी बल्कि लगाम लगेगी ।

Tuesday, January 18, 2011

अब नहीं आती अफीम की सौंधी महक



'पच्चीस साल पहले जिस झालावाड में अफीम के पच्चीस हजार पट्टे थे, आज यह संख्या छह सो पहुच गयी है'
झालावाड जिला स्मैक तस्करी के लिया बदनामी झेल रहा है। जिले में खास कर भवानीमंडी कसबे में इस नशे का कारोबार सिमटता जा रहा है। जिले में स्मैक की जननी अफीम की फसल का रकबा नाम मात्र रहा गया है। इसकी वजह राजनीतिक नैतिक हालात रहे हो या किसानो का दुर्भाग्य लेकिन अब इस फसल का रकबा सीमावर्ती मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले की ऑर खिसक गया है। यहाँ अफीम का उत्पादन झालावाड जिले से कई गुना अधिक है।
भवानीमंडी क्षेत्र में कुछ वर्षो पूर्व तक हर गाँव के दर्जनों खेतों में अफीम की फसल लहलहाया करती थी। पर अब ऐसा नजारा नहीं है। अब दूसरी फसल लहलहा रही है। मौसम का यह वह समय है जब जिस गाँव में चले जाते वहां के खेतों में अफीम की सौंधी सौंधी महक आती थी। किसान अपने पूरे परिवार सहित अफीम की फसल की देखरेख में व्यस्त रहता था । उसकी आर्थिक हालत को भी फसल से संबल मिलता था। लेकिन यहाँ से होने वाली अफीम व स्मैक की तस्करी तथा केंद्र सरकार की सख्त निति के चलते किसानों से अफीम के पट्टे छीनते गये और किसानों के हाथ से यह नकदी फसल जाती रही।
लगातार घटते जल स्तर से फसल के उत्पादन में असर पड़ा। मादक पदार्थों के बाज़ार में इसकी कीमतों में लगातार बढोतरी हुई जबकि सरकारी खरीद के दाम उसके अनुपात में कम बढे। भावों के इस अंतर से किसान अपना माल चोरी छुपे इन तस्करों को देने पर आकर्षित होने लगा । आर्थिक हालात का मारा किसान इनकी ओर आकर्षित होकर माल सरकार को देने के बजाये इनको देने लगा। कई बार मौसम की मार से भी उत्पादन पर असर पड़ा। लेकिन सरकार ने लेवी में ली जाने वाली अफीम में कई कटौती नहीं की जिससे सरकार को कम अफीम देने वाले किसानों के साल दर साल पट्टे निरस्त होते रहे। आज हालात यह है कि किसानों को समृद्ध करने वाली यह फसल उनके हाथ से निकल गई। अब हालात यह है कि दर्जनों गावों में ढूढने के बाद एक दो खेत में ही अफीम कि फसल मिलेगी।
झालरापाटन पंचायत समिति क्षेत्र के सरपंच संघ अध्यक्ष चंदर सिंह राणा कभी अफीम उत्पादक काश्तकार थे । राणा का कहना है कि दो चार बीघा जमीन वाले अफीम उत्पादक किसान जो इस अफीम कि फसल के ऊपर ही साल भर अपना घर चला लिया करते थे उनके सामने बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। इनको पुन: पट्टे मिले इसके लिए सैकड़ो किसानों के साथ दिल्ली में राहुल गाँधी, मुकुल वासनिक, सम्बंधित मंत्रियो को ज्ञापन दिया लेकिन दुर्भाग्य ही है कि हमारे लाख प्रयासों के बावजूद प्रति वर्ष अफीम के पट्टे कम होते जा रहे है।
अफीम कि खेती छोड़ चुके किसान कहते हैं कि करीब 25 वर्ष पूर्व झालावाड जिले में 25 हजार के लगभग अफीम पट्टे किसानों के पास थे। इसकी देखरेख के लिए केंद्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो के उत्पादन पर निगाह रखने वाले तीन कार्यालय भवानीमंडी, झालावाड व इकलेरा में संचालित होते थे। जिनमे लम्बा चौड़ा स्टाफ था लेकिन पट्टे टूटने से यह वर्ष दर वर्ष बंद होते गये।
क्षेत्र के किसानों को संबल देने वाली नकदी फसल हाथ से निकलने तथा किसानों कि इस दुखती नब्ज को समझते हुए गत लोकसभा चुनाव लड़ रहे प्रमुख दलों ने इसे मुद्दा बनया था। किसानों को अधिक से अधिक अफीम के पट्टे दिलाने का वादा किया थे लेकिन अब सारे वायदे हवा हो चुके हैं ।

Premji shows the way, will others follow?


