Friday, July 15, 2011

गांधी टोपी से सधती गांधी शिक्षा की राह


सुषमा सिंह/ नरसिंगपुर (मध्य प्रदेश)

रोटी, कपड़े और मकान की तरह ही आज शिक्षा व्यक्ति की मूल जरुरत बन गई है। शिक्षा की परंपरा हमारे देश में प्राचीन काल से ही चली आ रही है। नालंदा जैसे गुरूकुल की परंपरा भी भारत में ही रही। लेकिन आज बदलती दुनिया के साथ शिक्षा में क्या बदलाव आया है? सरकारी और गैर सरकारी तौर पर खुलते स्कूलों में शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है और अभिभावकों की परेशानी बढ़ती जा रही है। शहरों से लेकर गांव तक विभिन्न प्रकार की समस्या शिक्षा के क्षेत्र में आ रही है। कभी दाखिले को लेकर तो कभी पढ़ाई के खराब स्तर को लेकर।

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अंग्रजों के समय से चला आ रहा प्रदेश का एकमात्र अनोखा विद्यालय सिंहपुर में स्थित है। इस विद्यालय की स्थापना काल 1868 से ही बच्चे स्कूल गांधी टोपी लगाकर जाते हैं। विगत 143 साल से यह परंपरा चली आ रही है और आज भी कायम है। इस स्कूल का नाम शासकीय उत्तर बुनियादी शाला है, जो गांधी टोपीवाले स्कूल के नाम से प्रख्यात है। स्कूल की स्थपना के बाद से ही पढ़ाई करने वाले छात्रों को टोपी पहन कर आना अनिवार्य किया गया था। टोपी लगाना कभी इनकी मजबूरी नहीं रहीं। यहां सिंहपुर के अलावा आस-पास के दर्जनों गांव की तीन पीढ़ियों तक ने अध्ययन किया है। अब तो कई बच्चे ऐसे हैं जो अपने पिता, दादा और परदादा के पढ़ने वाले इस स्कूल में अध्यनरत है। प्राथमिक माध्यमिक स्तर तक की कक्षा वाले इस स्कूल में लगभग 198 छात्र व 08 शिक्षक है जबकि 2004 में 350 के करीब छात्र और 13 शिक्षक थे। कुछ शिक्षक इसी विद्यालय में पढ़े और अब नई पीढ़ी को सही शिक्षित कर रहे हैं। इस स्कूल की खासियत यह है कि 21.7.1869 से लेकर आज तक के पूरे रिकार्ड को भी संजो कर रखा गया है।

शैक्षणिक गुणवत्ता के मामले में भी इस विद्यालय पीछे नहीं रहा। यहां अध्ययन करने वालों छात्रों ने शिक्षा, चिकित्सा, प्रबंधन, कंप्यूटर इत्यादि के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए हैं। यही से पढ़े शिवकुमार महाजन इंग्लैंड में चिकित्सक है, तो विश्वम्भर दलाल सोनी कोल डिपो में उंचे ओहदे पर कार्यरत है। इनके अलावा भी अन्य छात्र आज इस सरकारी स्कूल का नाम ऊँचा कर रहे हैं। यह एक ऐसा विद्यालय भी है, जहां के अपने कर्तव्यों व दायित्वों के कारण समय-समय पर राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित हुए हैं। शेख नियाज मोहम्मद को सन् 1963 में राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के द्वारा पुरस्कृत किया गया। सन् 91-92 में ही देवलाल बुनकर व 95-96 में चौधरी नरेन्द्र कुमार शर्मा भी राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हुए। बच्चों और उनके अभिभावकों को लगता है कि टोपी पहनने से बच्चों में अनुशासन की भावना आती है। वह ऐसा महसूस करते हैं कि टोपी पहनने के बाद विद्यार्थी की रुचि पढ़ाई-लिखाई की ओर मुड़ जाती है। राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त सेवानिवृत शिक्षक महेशचन्द्र शर्मा अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं कि उन्हें याद है जब सन् 1948 में महात्मा गांधी के वर्धा आश्रम की शुरूआत हुई थी और बुनियादी शालाओं में सूत कातना, गलीचा बनना शुरू हुआ था। तब उन्होंने इस विद्यालय में टोपी पहनने की परंपरा को और सुदृढ़ बनाया। वह एक संस्मरण सुनाते हुए कहते हैं कि सन् 1968-69 me शिक्षा विभाग के एक अधिकारी ने एम.डी. चौबे इस बात पर अड़ गए कि उनका बालक देवेन्द्र टोपी पहनकर स्कूल नहीं जाएगा, तब उन्होंने उसके पिता से अनुरोध किया कि आप बालक देवेन्द्र को कल से स्कूल न भेंजे। यदि आप विद्यालय की परंपराओं का पालन नहीं करेंगे, तो छात्र के लिए स्कूल में जगह नहीं है।

इसी स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापक लेख राम दूबे का कहना है कि बुनियादी शाला गांधीवादी सिद्धांत पर आधारित है। पहले यहां गांधीवादी नीतियां थी। लकिन अब सरकारी नीतियां लागू हो गई है। गार्डनिंग, दरी-गलीचे, चाक आदि बनाने के लिए पहले पैकेज भी मिला करते रहें। अब सारी सुविधाएं बंद कर दी गई है। 2-3 एकड़ के खेतों में काम किया करते थे। लखनादउ, अमरबाड़ा में भी इस प्रकार की बुनियादी शालाएं बनीं। वह अब नाम के लिए ही बची है, टोपी का तो वहां कुछ लेना देना है नहीं और कुछ भी नहीं बचा है। सिंहपुर बुनियादी शाला में टीचर भी कम है। 5 प्राइमरी टीचर और 3 मिडिल स्कूल में हैं।

