Monday, September 5, 2011

जैसलमेर की खडीन परंपरा


बीरेन्द्र कुमार चौधरी

भारत के सुदूर पश्चिमी प्रांत राजस्थान का नाम सुनते ही आपके जहन में शायद एक ही ख्याल आता होगा कि पथरीली, रेतीली और बंजर भूमि का प्रदेश जिसमें कहीं -कहीं कंटीली झारियां और बबूल के पेड़ होंगे ! और उसमे भी यदि जैसलमेर जिले की बात हो तो आपका विश्वास एकदम से पुख्ता हो जायेगा! लेकिन थर मरुस्थल के इस भारतीय भू-भाग में एक क्षेत्र ऐसा भी है जहाँ सैकड़ो वर्षों से खेती की जाती है और खेती की ये तकनीक ६०० साल से भी अधिक पुरानी है! पहाड़ी ढलान पर वर्षा जल का संचय कर खेतों की नमी को बनाये रखना व खरीफ व रवि दोनों ही फसल उपजाने का ये देश का अपने आप में बेजोर उदाहरण है! खेती की इस परंपरा को यहं खडीन कहते हैं ! इसके तहत गेहूं , चना, बाजार, सरसों, जीरा, मुंग व ग्वार जैसे कई फसल उपजाए जाते हैं!
भौगोलिक संरचना के आधार पर जैसलमेर के विशाल क्षेत्रफल को हम दो हिस्से में बाँट सकते हैं जिसका एक हिस्सा थर मरुस्थल का रेतीला भू-भाग है तो दूसरा पहाड़ी ढलान! इसी पहाड़ी ढलान के काफी बड़े हिस्से में एक खास तरह की मिटटी पाई जाती है जिसमें खडीन की तकनीक से खेती की जाती है! ये खडीन किसी व्यक्ति विशेष की संपत्ति नहीं वल्कि पुरे समाज की है जिसका सामूहिक देख-भाल होता है जैसा की वहां के किसानों ने बताया! सहभागिता का ऐसा बेजोर उदहारण शायद ही भारत में कहीं और मिले ! कुलधरा, खाबा, कपककं, छातारेल, करा, दामोदर, रुसी, लडेल, बंसर, कठोरी, सरिया, भू, हड्डा, जैसे कई गांव हैं जहाँ खडीन पर आधारित खेती की जाती है! जैतसर यहाँ का सबसे बड़ा खडीन है जो बहुफसली है!

क्या है खडीन?
खडीन खेती की एक पद्धति है जिसमे वर्षा जल का संचय कर खेतों की नमी को बरकरार रखा जाता है! यह एक खास किस्म की मिटटी में ही संभव है नहीं तो जमीं में सेम की समस्या आने का खतरा रहता है - जैसा की राजस्थान लोक सेवा आयोग के सचिव डॉ. के. के. पाठक ने बताया ! वहीँ जैसलमेर विकास समिति के संयोजक चन्द्र प्रकाश व्यास ने बताया - जैसलमेर और इसके आस-पास के क्षेत्र में जमीन के निचे एक निश्चित गहराई के बाद मुल्तानी मिटटी मिलती है जिसकी ये खाशियत होती है कि जब पानी को बांध बना कर रोका जाता है तो यह जमा पानी को सोख लेता है और जब उपरी धरातल का पानी सुख जाता है और खेतों में फसल बो दिए जाते हैं तो निचे कि ये गीली मुल्तानी मिटटी अपने अत्यधिक गीलेपन से जमीन में नमी बनाये रखता है ! चूँकि इन क्षेत्रों में कड़ाके कि ठण्ड पड़ती है इसलिए इन खेतों में अतिरिक्त पानी कि बहुत कम जरुरत रह जाती है जो यदा कदा ठंढ के मौसम में हुई वर्षा से पूरा हो जाता है और खासे पैदावार हो जाता है!
वहीँ भूगर्भशास्त्री एल पी शर्मा ने बताया कि राजस्थान का ये पथरीला क्षेत्र कभी समुद्री तलहटी रहा है जिसके चलते यहाँ मुल्तानी मिटटी का जमीन के निचे मिलना स्वाभाविक है! खास कर आप यहाँ मिलने वाले पत्थरों का रंग देखे तो इसका रंग समुद्र कि तलहटी में मिलनेवाले चट्टानों से काफी मेल खता है जिससे यह और अधिक पुख्ता हो जाता है! और मुल्तानी मिटटी कि ये खासियत है कि यह न केवल अत्यधिक पानी को सोखता है वल्कि लम्बे समय तक नमी को भी बनाये रखता है! यही कारन है कि यहाँ खडीन का प्रयोग पूरी तरह सफल हुआ!
मूलतः खड़ीन में पहाड़ी ढलान पर काफी लंबी लगभग 4से5 फीट उंची बांध बनाकर पानी को रोका जाता है। जिसके एक सिरे पर पत्थर से एक मजबूत दीवार बनाई जाती है जिसे पंखा कहते हैं। और इस पंखे से लगी कुछ दूर तक पत्थर का मेंढ़ बनाया जाता है जिसके उपर से खड़ीन के भडने के बाद अतिरिक्त पानी निचले खडीनों में जाती है। इस तरह एक के बाद दूसरा फिर तीसरा यानि सभी खडीनें जो एक दूसरे से जुडी है पूरी तरह से भर जाती है। चंूकि खडीन किसी व्यक्ति विषेप की नहीं सामाजिक सम्पत्ति है इसलिए खडीनों के बीच खेत में कहीं भी मेंढ देखने को नहीं मिलती। य िकिसान को पता है कि उसका खेत कहां है और वह अपने हिस्से के जमीन में ही खेती करते हैं।