Philanthropy by captains of industry is picking up but a lot remains to be done for the downtrodden


Amitabh Shukla / New Delhi


Corporate philanthropy in India has taken a giant leap with the decision of Wipro chief Azim Premji to donate a whopping Rs 8,846 crore for charity. Never before in the country has any industrial house or an industrialist shown such a gesture of profound magnitude for the have nots of the society.


What makes Premji's gesture all the more important is that the donation has been made from personal wealth and not as part of the much-hyped corporate social responsibility (CSR) of the industrial houses. He could have used the money to buy a cricket team or a private jet but he did not.


Moreover, there is a clear vision and direction on what is to be done with the funds to the tune of Rs 8846 crore unlike many examples in which the industrialists merely donate for a specific work like calamity relief, get a photo shoot done for publicity and then forget their responsibility towards the more unfortunate brethren of their country.


Even though India has a tradition of charity - all religions preach this, big time corporate charity is picking up only now. For most personal aggrandizement, stashing money in foreign banks, living a luxurious lifestyle, building a magnificent house, acquiring jets, yachts and limited edition automobiles is the order of the day. Though wealthy people in the past - the Sheths, some industrialists – had been contributing to religious institutions, very few had a vision of what needs to be done with the funds beyond the short term and how to create a lasting impact on society.


If a hungry person is given fish to eat, it will solve a temporary problem of hunger. But if you teach him how to fish, it will be a permanent solution to the woes, goes the saying. Teach him and empower him. This is what Premji has done.


Premji in his statement said, "We believe that good education is crucial to building a just, equitable, humane and sustainable society. We want to contribute significantly towards improvement of education in India, and through that towards building a better society." The philanthropist said, "All our efforts, including the University that we are setting up, are focused on the underprivileged and disadvantaged sections of our society. Our experience of the past 10 years has motivated us to significantly scale up our initiatives, across multiple relevant dimensions." The IT czar said that the Foundation's significant increase in scale and its clear focus on social purposes will require a substantial long term financial commitment, which is the purpose this endowment will serve."


Premji's initiative was followed by Ajay Piramal's Piramal Healthcare which announced spending of up to Rs 200 crore in charity, primarily on healthcare and education. The money will be given to different organisations in phases to optimize the benefits. The company also clarified that such contributions will not directly relate to the business of the company or the welfare of its employees and forms a part of its CSR.


Interestingly, it is the Indian IT industry, their founders, leaders, IT entrepreneurs and spouses, most of whom who have made their fortunes themselves instead of inheriting it, who are spearheading corporate philanthropy in India in true sense of the term. The traditional captains of industry still lag behind in the initiative.


Not surprising, IT majors Infosys, MindTree, TCS and HCL have been launching and supporting ventures that create social equity, better lives for the have nots and creation of opportunities for the downtrodden for whom there is nothing to look forward to except government support and to God. The top professionals and entrepreneurs in the IT sector have already set aside chunks of their wealth for charity, most of which are already functioning and changing lives at the grassroots.


While Infosys cofounder Naryana Murthy's family recently gave $5.2 million to Harvard University and its press for a series on Indian literary heritage, Tata Group also gave $50 million to Harvard Business School.


Murthy and his wife Sudha Murthy are also understood to have set up a venture capital fund to give credit to the poor. Sudha also leads the Infosys Foundation that works in villages in education, healthcare and other projects.


Coming back to Infosys, CEO and President Kris Gopalakrishnan donates around Rs 4 crore a year. Infosys co-founder Nandan Nilekani, now with the government on the National Identification Number project and wife Rohini have gifted $5 million for the Yale India Initiative.