मिडिल स्कूल तक की इस शाला के हेड मास्टर आई.पी. सोनी है जो नवम्बर में सेवा निवृत भी हो जाएगे। उनका कहना है कि यहां की इमारते भी अग्रेंजो द्वारा ही बनवाई गई है। उन्होंने 1955 से 64 तक इसी स्कूल में पढ़ाई की है। वह भी टोपी लगाकर स्कूल जाते रहे। उनके रिकार्ड के अनुसार पूरे स्कूल में मात्र 2 बच्चें सामान्य से और बाकि सभी पिछड़ी जाति के हैं। यहां पहले से बच्चे कम हुए है, इसका कारण यही है कि हर 1 किलोमीटर पर प्राइमरी और हर तीन किलोमीटर पर मिडिल स्कूल पर खोला जा रहा है। कंप्यूटर के लिए टेक्निकल टीचर नहीं है। 6 कंप्यूटर स्कूल में पड़े खराब हो रहे है। उसमें सरकारी तौर पर रेड हैट इन्सटॉल किया गया। जो किसी के पल्ले नहीं पड़ता। वहां के अन्य शिक्षकों को इसके बारे में तनिक भी जानकारी नहीं है। जिसे सरकारी तौर पर प्रशिक्षित किया गया। उनका तबादला कर दिया गया। मध्यान भोजन से भी कोई खास लाभ नहीं है। उनके अभिभावक सहयोग नहीं करते। ऐसी स्थिति में एबीएल स्कीम का आना कितना सार्थक हो सकता है। जरूरी यह नहीं है कि बस्ता लाए या न लाए। मूल बात यह होनी चाहिए कि पढ़ाई का स्तर क्या हो, बच्चा वहां से बाहर निकल कर कितना कामयाब होता है। प्रोत्साहन के तौर स्कीम चलाने से ज्यादा आवश्यक उन्हें सही रूप में लागू करना है। बच्चे अब अपने समय का सदुपयोग नहीं कर पाते। हर साल ट्रेनिंग में पढ़ाने की पद्धति बदलते रहना कारगर नहीं हो रहा है। टोपी के बारे में बताते हुए कहते हैं कि पंजाब में पगड़ी और गुजरात-राजस्थान में साफा जैसे ही बुनियादी शाला की टोपी का महत्व है। आई.पी. सोनी ने सरकारी शाला की खराब हालत को बया करते हुए कहा कि शिक्षा का स्तर उठाना है तो पुरानी शिक्षा पद्धति को साथ लेकर काम करना होगा।

Tuesday, July 12, 2011

Childhood Cast in Stones


Akshaya Rout/Kalinga Nagar (Orissa)

“The writing on the wall is crystal clear. These children will continue to

be victims of this booming quarry sector, unless urgent measures are taken

to wean them away,” laments human rights activist Manoj Satpathy.

For them, the bliss and joys of childhood is a distant dream. Their future lies buried under debris of institutional structure touted by the government but claimed by wretched poverty, social indifference and executive complicity. Scores of children living in the villages on either side of the Paradirp-Daitary national highway are the tender hands quarrying stones.

Deprived of innocence, about 1200 children are slogging it out in about 34 quarries in Orissa’s Jajpur district and its nearby areas, digging stones holding heavy shovels and axes with their nimble fingers. Small children toiling in many quarries are a conspicuous feature in many quarries along the Daitary-Paradip national highway.

For their parents, these children have turned out money-making assets but in the eyes of the outside world they are child labourers who are being exploited. The conflict between poverty of parents and illegality in employing these children is yet to be addressed with right earnest by the authorities.

“According to conservative estimates, more than 1200 children between 10 to 16 years are working in the open quarries from which laterite stones and stone-chips are exploited. They earn from Rs 80 to Rs 100 for eight or more hours of work. Denying the joys of playing and advantages of studying, these children grow up with several respiratory problems working under unhealthy conditions,” informs Manoj Satpathy, a human rights activist.

The quarry-based industries are flourishing in this part of the state due to heavy demand of stone and stone-chips by construction units and the public for construction or roads, bridges and houses. The ongoing national highway widening works have also boosted the quarry business.

“But the writing on the wall is crystal clear- these children will continue to be victims of this booming quarry sector, unless urgent measures are taken to wean them away,” laments Mr Satpathy. The authorities in a clear nexus with quarry lease holders are not taking any action against them as a result they are exploiting child labourers in the quarry-works, said Satpathy.

“An effort was made two years back by the district administration to liberate the children from the quarry works by attracting them into vocational training schools and formal education programme. It has now started paying off as one spots a number of children attending the schools in some areas. The district administration is also planning some innovative measures that will soon be implemented for ensuring better for these children,” informs Suresh Chandra Swain, district labour officer.

But the change has to be affected at the level of poor parents. Asks 53-year-old Dharani Behera of Balichandrapur village: “Will my child get a job after finishing school? There are so many unemployed educated youths in our village, whereas my three children are at least earning some

money.” Dharani has not stopped his children from pursuing their studies. They work in the quarries before going to school in the morning and again after returning home. In this highly labour-intensive quarry industries one major problem that is assuming serious dimensions is lack of protection for child workers from heavy dust pollution. Lack of safety measures in quarries has also hit the workers hard with respiratory problems and incidence of tuberculosis, says Mayadhar Nayak, a trade union leader of Sukinda. “Many quarry contractors, without obtaining any valid license, are undertaking quarrying activities in the local hillocks. But the authority is not taking any action against them as a result the government is losing lakh of rupees of revenue. What is quite shocking is that these quarry operators lure away parents to engage their children in stone crushing. Such an alarming trend must be stemmed immediately to save the innocent children,” observes Mr Nayak.



From rags to riches


Sopan Correspondent/Kochi

Born into the lap of impoverishment, Muhammed Ali Shihab, 31, can’t figure out which was the biggest test he had faced in his life. His life has been a fight against odds but they never conquered his will or resilience. Although he could not do much about some of the challenges he faced – personal tragedies like death of his father when he was only 11 years old or life in an orphanage as his mother could not bring him up due to impoverishment – he came out in flying colours in all professional tests he had attempted.