कैसे सरू हुआ खडीन:
खडीन की सूरूआत पालीवाल ब्राहमणों ने किया जो 14वीं सताब्दी में जोधपुर राज्य के पाली क्षेत्र में रहते थे पालीवालों की संस्कती एंव इतिहास पर काम करने वाले ऋसिदत्त पालीवाल के अनुसार ष्तत्कालीन आदिवासी जोधपुर नरेष सियादेव की गलत नीतियों एवं जोधपुर पर दिल्ली सल्तनत के लगातार आकमण से परेषान होकर पालीवाल पाली छोडकर जा रहे थे जिसकी सूचना तत्काली जैसलमेर के महाराज को मिली । उन्हीं इन ब्राहमणों अपने राज्य में बसने का निमंत्रण दिया जिसके जबाव मे पालीवालों ने राजा के सामने कुछ सर्त रखी जिसमें सबसे प्रमुख है ये ब्राहमण यहां खेती करेंगे जिसकी उपज का 5वां हिस्सा राज्य को राजस्व के रूप् में लेना पडेगा जिसे काफी नुकसान के बाद राजा ने मान ली और पालीवाल यहॅंा बस गए और उन्होंने ही खडीन बनाए। एक अन्यषोधकर्ता अनुपम की पुस्तक रजतबूॅंदें के मिश्रानुसार- वर्तमान पकिस्तान से उस समय एक नहर राजस्थान के उस क्षेत्रसे होकर गुजरती है जिसे यहॉं काक नदी के नाम से जाना जाता है उसी के किनारे ये पालीवाल 84गांवों में बसे। चूॅंकी बरसाती मौंसम में नदी में आने वाली बाढ़ का पानी इन खड़ानों में भर जाता था जिससे अच्छी पैदावार होती। इस कारण पालीवाल कुछ ही समय मेें सम्रद्ध हो गए।
च्ंद्रप्रकाष व्यास के अनुसार अंग्रेजों के आने से पहले राजस्थान का यह क्षेत्र सिल्क रूट भी था जिसे पालीवालों के अतिरिक्त आमदनी का जरिया व्यापार भी था लेकिन अंग्रेजों का बॉंबे और करॉंची बंदरगाह पर कब्जा होने के बाद गिरावट व अंग्रेजों के बढते प्रभाव 18वीं सदी के उत्तरार्ध में यहॉं के शासक राजा महावल मूलराज - 2 और उनके उत्तराधिकारी के दीवान सालेम सिंह की उन ब्राहमणों के साथ कूरता एंव अत्याचार जिसका निदान राजा ने नहीं किया उल्टे इनके साथ कूरता से पेश आए और 1800 ईस्वी के आस पास से इस क्षेत्र में पडने वाले अकाल सें परेशान पालीवालों ने इस क्षेत्र को छोड दिया।
आज के समाज में खडीनों की उपयोगिता
आज जबकि समाज आधूनिकता और पैसे के पीछे भाग रहा है ऐसे में भी राजस्थान का ये क्षेत्र उससे कोसों दूर रहता दिख रहा है सियाराम सिंह नाम के एक किसान जिसका जमीन डिडडा खडीन में पडता है ने बताया सर जी जीने के लिए पैसा जरूरी है लेकिन समाज से कटकर हम कितना रह सकते हैं। हर कदम और हर मोड पर समाज का सहयोग जरूरी है और जब इस दुनिया से जाएंगे तो क्या इस जमीन को साथ ले जायेंगे। फिर जिंदगी में कलह किस बात की। अगर हम सामूहिक रुप से खेती करते हैं तो इसके कई फायदे हैं
1- जरूरी नहीं कि हमें रोज खेत जाना पडे,
2- पाली के हिसाब से खेत जाते हैं और बांकी दिनों में दूसरा काम भी कर लेते हैं जिससे अलग आमदनी हो जाती है सबको,
3- आपसी मेल भाव भी बना रहता है और जरुरत पडने पर सभी दिल खोलकर सहयोग एक दूसरे का करते हैं। यही नहीं मन में एक निसश्चिंता सी बनी रहती है।
व्हीं ेजब हमने एक अन्य किसान शोकत मिंयां से बात की तो उन्होंने बताया साहब हम ज्यादाद पढे लिखे तो हैं नहीं कि कहीं नौंकरी कर लेता ।हॉं अपने पुरखों की जमीन में खेती कर लेता हूॅ। और अच्छी आमदनी हो जाती है जब उनसे पूछा कि आपके पास कितनी ेजमीन है तो उनका कहना था कि साफ तो नहीं बता पाउंगा हां मेरा जमीन छतरेल काए और नाला तीन खडीनों में पडता है जिससे हर साल खर्च काटकर मेरे हिस्से में इस साल लगभग एक लाख रुपये का फसल आया है।मुझसे भी ज्यादा जमीन वाले किसान हैंजिसे और भी अधिक मिलता है वहीं खाट पर बैठे शौकत के 90 साल के बुजुर्ग चाचा रहमत मिंयां ने अपने लडखडाती जुबान मे बताया बेटा आज 90साल की उम्र मेरी है और अपनी जिंदगी मे हमने जो भी किया है आपसी मेल-जोल से ।जिस भी खडीनों में जिसकी जमीन है वह तभी तक है जब तक वह गांव में है गांव से जाने के बाद उसका हिस्सा सभी मे बराबर बंट जाता है अगर वह लौट आया तो फिर अपने हिस्से की जमीन मे खेती करे किसी को भी आपत्ति नहीं है ये परम्परा अभी तक तो चली आ रही है और उम्मीद करता हूॅं कि हमारे बच्चे भी इसका पलन करें क्योंकि साझे में ही शांति और सम्पत्ति है।