Shiv Nadar, the founder of HCL, too has not lagged behind and pledged a tenth of his $4 billion wealth for charity.Sunil Mittal, the telecom czar, is not behind as Bharti Foundation primarily runs on his donations and is doing an excellent work in education in several parts of the country and bridging the gap between government effort and the needs of the community.


The Tatas and the Birlas, the traditional industrialists, are in philanthropy in a big way, often without any publicity, doing it silently and effectively. The Tata Sons, holding company of the group, uses the money earned on charity. Likewise, the Birlas run hundreds of institutions catering to education, medical help, grants to religious institutions amongst others. The Godrej family too has contributed in its own way from the beginning and so have the Sarabhais from Ahmedabad.


But is it enough? Indian billionaires can do much more for charity than they are doing. Thousands of cooperatives, NGOs at the grassroots and institutions doing brilliant work are perpetually starved for funds. Their impact could have multiplied many fold had they got the funds which they deserved due to the sheer volume of work they undertake. The outreach and impact of these organisations would only grow and create the desired social impact at the grassroots if they get more funds.


Reports had it that by western standards Indian charity amounts to peanuts and a lot needs to be done by industrialists here. A recent report suggested that in India individual and corporate donations make up only a tenth of charitable giving. While 65 per cent comes from the government through various schemes to the NGOs, the remaining comes from abroad.


Clearly, government, both at the centre and the states, remains one of the biggest donors to the projects in the voluntary sector. It has perhaps realized that the NGOs, cooperatives, civil groups and communities have played a major role in rural development, through catalysing people's initiatives for change, as well as through direct implementation of interventions around specific issues and therefore addressing the needs accordingly.


Formal recognition of the role ofvoluntary organizations came in the Seventh Plan document. This led to the formation of the Council for Advancement of People's Action and Rural Technology (CAPART) in 1986, as a nodal agency for catalysing and coordinating the emerging partnership between voluntary organizations and the Government for sustainable development of rural areas.


An autonomous body registered under the Societies Registration Act 1860, CAPART is functioning under the aegis of the Ministry of Rural Development, Government of India.
Even though there have been charges of irregularities and corruption, today, this agency is a major promoter of development activities in India with focus on grass-root. It assists over 12,000 voluntary organizations across the country in implementing a wide range of development initiatives.


The country is presently going through a change in its institutional structure in the developmental field where the move is to decentralize down to the lowest levels of panchayat. The panchayats at the village level are gradually becoming more important in all decision making and development at the grassroots. They are deciding the developmental agenda and governments at the Centre and the states are also giving them control over financial resources to meet the objectives.


It is here that the NGOs have the big task of facilitation and also build capacities within the panchayat institutions to enable them to discharge their responsibilities in a better and
inclusive manner.


The involvement of voluntary organisations in implementing development programs in partnership with the government has become key to this agenda. Such a role for the panchayats in the government scheme of things of decentralization will only likely to increase in the future due to its sheer impact.


But government contribution is not enough and the corporate houses need to chip in a big way to have a social transformation by involvement of the panchayats and the voluntary
organisations working at the lowest pyramid of society. There is still an amount of indifference to this crucial issue as several e-mails sent by Sopan-Step to some prominent industrial houses on their social contribution and endowment for charity evoked little response. Most of them remained unanswered.


Not surprising that fund-raisers for social causes continue to complain about their problems and how the industrialists and the industrial houses keep rejecting their proposal on one pretext or the other. These fund raisers say that a lot of effort and paper work is required here in the country even to raise a small fund for social causes.


Moreover, the corporate funding agencies look for short term deliverables which cannot be the exact measurement of the success of a scheme run by an NGO or a cooperative.


The huge middle class too is largely tight-fisted despite the prosperity brought by economic boom and is hardly known to contribute towards any non-religious charity. The bar has to be raised.


However, after the global efforts of Warren Buffet and Bill Gates, urging the captains of industry to donate at least half their wealth to charity (see box) and the largest endowment in Indian history made by Azim Premji, the debate has been stirred in a way which had never been done in the past. The arrow has hit the target- the Bull’s eye. It has raised the consciousness on the issue and underlined the point that industrialists do have a role on solving the ills plaguing the society, the same society from where they have made their fortunes. They are gradually realizing the importance of leaving a lasting contribution and a legacy to the society.