A resident of Edavannappara in Malappuram district, Shihab’s life story has all the ingredients of a Bollywood film. After the death of his father he was brought up in an orphanage. Not many had great expectations about him expect him. After completing his matriculation, he took up a peon’s job.

“He studied in an Arabic medium school and he was one of the best among the lot. From very early years, he started appearing for tests conducted by Public Service Commission and other agencies. His effort was to land in a job,” said a fried.

So far, he had cleared over 20 competitive tests and taken up different positions in the government right from that of a peon to railway ticket examiner. According to Shihab, he had a great desire to appear for Civil Services exam. He came to know about a Muslim non-governmental group that supported poor community members in UPSC exams. He managed to get in touch with Zakat Foundation of India and get assistance. But due to some pressing household problem, he had to discontinue the coaching for UPSC examination.

Shihab cleared the civil services exam in the third attempt. Since he studied in an Arabic medium school, he wrote his Mains in Malaylam. He had to seek the help of a translator for the interview as he was not proficient in English. But he is confident that he would soon overcome this hurdle too.

Shihab’s family is overjoyed. They hope that with this his difficulties will be over. The family which had seen the worst days, Shihab had to share a two-room house with one brother and two sisters, after the death of his father. “As a last option, mother took me and my two younger sisters to a Muslim-managed orphanage in Kozhikode district in 1991,” recalls Shihab.

Shihab would stay at the institute till he completed his higher secondary schooling and secured a teacher’s training certificate. He wanted to study further, but pressure to make a living meant he had to take up the first available job, which was of a last-grade peon in the Kerala Water Authority in 2004. The qualification was for the post was Class VII.

Later, he would get promoted to lower divisional clerk in a local body department. Shihab enrolled for BA (History) as a private student even as applied for several other jobs. In 2007, Shihab joined as an upper primary school teacher in Malappuram, where he continued till recently, when he took leave to prepare for the UPSC exam.

He came to know of the Civil Service coaching conducted by Delhi-based Zakat Foundation of India through a well-wisher. But again fate intervened, and Shihab had to drop out of the two-year course after five months because of domestic issues, including the treatment of his newborn baby.

Shihab did the rest of the preparation at home, helped by the faculty of a Civil Service training institute in Kerala. “I had to toil due to my poor knowledge of English and Malayalam. But I was determined to achieve my dream.”

Now that it is within his grasp, Shihab feels his life of struggles may turn out to be his strongest point. “I can better grasp grassroots-level concerns.”

Talks over talks


Sopan Correspondent / New Delhi


The civil society has been alleging that the government is trying to establish a weak system as the latter is not serious about fighting corruption. To a great extent the civil society is correct. The government has been trying sabotage all efforts put in place an effective institution to fight corruption. Sopan Step spoke to Kiran Bedi, a prominent member of the civil society. Excerpts:


Why there is so much rancour between the civil society and the government? What is your problem with the government? Are you asking for too much?

We have become a nation of insecure and timid people and we don’t trust others. The administration has become transactional in delivering services rather than transformative. There is a huge disconnect between the elected representatives and the electorate. The country is yearning for a comprehensive and effective system to prevent and punish corruption at all levels. There is a disconnect between the elected representatives and the electorate. But as soon as election time approaches, the same ‘seekers’ return to beg for fresh mandate, with folded hands before the mass of civil society, who they think ought not question them after having voted them in.

The allegation is that the civil society is spreading hatred against the political class. They say it is dangerous for democracy. Aren’t you undermining democracy by your ‘arm-twisting’ tactics?

The voters are changing today. They are better informed thanks to technology and media. People now want resolution to their long-piling issues that deny them their aspirations. They want to be engaged and heard. There prevails a huge trust deficit. People are helplessly witnessing their representatives ‘bulge’ in corruption, and yet get re-elected at their cost. There being no right to reject, the voter is compelled to choose between the devil and the deep sea.

The government has walked along with you on Lokpal Bill? There are a few areas differences. It’s legitimate to have differences of opinion in a democracy.

When the people agitated for an independent anti-corruption authority, under the leadership of Anna Hazare, it was due to shameless exposure of national plunder with disproportionate official response to arrest it. It laid bare the huge inadequacy of the existing enforcement machinery from all counts. But the key issue is that even after a score of meetings between Anna Hazare along with his legal eagles and five government ministers, two strongly divergent views have emerged. The government version is a hoax on the people of this country. It confuses and muddles the issues even further.

What are your differences with the new draft?

One of the main differences is regarding selection panel of the lokpal. On selection panel: the people’s bill comprised of two elected politicians, four serving judges and two independent constitutional authorities. The group of ministers’ proposal: six elected politicians — five from the ruling establishment — two serving judges and two officials. This is the first major difference. Hence, it is the ‘government in power’- dominated panel, against the balanced one proposed in people’s bill.

Another is on the search committee. This is a body to ensure countrywide search and co-option in a transparent manner of the best talent in the country. The civil society proposed a committee of 10 members, five from former senior judiciary, retired CAG and CEC, and five members to be co-opted from the civil society. This would have enabled an important role for eminent citizens of the country in dealing with corruption. The official version has no such provision. It is open for patronage.

The third serious major difference in the official bill is the provision of ‘may’ and ‘personal hearing’ after inquiry or investigation, at all stages for the accused. This will be open to litigations and delays.

The third major difference between the two drafts is that the official bill does not include bureaucracy below the joint secretary. This means the common man who deals with officers at the cutting edge for all his services is left to fend for himself. The provision for citizen’s charter in the official bill does not make a penal provision for delay in deliver of the service, which the civil society bill does. By this omission, the message being sent is that corruption is only corporate and bribes are ‘small change’ that the common man must learn to live with.

The other matter of serious concern is that the Lokpal is one more stand-alone body. It has neither been given the Central Vigilance Commission, nor has been transferred the anti-corruption wing of the CBI when it is doing the same work. Lokpal is specifically barred from any jurisdiction of any matter pending enquiry or investigation. Hence, all past acts of corruption, if under examination, are beyond the preview of Lokpal.

Is there a way forward?