नये जमाने मे खडीन-ः
हालांकि पालीवालों को यह क्षेत्र छोडे लगभग 200 साल होने को है लेकिन उनके बनाऐ खडीनों में आज भी खेती उसी ढंग से हो रही है हॉं काक नदी पाकिस्तान के बनने के बाद धीरे-धीरे सूखती चली गई और अब तो यह नाम मात्र का रह गयी है इसलिए इन खडीनों के किसान पूरी तरह मौसम पर आश्रित हैं। हालांकि स्वतंत्रता के बाद राजस्थान सरकार ने कुछ नए खडीन भी बनवाए लेकिन प्रयोग पूरी तरह असफल सवित हुई।
राजस्थान लोक सेवा आयोग के सचिव डॉ के. के. पाठक जो एक समय जैसलमेर के डी.एम रहे थे और उन्होंने यहॉं की कर्षि पद्यति पर काफी काम किया था साथ ही पुराने खडीनों की मरम्मत भी कराई थी।उन्होंने नए के मुकाबले पुराने खडीनों की कुछ विशेषता बताया जिनमें-
1. पालीवालों के उच्चस्तरीय कर्षि तकनीक का ज्ञान एंव मिटटी की समझ.
2. पुराने खडीनों में एक निश्चित गहराई के बाद मुल्तान मिटटी की उपलब्धता.
3. भू अपरदन को रोकने की कारण व्यवसथा.
4. समुदायिक कर्षि का सफलतम प्रयोग.
5. जैविक कर्षि तकनीक जिसमे चौमासा के लिए खेत खाली रखा जाता था ताकि मिटटी अपनी उर्वरा शक्ति को बनाए रखे।
विगत 200साल से भी अधिक समय से लगातार घटते मानसूनी बारिस और सरकारी उपेक्षा से इस क्षेत्र के किसानों में क्षोभ दिखाई देता है। रामगढ़ एक किसान भवानी सिंह ने बताया भले ही यहां से इंदिरागांधी नहर यहां से सरकार ने निकाला है लेकिन हमें आज भी खेती के लिए वर्षा जल पर ही आश्रित रहना पडता है क्योंकि नहर में उतना पानी नहीं है कि यहॉं की जमीन के एक चौथाई हिस्से की सींचाई कर सकंे । हां पीने की पानी इससे भले हीे सुलभ हो गई है। यही काफी है। वहीं एक अन्य किसान लक्ष्मण सिंह ने बताया नहर तो साठ 1960 के बाद आई है पर खडीन तो शदियों पुरानी परंपरा है और हम खेती के लिए खडीनों पर ही निर्भर हैं। अब जैसे इस साल वर्षा न के बराबर हुई है तो हमारी खडीनें सूखी पडी हैं ऐसे मे खेती इस साल तो चौपट समझिए।
हालांकि बदलते समय के साथ कुछ किसानों ने आधुनिक तकनीक का सहारा लिया है कुछ किसानों ने खेत के एक हिस्से में सरकारी सहायता से तालाब जैसा पानी जमा करने की पक्की व्यवस्था की है जिसमें विभिन्न श्रोतों से पानी जमाकर पंपिग सेट के सहारे खेती करते हैं लेकिन ये तकनीक नहर के नजदीक ही देखने को मिलती हैं सुदूर क्षेत्र तो एकदम सूखा है। लेकिन सरकार यदि इन किसानों को पुराने खडीनों के मरम्मत में सहयोग दे तो यह क्षेत्र भी देश की तरक्की में चंद कदम साथ चल सके । बस जरूरत है तो एक सार्थक पहल की और किसानों के शिकायत दूर करने की जिसे उनके चेहरे पर साफ देखा जा सकता है।

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