But, the Corporate Social Responsibility of the organizations has to be seen with a pinch of a salt. For many it is simply propaganda and public relations exercise with a watchful eye on the stock market. If these industrial houses are seen to be doing something for the society through CSR, they believe that it would increase the acceptability of their products. Many simply consider it as an excellent brand promotion and marketing strategy thinking that such acts would also raise the value of their stocks.


Corporate houses and the captains of industry have to see development from the prism of creating empowerment, long term capacity building, and creating awareness in the larger
community - all of which take time, effort and gradual realization. The short term mechanism of calamity relief - flagging trucks carrying relief material, though necessary, is not the solution to the larger issues plaguing the society.


The involvement of local community, local activists, those who are well entrenched in the society is a must for any positive outcome. The flow of CSR funds has to be through these organisations and cooperatives at the grassroots and individuals to have any meaningful and lasting impact and not necessarily through the corporate foundations which by and large function for short term results rather than the long but fruitful and lasting long term route.


In March, 2010, the Indian dollar billionaires numbered 69, compared to 52 last year, second only to USA, which has 403. The recent economic fortunes of India have brought untold wealth to some individuals. According to Forbes, the combined net worth of India’s 100 richest people rose to $300 billion this year from $276 billion last year, driven by the country’s booming economy and a rally in the stock market.


The Indian economy is galloping towards the double digit figures of economic growth. Rate of growth at 8 to 9 per cent has become the order of the day in the country in the era of booming economy and rising stock prices.


While several business leaders are gradually waking up to the importance of philanthropy, time has come to build a greater momentum in order to make terms like hunger, illiteracy, malnutrition, ignorance redundant words in this century.

ashukla.mail@gmail.com

Tracks Cutting through national heritage


WILDLIFE

Tuskers facing brunt of Railways apathy in a losing battle

Reeta Tiwari / Kolkata

Railway tracks passing through national parks and wild life sanctuaries in North Bengal are turning into killing field for wild tuskers.

Seven elephants were brutally mowed down by a speeding train recently when they were trying to save two of their young trapped on the Siliguri-Alipurduar track in North Bengal. Five died on the spot. For two others, it was a slow, agonising end.

The National Heritage Animal status for the elephant was one of the important recommendations of 12-member Elephant Task Force which submitted its report to Environment and Forests Ministry in August 2010. The government accorded the status to the elephant following the approval of the Elephant Task Force.

The railways shrugged off its responsibility saying that the accident occurred between two tea gardens, which is not a protected zone. This stretch of line cuts through the tropical forests of the eastern Himalayas and is surrounded by tea gardens. Ninety percent of the accidents occur at night, prompting NGOs, forest officers and conservationists to press for a night ban on the movement of trains, a demand which was rejected.

In 2008, a Centre-appointed expert committee had identified six vulnerable zones where trains were mandated to go slow which fell on deaf ears.

These tragic incidents have finally stirred the Government to take notice of the frequent jumbo deaths on rail tracks. Environment and Forests Minister Jairam Ramesh decided to grant Rs 7 crore assistance package for developing forest infrastructure and Railway development work.

Chief Minister Buddhadeb Bhattacharya also wrote to Ramesh suggesting several measures. "The trains that run through these tracks during the day time should also have a speed restriction of a maximum 20 kmph," he wrote. Bhattacharya said that drastic steps like these were urgently needed as the tracks run through four wildlife sanctuaries and more than 20 identified elephant corridors. "During the 30-year period between 1974 and 2003, 26 elephants had been killed in collision with trains. In contrast, in a short span of seven years between 2004 and 2010, 27 elephants had died on railways tracks." The tracks in this area pass through some important wildlife corridors like Mahananda Wildlife Sanctuary, Chapramari Wildlife Sanctuary, Jaldapara Wildlife Sanctuary and Buxa Tiger Reserve. But the Railway has turned down the request to stop plying trains at night in this route.

Even after the elephant Task Force, set up by the Environment and Forests Ministry to suggest ways to protect the endangered elephants, submitted a report showing as many as 150 elephants have died since 1987 on train tracks, Railway officials have only shown apathy. The Task Force report has raised serious concerns about the loss of elephant habitat and increase in incidents of man-elephant conflict.