If this kind of lokpal comes about, it will be one more wasted spoke in the creaking wheel of law enforcement, which will only add to the prevailing weaknesses. Instead of strengthening the anti-corruption machinery, it will further slow it down.

No doubt corruption is an issue, which has caught the public imagination at large and the undercurrent against the menace got expression through non-governmental and non-political agitations. The two prominent among them are one led by noted Gandhian Anna Hazare, who talked about enacting a robust anti-corruption law in the form of “Lokpal” and the other by Yoga Guru Ramdev, who talked about bringing back ill-gotten money of Indians stashed aboard.

Given the general apathy towards the political class in the country, both the agitations in the first place received popular support that rendered the government of the day to go on back foot with a perceptible unease. The UPA Government agreed to form a joint panel (representatives of Anna Hazare and the government) to work on a strong Lokpal draft Bill and set a deadline of June 30 to complete the task. All these followed a six days fast undertaken by Anna Hazare, which began on April 4 this year.

Several meetings of the Joint Drafting Committee, which was chaired by finance minister Pranab Mukherjee and co-chaired by noted lawyer Shanti Bhushan took place and the last meeting was held on June 22, where the two sides agreed to disagree on the provisions of the proposed anti-graft legislation.

The major bone of contention between the two sides in the JDC was inclusion of Prime Minister, higher judiciary and conduct of Parliamentarians on the floor of the Houses of the Parliament. Even differences cropped up over the basic structure, composition and powers of the proposed Lokpal. This led the government representatives to announcing that from here “we are taking the two versions of the Bill and now it would be up to the Union cabinet to decide on”.

Meanwhile contradictory comments from different quarters came with one set supporting the propositions of the Team-Anna Hazare, but another spoke in the language, which proved to be music to the ears of the government representatives and so once HRD minister, who also happened to be a member of the JDC, claimed: “There is no unanimity even in the civil society over various provisions, which non-official members are pushing”.
Moreover, the argument to exclude designated functionaries from the purview of the Lokpal needs to be examined against the fundamental tenet of equality and good governance. Can a head of State/judiciary/Parliament dispense justice, and be seen to be just, if he or she is actually pegged above justice? Should they not have to experience the same governance issues that their foot-soldiers are subjected to? Conversely, can they perform their exalted role with pending corruption allegations?
When there is an orchestrated call for the person to resign or to render him incompetent for high office, a corruption complaint becomes a political weapon. It fulfils the objective of the complainant. Not at least until the charges are framed, and formal criminal/departmental prosecution is launched, should a person be considered unfit for the office that he is competent to hold. Then, a Prime Minister/Chief Justice of India/Speaker would not become a lame duck. Unfortunately, in our country, political expediency and double standards have prevented healthy conventions from being established.
Many believe that ideally, civil society should have sought for the Lokpal to be an oversight body, to oversee the State's instruments for tackling corruption. An overarching citizen's watchdog, comprising eminent citizens, distinct from the investigative mechanism of the State, would better safeguard society's interests. It could call for records of investigations done by the vigilance agencies, hold discussions with citizenry and then ensure that no wrongdoer was let off lightly.

However, since the Lokpal, as now proposed, replaces the existing vigilance mechanism, it merits analysing the current shortcomings.
However, the other view is that he entire state apparatus be put under the Lokpal from Prime Minister to peon in the government and a multi-member ombudsman should be given powers of receiving complaints, enquiry and prosecution. This the government representatives in the JDC claimed would turn into creating a parallel government out side government, which affects very functioning of the state.

Countering the argument Anna Hazare said, “If we have independent Judiciary and Election Commission then it does not mean that they run a parallel government.” He charged that the government is not serious about fighting corruption and vowed to re-launch his agitation from August 16, the deadline which had fixed at the time of breaking his fast at Jantar mantar. “If the Parliament does not pass the Lokpal Bill before August 15, the Independence Day, I will once again come and fast for the legislation,” he had said.

In the meantime government has decided to expand the process of consultation and has convened a meeting the political parties to discuss the two drafts of the Bill with them to arrive at a consensus. The government has however announced that it will bring a robust Lokpal Bill in the coming monsoon session of the Parliament.

Almost about a month after Yoga Guru Baba Ramdev organized a massive campaign to force the government to bring back ill-gotten money of Indians stashed abroad. His fast-unto-death was scheduled to begin on June 5. He arrived in the national Capital on June 1. It was a rare spectacle to see four senior ministers arriving at the Delhi airport to receive the yoga guru. The government engaged Ramdev from the day one at the airport itself. It followed several rounds of talks between Ramdev and the government, but failing which the yoga guru began his fast at Ramlila ground.

Even during the fast for the day back-channel negotiations continued and at one point of time it appeared that a truce was arrived at and the yoga guru was ready to break his fast. But there appeared lack of trust between the government negotiators and the yoga guru, which resulted in firstly a u-turn taken by Ramdev and the police crackdown on the peaceful protestors at the Ramlila Ground in the midnight on June 5 itself, making things very unsavoury.

The government was criticized by the all and sundry for police action, but in the process it appeared that Baba Ramdev lost his anti-corruption bite. Politics then followed, which has still been continuing, rendering the main issue of black money to take the backseat.

Now the big question still remains unanswered as to whether the country could get rid of the corrupt, corruptible and corruption? Questions still remain answered as to how black money stashed abroad be brought back to the country? Is it possible? Is government interested in bringing them back? Let us see if people of this country get answer of any of these questions.

Similarly, on Lokpal Bill too nothing is resolved. Same set of questions continue to haunt the public imagination, despite a month long exercise to draft a bill to fight corruption. Don’s we have law to deal with corruption? Are not we trying to create another monster to fight the existing monster of corruption? All these need to be answered as quickly as possible by the leaders of the country – both ruling and opposition -, otherwise a possible drift could set in to hurt the country more than the corruption.

This policy holds some water


Dr Nimisha / Chandigarh

In an attempt to preserve the scarce water resources of the state and prevent misuse, Haryana Government has belatedly formulated its draft State Water Policy.

