सारी प्रकृति संगीतमय है। इसके कण-कण में संगीत बसा है। मनुष्य भी प्रकृति का अभिन्न अंग है, इसलिए संगीत से अछूता नहीं रह सकता। साज़ और सुर का अटूट रिश्ता है। साज़ चाहे जैसे भी हों, संगीत के रूप चाहे कितने ही अलग-अलग क्यों न हों, अहम बात संगीत और उसके प्रभाव की है। जब कोई संगीत सुनता है तो यह सोचकर नहीं सुनता कि उसमें कौन-से वाद्यों का इस्तेमाल हुआ है या गायक कौन है या राग कौन-सा है या ताल कौन-सी है। उसे तो बस संगीत अच्छा लगता है, इसलिए वह संगीत सुनता है यानि असल बात है संगीत के अच्छे लगने की, दिल को छू जाने की। संगीत भारतीय संगीत का अहम हिस्सा है। भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोकगीतों में झलकता है। ये देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार व प्रसार का सशक्त माध्यम भी है।
शहरीकरण ने लोक मानस से बहुत कुछ छीन लिया है। चौपालों के गीत-गान लुप्त हो चले हैं। लोक में सहज मुखरित होने वाले गीत अब टीवी कार्यक्रमों में सिमटकर रह गए हैं। फिर भी गांवों में, पर्वतों व वन्य क्षेत्रों में बिखरे लोक जीवन में अभी भी इनकी महक बाक़ी है। हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में पारंपरिक लोकगीतों और लोककथाओं के बिंब-प्रतिबिंब देखे जा सकते हैं, जबकि मौजूदा आधुनिक चकाचौंध के दौर में शहरों में लोकगीत अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। संचार माध्यमों के अति तीव्र विकास व यातायात की सुविधा के चलते प्रियतम की प्रतीक्षा में पल-पल पलकें भिगोती नायिका अब केवल प्राचीन काव्यों में ही देखी जा सकती है।
बचपन से लोकगीत हमें बहुत लुभाते रहे हैं। आज भी जब लोकगायकों को देखते हैं तो बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं। आज भी दूर-दराज के इलाकों में जाना रहता है। तरह-तरह के लोगों से मिलना और उनकी ज़िन्दगी को क़रीब से देखना, उनके सुख-दुख को जानने का मौक़ा मिलता रहता है। ऐसे ही एक सफ़र के दौरान हरियाणा के कलानौर में कुछ लोक गायकों से मिलना हुआ। चुरू निवासी लोकगायक वीर सिंह कहते हैं कि लोकगायकों में राजपूत, गूजर, भाट, भोपा, धानक व अन्य पिछड़ी जाति के लोग शामिल हैं। ये रोज़ी-रोटी की तलाश में अपना घरबार छोड़कर दूर-दराज के शहरों व गांवों में निकल पड़ते हैं। वे बताते हैं कि लोकगीत हर मौसम व हर अवसर विशेष पर अलग-अलग महत्व रखते हैं। इनमें हर ऋतु का वर्णन मनमोहक ढंग से किया गया होता है। दिनभर की कड़ी मेहनत के बाद चांदनी रात की दूधिया चांदनी में चौपालों पर बैठे किसान ढोल-मंजीरे की तान पर उनके लोकगीत सुनकर झूम उठते हैं। फ़सल की कटाई के वक़्त गांवों में काफ़ी चहल-पहल देखने को मिलती है। फ़सल पकने की ख़ुशी में किसान कुसुम-कलियों से अठखेलियां करती बयार ठंडक और भीनी-भीनी महक को अपने रोम-रोम में महसूस करते हुए लोक संगीत की लय पर नाचने लगते हैं। वे बताते हैं कि किसान उनके लोकगीत सुनकर उन्हें बहुत सा अनाज दे देते हैैं, लेकिन वे पैसे लेने ज़्यादा पसंद करते हैं। अनाज को उठाकर घूमने में उन्हें काफ़ी परेशानी होती है।
वे कहते हैं कि युवा वर्ग सुमधुर संगीत सुनने की बजाय कानफोडू़ संगीत को ज़्यादा महत्व देते हैं। शहरों में अब लोकगीत-संगीत को चाहने वाले लोग नहीं रहे हैं। दिन-भर गली-मोहल्लों की ख़ाक छानने के बाद उन्हें बामुश्किल 50 से 60 रुपये ही मिल पाते हैं। उनके बच्चे भी बचपन से ही इसी काम में लग जाते हैं। चार से पांच साल की खेलने-पढ़ने की उम्र में उन्हें घड़ुवा, बैंजू, ढोलक, मृदंग, पखावज, नक्कारा, सारंगी व इकतारा आदि वाद्यों को बजाने की शिक्षा देनी शुरू कर दी जाती है। यही वाद्य उनके खिलौने होते हैं।
दस वर्षीय बिरजू ने बताया कि लोकगीत गाना उनका पुस्तानी पेशा है। उसके पिता, दादा और पड़दादा को भी यह कला विरासत में मिली थी। इस नन्हे लोकगायक ने पांच साल की उम्र से ही गीत गाना शुरू कर दिया था। उसकी मधुर आवाज़ को सुनकर किसी भी मुसाफ़िर के क़दम ख़ुद ब ख़ुद रूक जाते हैं। उसके सुर व ताल में भी ग़ज़ब का सामंज्य है। मानसिंह ने इकतारे पर हीर-रांझा, सोनी-महिवाल, शीरी-फ़रहाद व लैला-मजनू के क़िस्से सुनाते हुए अपनी उम्र के 55 साल गुज़ार दिए। उन्हें मलाल है कि सरकार व प्रशासन ने कभी लोकगायकों की सुध नहीं ली। काम की तलाश में उन्हें घर से बेघर होना पड़ता है। इनकी ज़िन्दगी ख़ानाबदोश बनकर रह गई है। ऐसे में दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम करना पहाड़ से दूध की नहर निकालने से कम नहीं है।
उनका कहना है कि दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण बच्चे शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम रहते हैं। सरकार की किसी भी जन कल्याण योजना का उन्हें लाभ नहीं मिला है। साक्षरता, प्रौढ़ शिक्षा, वृद्धावस्था पेंशन व इसी तरह की अन्य योजनाओं से भी वे अनजान हैं। वे कहते हैं कि रोज़गार की तलाश में दर-दर की ठोंकरे खाने वाले लोगों को शिक्षा की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। अगर रोज़गार मिल जाए तो उन्हें पढ़ना भी अच्छा लगेगा। वे बताते हैं कि लोक संपर्क विभाग के कर्मचारी कई बार उन्हें किसी सरकारी समारोह व मेले में ले जाते हैं और पारिश्रमिक के नाम पर 200 से 300 रुपए तक दे देते हैं, लेकिन इससे कितने दिन गुज़ारा हो सकता है। आख़िर रोज़गार की तलाश में भटकना ही उनकी तलाश में भटकना ही उनकी नियति बन चुका है।
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