"One of the problems has been the lack of recruitment at the local level at the forest guard level, forest ranger level," said Ramesh during his visit. "Many other states have started the process of recruitment and we must bring in younger people. We must bring in more active people, give them the facilities to do their job," he added.

Wildlife activists say the need of the hour is to sensitise the government of the problem in hand and look for solutions to end the tragedy.

Fighting hunger remains a day-dream


Central schemes flounder, need to strengthen monitoring

Sopan Correspondent / New Delhi

Some of the social schemes meant to fight hunger and malnutrition in the country are in complete shambles. This has left the intended beneficiaries fighting for their survival in some of the poorest districts in the country with no alternative except to curse their fate.
Ironically the deficiencies loom large even as crores of rupees are spent on these schemes by the Centre every year. They include schemes like the ICDS, MDM and MGREGS. The poor state of affairs exist despite a series of directives from the Supreme Court since 2001 to tighten the schemes and make them reach the intended beneficiaries.
An indication to the poor reach of these schemes was pointed out by the National Family Health Survey which revealed that only 46 per cent of infants are malnourished and 49 per cent of women are aneaemic.
The Supreme Court appointed Commissioners, who are helping the court to monitor and track the implementation of its various orders, did surveys in Assam, Bihar, Jharkhand, Madhya Pradesh, Orissa and West Bengal. Not surprising, they found poor implementation of the central schemes.
Even the ministry of women and child development admits that only about 59 per cent of the eligible children are receiving nutrition supplements through the 11 lakh anganwadi centers across the country.
The survey of the SC Commissioners shows that in Madhya Pradesh, children were given food for just 130 days in a year, while in Bihar and Assam there were 180 feeding days on an average. Although Orissa with 240 and West Bengal with 242 were slightly better placed in this pedestal, they were still lagging in the mandatory requirement of at least 300 feeding days a year.
The SC Commissioners survey in most cases found a discrepancy between the official record of an anganwadi's operation and the villagers' testimony at the grassroots level. For instance, in Assam, the official records said the anganwadi centers functioned for 19 days per month on average, but villagers' version added up to only 12 days.
There is no dispute that food is a daily need. No one can skip nutrition for a week, fends for themselves and then resume and also be healthy. Moreover, it is universally recognized that inadequate or lack of nutrition at an early age permanently impair physical and mental capabilities, which is difficult to overcome at a later stage.
It was found that factors like shortage of staff, irregular supply of raw material, very irregular financial flows, excessive workload on the workers, insufficient funds for infrastructure, and corruption were some of the reasons for the criminal lacunae on the part of the authorities.
In Orissa, 28 per cent of the posts in the ICDS programme were found to be lying vacant while in West Bengal this was 22 per cent. Interestingly, in West Bengal, there are 12,082 anganwadis with no worker. The situation was no different in some other states.
The Targeted Public Distribution System ( TPDS) was found to be in a mess along with other schemes. In several places, the intended beneficiaries did not get any foodgrain for the entire year. As per Supreme Court orders 35kg rice per month at Rs 4.96 per kg should be provided. But the survey revealed that TPDS, the country's biggest and oldest food subsidy scheme is tottering on the ground. The survey reports from West Bengal, Bihar, Jharkhand, Orissa, Assam and Madhya Pradesh reveal that the gigantic scheme, billed as a lifeline for India's hungry millions, is in shambles.
According to the official statistics, every month, over 4.2 million tonnes of rice and wheat are allotted by the central government for distribution through a network of nearly half a million fair price shops spread across all states and Union territories. How much reaches the beneficiaries is anybody's guess.
Making people aware about the government schemes so that they can actually take benefits from it remains one of the challenges before the NGOs and the civil society groups. This is more so as the government officials simply do not want to admit the existence of schemes as it would only entail more administrative work for them, something which they hate, having grown up on a poor work culture and lack of concern for the downtrodden.
Ironically, this happens despite that fact that both the central and state governments run a large number of schemes for social welfare, health, income generation etc. for the underprivileged. In fact, the array of schemes makes it difficult for the governments (both central and state) to keep a track of them, the deliverables and the impact.