The officials said that implementation of the policy would pave the way for long-term sustainability of water sector and better management.

Haryana does not have a source of surface water and has to depend upon inter-state allocation of water. Under the policy, special focus has been laid on equitable and judicious allocation of water, with emphasis on poor and disadvantaged people and conservation of precious water resources and its optimum utilization. The policy would also become operational action plan for the implementation of National Water Policy of 2002 for the state.

The new policy envisages creation of a Groundwater Authority for effective groundwater management with the association of all the stakeholders. Priority would be given to the monitoring of quality of groundwater. Exploitation of ground water resources would be so regulated as not to exceed the recharging possibilities, as also to ensure social equity, he added.

It is aimed at planning for water resources development on the concept of basin or sub-basin as a unit, treating surface and ground waters as unitary resource to meet the demands of various sectors and integrated planning of water resources sector with components, such as drainage, flood management, water conservation techniques, such as rainwater harvesting, artificial recharge and bio-drainage Top priorities, under the Policy, had been laid on drinking water, irrigation, power generation, environmental allocation, agro-industries, non-agricultural industries and other uses.

In the policy, priority would be to reduce the imbalance, optimize use, conservation and proper utilization of the resource. The development projects would be planned with a holistic approach at the basin or sub-basin level. The project plan would have integrated in itself all the aspects of the project area, such as- environmental sustainability, drinking water supply, social concerns, groundwater management, drainage development, flood protection or mitigation, drought management, other users.

watershed development and management would be enlarged through measures like soil conservation, catchment area treatment, preservation of forests, increasing the forest cover and check dams. A Central institutional arrangement would be set up for effective monitoring and improvements in this programme. Incentives for use of water-saving devices, such as sprinkler irrigation and drip irrigation would be provided in the structure of rates.

In addition, conservation of water would be promoted through actions, such as promotion of less water consuming crops and diversification of cropping pattern, conjunctive use of water, artificial recharge of groundwater, rainwater harvesting, small storage dams in lower Shivalik areas to store rainwater during rainy season. A number of departments of the state were involved in water conservation measures. In order to have better coordination for improvement, adjustment and monitoring of this activity, one department would be designated, which will work as nodal agency for monitoring and evaluation of this vital sector.

Quality of surface and ground water and health of water bodies would also be maintained in the new policy to allow growth of plants and wild life, besides creating and maintaining new water bodies.

The new policy would also focus on the vulnerability to drought and take appropriate steps. These include soil-moisture conservation, rainwater harvesting and artificial recharge. In drought years, the surface water as well as groundwater availability was bound to reduce. But in such years, limited over-exploitation of groundwater would be allowed, as it would be compensated in good years when groundwater recharge would be higher. Conjunctive use of surface and ground waters would enable reduction of water deficits in drought years. Long-term plan would be formulated to tackle the problems of water logging and salinity by proper drainage techniques and research. Conjunctive use of saline and fresh water would be promoted.

In order to make the water sector self-sustainable, water rates would be reviewed frequently to make the charges adequate to cover the cost of operation and maintenance of the system. The water rates would be such as to convey the scarcity of the resource and optimal use.

Friday, July 8, 2011

बचपन लौटाने की मुहीम


दिलीप दास / धनबाद (झारखण्ड)
हर चमकती वस्तु जैसे सोना नहीं होती, उसी प्रकार संसाधनों से परिपूर्ण क्षेत्र में सभी शिक्षित और संपन्न नहीं होते हैं| अब झारखण्ड को ही लीजिये खनिज संपदाओ से परिपूर्ण यह सूबा गरीबी और अशिक्षा से अपना पिचा नहीं छुड़ा पा रहा है| यहां महगा और प्रतिभा की कमी नहीं है तो अशिक्षित बच्चों व युवाओं की भी लम्बी कतार है|
सूबे से अशिक्षा को दूर करने के लिए भले ही सरकार बड़ी- बड़ी योजनाएं बना रही हो, लेकिन आज भी छोटे बड़े शहरों में सड़क पर घूमते ऐसे सैकड़ो बच्चे मिलेंगे जो यह भी नहीं जानते की पढ़ाई किसे कहते है|
वैसे कुछ छोटे-छोटे प्रयासों से इस दिशा में कुछ ठोस पहल भी शुरू हुई है| राजधानी रांची में ऐसे सड़क छाप बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा स्वं सरकार ने लिया है| सर्वशिक्षा अभियान के तहत यहां छह उत्प्रेरक केंद्र खोले गए हैं जिनमें लगभग 400 बच्चे शिक्षा पा रहे हैं| इसी प्रकार का एक केंद्र गुमला में भी चल रहा है| यहां भी लगभग 100 बच्चे पढ़ते हैं| धनबाद में भी एक एनजीओ द्वारा रेलवे स्टेशन क्षेत्र के बच्चों को शिक्षित किया जा रहा है| अगर सभी जिलों में ऐसे प्रयास हुए तो वह दिन दूर नहीं जब राज्य में कोई बच्चा शिक्षा से वंचित रह पाएगा|
देश की कोयला राजधानी धनबाद का रेलवे स्टेशन वैसे कुछ चुनिंदा स्टेसनों में शुमार है जहां दिन और रात का अंतर समझ में नहीं आता है| यहां दिन से अधिक ट्रेन रात में गुजरती है| स्टेशन के बहार दर्जनों चाय और नाश्ते की दूकान व होटल मोजूद है| इसके अलावा चुराए गए कोयले को विभिन्न ट्रेनों से बहार भेज दिया जता है| इस कारोबार में छोटे बच्चे आसानी से लग जाते हैं जो अनाथ है या जिनके माता-पिता उतने सामर्थ्यवान नहीं है की उनका भरण पोषण कर सकें| बचपन में ही जीवन यापन का बोझ इन पटर आ जाता है| ऐसे में पढ़ाई-लिखी क्या होती है ये भला क्या जानें| पढ़ने और खेलने की उम्र को ये होटलों में झूटे बर्तन धोने और कोयले से भरी बोरी को रेल में चढाने में गुज़ार देते हैं| इनके एवज में उन्हें जो रूपया मिलता है उससे मुश्किल से पेट भर पाते हैं| कुछ बच्चे ऐसे भी है जो शारीरिक रूप से थक जाने के बाद नशे की दवा लेकर ही सो पाते हैं| ऐसे बच्चों से पढ़ाई की बात करना और उसके लिए इन्हें तैयार करना आसान नहीं|
स्थानीय सामाजिक संस्थान सृष्टि जनमानस नवनिर्माण द्वारा धनबाद स्टेशन परिसर में ऐसे बच्चों के लिए चार वर्ष पूर्व सृजन स्रमोदय विद्यालय की नीव डाली गई| संचालको को प्रारंभ में तो विद्यालय तक लाने में काफी मसक्कत करनी पड़ी| लेकिन बाद में यह काम आसान हो गया| लगभग दो दर्जन बच्चे वर्तमान में नियमित आध्यापन को आते हैं और उतने ही प्राम्भिक शिक्षा लेने के बाद स्थानीय सरकारी विद्याकयो में जाने लगे हैं|
संस्था के सचिव अशोक कंठ बताते हैं कि एकल शिक्षा वाले इस अध्यन केंद्र का खर्च समाज के कुछ मानिंद लोगों के सहयोग से चलता है| पर्व त्योहारों पर प्रशासनिक अधिकारी इनके भीच आकर इनका उत्साह बढ़ाते हैं| स्टेशन परिसर में ही विद्यालय चलने से इन्हें अपना काम काज निबटा कर यहां आने में परेसानी नहीं होती है| अक्षर ज्ञान के साथ ही इन्हें अच्छे संस्कार भी मिलते हैं| विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे स्टेशन क्षेत्र की आपराधिक गतिविधियों से दूर रहते हैं और इनका मनोबल काफी बढ़ा है| बच्चों को यहां बेसिक शिक्षा देने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी विद्यालय में नामांकन करा दिया जाता है| शिक्षा के प्रति ललक बढ़ने के कारण ये स्कूल में भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं|
अगर, इस प्रकार के प्रयास देश के अन्य रेलवे स्टेसनों और बस पड़ावों के आस-पास किया जाये तो सड़क पर घुमने वाले ऐसे बच्चों को शिक्षित करना मुश्किल नहीं| धनबाद में राज्य सरकार के सर्वशिक्षा अभियान से जुड़े मदन बताते हैं कि जिलें में ऐसे 300 बच्चे चिन्हित किये गए हैं जो स्कूल नहीं जाते हैं| ऐसे बच्चों के लिए उत्प्रेरक केंद्र खोलने कि योजना है| स्थान कि तलाश हो रही है| शीघ्र ही अभियान के तहत ऐसे केंद्र खोले जाएंगे|

Wednesday, July 6, 2011

उद्योग की आंधी में आदिवासी



सुनील शर्मा
/जशपुर

आदिवासियों की जनसंख्या लगातार क्यों कम हो रही है, इसका सही-सही जवाब कोई नहीं देना चाहता.लेकिन आंकड़े बहुत साफ-साफ सारी कहानी कह जाते हैं. पिछले दस-बारह सालों में अलग-अलग तरह की औद्योगिक परियोजनाओं में छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में 14 लाख लोग विस्थापित हुये और इनमें आदिवासियों की संख्या 79 प्रतिशत है. दुखद ये है कि इनमें से 66 प्रतिशत का पुनर्वास सरकार ने आज तक नहीं किया. छत्तीसगढ़ का जशपुर ऐसे ही विस्थापन का प्रतीक बन रहा है. नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की मीडिया फेलोशीप के तहत आदिवासियों की स्थिति पर अध्ययन कर रहे पत्रकार सुनील शर्मा की रिपोर्ट

जशपुर में ईब नदी के किनारे बसे आदिवासी जानते हैं कि अबकी बार इनका सामना चारे की तलाश में भटकते मतवाले हाथियों से नहीं बल्कि औद्योगिक विकास की एक ऐसी अंधी बयार से है जो उन्हें, उनकी संस्कृति और उनका अस्तित्व भी चौपट कर सकता है. गुल्लु में बनने वाले हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट से बिजली कब पैदा होगी यह तो नहीं मालूम लेकिन आदिवासियों के जीवन में अभी से अंधेरा छाने लगा है

'' ऊपर गुल्लु, मतलुंगा, अलोरी डूबेगा तो क्या हम बचेंगे साहब, हम भी डूबेंगे और खेती-बाड़ी की जमीन भी. हमें तो मुआवजा तो दूर नोटिस देना भी जरूरी नहीं समझा गया, हमारी जमीन ली भी जा रही है और कहा भी नहीं जा रहा है कि तुम लोगों की जमीन ले रहे हैं, जैसे यह कोई निर्जन जगह हो, जहां कोई घर नहीं हो, कोई आदमी नहीं हो.

छत्तीसगढ़ हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्राइवेट लिमिटेड इलाके में बांध बना रही है और कंपनी का दावा है कि इससे केवल 4 गांव प्रभावित होंगे. लेकिन इस बेशर्म झूठ की हकीकत ये है कि कंपनी जो बांध बना रही है, उसमें बांध प्रवाह के दोनों छोर के चार गांवों को तो डूब का इलाका मान रही है और इन गांवों के कुल 38 परिवारों को मुआवजा भी दे रही है लेकिन इन चार गांवों के बीच के गांव, जो अनिवार्य रुप से डूबेंगे, उन गांव के लोगों को मुआवजा कौन कहे, कंपनी ने आज तक नोटिस तक नहीं दी है. गुल्लु, मतलुंगा और अलोरी के आदिवासी अपनी जमीन किसी भी कीमत पर नहीं देना चाहते. उनका कहना है कि वे यहां से कहीं नहीं जायेंगे, भले ही ईब नदी उन्हें डूबा ही क्यों न दे.

जशुपरनगर से सन्ना रोड पर बाई ओर दुर्गम इलाके में ईब नदी के किनारे बसे ये गांव मनोरा तहसील में आते हैं. इनमें ज्यादातर उरांव जनजाति के लोग रहते हैं, जबकि कुछ कोरवा मांझी परिवार भी इन गांवों में कई पीढिय़ों से रहते आ रहे हैं. इस पूरे इलाके में आदिवासी सघनता से बसे हुए है. जिले में मनोरा ही एकमात्र ऐसी तहसील है, जहाँ अन्य तहसीलों की अपेक्षा सबसे अधिक 79.60 प्रतिशत आदिवासी रहते हैं.

इलाके में रहने वाले इन आदिवासियों के लिये इलाके का जंगल ही इनकी अपनी दुनिया है. जंगल पर इनकी निर्भरता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि नमक, साबून और तेल के अलावा किसी भी खाद्य सामग्री के लिये इन्हें बाजार का मुंह नहीं देखना पड़ता. गांव के एक बुजुर्ग अपनी भाषा में बताते हैं- हमारी उत्पत्ति और पालन में दो ही तत्वों का महत्व है, पहला प्रकृति और दूसरा पितर.

गुल्लु में प्रस्तावित 24 मेगावाट क्षमता के हाइड्रोइलेक्टिक पावर प्लांट के मूर्त रूप लेने से गुल्लु से लेकर सन्ना तक करीब 30 किमी नदी के किनारे बसे गांव और जमीन हमेशा के लिये डूब जायेंगे. ईब के पानी में आदिवासियों के घरों के साथ ही उनकी खेती-बाड़ी की जमीन और उनकी संस्कृति भी जलमग्न हो जायेगी. नदी के दूसरी ओर का बादलखोल अभयारण भी इस डूब से प्रभावित होगा. हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट के लिये वैसे तो चार गांव की जमीन लेने की बात कहीं जा रही है. पर वास्तव में इसके लिये तकरीबन 381 वर्ग किमी जमीन अधिग्रहित होगी. इसमें 3.299 हेक्टेयर शासकीय, 24.867 हेक्टेयर निजी और 5.105 हेक्टेयर वन भूमि शामिल है. 131 करोड़ की लागत वाले इस पावर प्लांट के बनने से इस इलाके के 22 गांवों में रहने वाले 1476 परिवारों के 9471 आदिवासी सीधे तौर पर प्रभावित होंगे. संरक्षित वन के भीतर रहने वाले दुर्लभ जीव-जंतु बिजली बनाने के इस उपक्रम की भेंट चढ़ेंगे वह अलग.

आदिवासियों के लिये संघर्ष कर रही आदिवासी महिला महासंघ की ममता कुजूर बताती हैं- '' ग्राम सभा में 82 ग्रामीणों को उपस्थित होना बताया गया है, जबकि इनकी संख्या आधी भी नहीं थी. अधिकांश हस्ताक्षर जाली है, जिन्हें पढऩा-लिखना नहीं आता उनका भी हस्ताक्षर रजिस्टर में है. कुछ ग्रामीणों के जबरन हस्ताक्षर भी लिये गये. ग्रामसभा में अधिकारियों ने अपनी मर्जी चलाई और ग्रामीणों को मुआवजे का लालच देने के साथ ही जमीन नहीं देने पर शासकीय योजनाओं का लाभ नहीं देने की बात कहकर उन्हें धमकाया भी. अधिकारियों की बात सुनकर ग्रामीण डर गये और अधिकारियों ने हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट के लिये ग्रामीणों की सहमति होने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. '' ऐसा नहीं है कि आदिवासियों ने अपनी जमीन बचाने के लिये कुछ नहीं किया, वे निरंतर संघर्ष करते रहे हैं. जशपुरनगर आने से डरने वाले आदिवासियों ने राजधानी रायपुर जाकर भी अपना विरोध जताया. सामाजिक कार्यकर्ता और ममता की सहयोगी मालती तिर्की बताती है कि बीते तीन-चार सालों में आदिवासियों ने अपनी जमीन बचाने के लिये कड़ा संघर्ष किया है. ज्ञापन,शिकायत,धरना-प्रदर्शन, रैली इतने हुये कि इन्हें गिनना मुश्किल है.

मूल निवासी मुक्ति मोर्चा के चीफ को-आर्डिनेटर डा. आस्कर एस.तिर्की विस्थापन के विरोध में लगातार आदिवासियों को संगठित करने का कार्य कर रहे हैं. वे कहते हैं कि '' पूरे जशपुर में आदिवासी अपनी जमीन बचाने के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं तो कंपनी के अधिकारी, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी बार-बार उनके पास जाकर जमीन देने दबाव डाल रहे हैं. सीधी सी बात लोगों की समझ में क्यों नहीं आती कि आदिवासियों का जीवन जल,जंगल और जमीन के बिना मुश्किल है. उनका विस्थापन उचित नहीं है. ये सामुदायिक जीवन जीते हैं, आदिवासियों की संस्कृति वहीं फल-फूल सकती है जहां वे मूलत: निवास करते हैं.''

आदिवासियों को इस लड़ाई में आर्थिक समस्याओं का सामना भी करना पड़ रहा है. जंगल पर निर्भर उनकी अर्थव्यवस्था उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देती. ग्रामीण विकास केंद्र की सिस्टर सेवती पन्ना पिछले दस सालों से जशपुर में मानव व्यापार, आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ आवाज उठा रही है. वह कहती है- '' विकल्प शब्द मन में आशा जगाता है पर जिनके पास विकल्प नहीं है वे क्या करें ? 70 वर्षीय दुबाराम अपने जीर्ण हो चुके शरीर को एकबारगी देखता है, फिर कहता है- '' जमीन नईये देब हमें, देबे नई करई, काहे देब. कई पीढ़ी बीत गेला, कईसे देब, पुरखा मनके धरन जमीन, छुआ मन ल छोडक़े कहां जाब, हमें देबे नई करई.''

लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि जिन आदिवासियों के विकास नाम पर छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनाया गया, उस राज्य में विकास का यह कौन सा रूप है?

खतरनाक होते हैं सोते हुए लोग

- अविनाश वाचस्‍पति

बाबा रामदेव की अनशन वाली सभा पर रामलीला मैदान में रात को पुलिस ने खूब सारी लाठियां बरसाईं। पुलिस जब लाठियां बरसाती हैं तो बेदर्दी से बरसाती है। बेरहमी से पब्लिक का खून बहाती है। खून बह रहा होता है और पुलिस की लाठियां चार्ज हो रही होती हैं। ऐसा सब कहते हैं जबकि लाठियां कोई मोबाइल फोन नहीं हैं जिनमें बैटरी लगी हुई होती हो और उन्‍हें चार्ज करना जरूरी हो। इसलिए पहले सिरे से ही इस आरोप को हम पुलिसवाले नकारते हैं कि लाठियों को किसी प्रकार भी चार्ज किया गया था। जबकि लाठियों से पिटाई करने से पहले लाठियों को तेल पिलाया जाता रहा है। हमने तो उन्‍हें तेल की छोडि़ए, दूध पानी तक भी नहीं पिलाया था। जिन लाठियों ने कुछ पिया ही नहीं , वे भला कैसे चार्ज हो सकती थीं। वैसे अगर आप बाबा रामदेव की अनशन सभा को तितर-बितर करने के लिए लाठियां मारने को चार्ज करना कह रहे हैं फिर तो मोबाइल फोन को भी मार मार कर चार्ज किया जा सकता होगा और ऐसा करने का क्‍या हश्र हो सकता है, आप एक बार मोबाइल को कहीं पर मार कर खुद ही चार्ज करके देख लीजिए। जब मोबाइल फोन ही चार्ज नहीं हो रहे हैं मारने से तो भला लाठियां कैसे चार्ज हो सकती हैं। उसी प्रकार जिस प्रकार पत्‍थर मारे जाने पर पत्‍थर चार्ज करना नहीं कहा जाता है। जिन चीजों को चार्जिंग की जरूरत पड़ती है, उसके बारे में तो सारी दुनिया जानती है। दिमाग जरूर चार्ज करना पड़ता है। उसको भी अगर दीवार में या पत्‍थर पर दे मारें तो जो चार्जिंग बची हुई होगी वो भी डिस्‍चार्ज हो जाएगी। अगर दिमाग चार्ज नहीं किया जाता होता तो ऐसे नायाब तरीके भला पुलिस को कैसे सूझ सकते थे। जिसके कारिंदों के दिमाग अपने ठेठ गंवारपने के लिए मशहूर हैं।

जहां तक फोटो और वीडियो की बात है वो तो आजकल तकनीक इतनी सक्षम है कि जो नहीं हुआ उसे ऐसे और इतने सारे सबूतों के साथ पेश कर दिया जाता है कि ऑरीजनैलिटी भी शर्मा जाए। यही रामलीला की लीला देखने दिखाने के लिए किया जाता है। वैसे तो समाज में लीला करने के लिए सब लालायित रहते हैं। कितनी प्रकार की लीलाएं हम आप बचपन से देखते सुनते रहते हैं। कभी कृष्‍ण लीला, कंस लीला, राम लीला, रास लीला, रावण लीला इनमें अगर पुलिस लीला और जुड़ गई तो क्‍या आफत आ गई। आखिर एक और लोक कला में इजाफा हुआ है। कलाओं की बेहतरी और वृद्धि के लिए तो हम सब लोग और समाज वैसे ही प्रयत्‍न करते रहते हैं। हमने इसमें थोड़ा सा संशोधन कर दिया तो क्‍या बुरा कर दिया। इतना हो हल्‍ला लीलाओं के लिए मचाने की क्‍या जरूरत है कि सब मचान बांधकर पुलिस के विरोध में तैनात हो गए हैं। जब आपके साथ कुछ होता है तब भी तो आप पुलिस की शरण मे ही आते हो, अगर हमने उस दिन खुदही आपको अपनी शरण में लेना चाहा और आप हमें देखकर ही डरकर त्राहि त्राहि करने लगे।

जहां तक चैनलों की बात है तो वे तो सब कुछ सनसनीखेज बनाकर परोसने के लिए सदा तैयार रहते हैं। तो यह सब करामात अगर मीडिया ने कर ही दी तो क्‍या हुआ, आप इतने बेचैन क्‍यों हो रहे हैं।

फिर लीला ही तो की है बाबा को लील तो नहीं लिया है हमने। जबकि बाबा खुद ही भ्रष्‍टाचार को लीलने के लिए नौ दिन से खाना पीना छोड़ रखे थे। कोशिश ही तो की थी पर लील तो एकाध को ही पाए हैं पर आप इस तरह चिल्‍लाए हैं कि मानो पुलिस ने लीला करके सारी कायनात ही लील ली हो।

लाठीचार्ज की बात बेमानी है। वैसे भी बाबा भड़का रहे थे। यह कैसे साबित हो सकता है कि सोते हुए लोग भड़क नहीं सकते। सोते हुए लोग तो सबसे अधिक खतरनाक होते हैं। जो बोलते नहीं, उनसे सबको भय लगता है। सोते हुए लोगों पर बल प्रयोग करके पुलिस ने अपनी उद्यमशीलता का परिचय दिया है। कहा भी गया है कि एक चुप्‍पी का मुकाबला करना आसान नहीं है तो हमने सोते हुए चुप लोगों का मुकाबला करके कितना बड़ा तीर मारा है, इसे आप कैसे महसूस कर पायेंगे। वैसे भी पुलिस जोखिम वाले कार्य ही करती है, उसे मालूम था कि इस कार्रवाई पर उसे जरूर जवाबदेही का सामना करना पड़ेगा लेकिन हम तनिक चिंतित नहीं हए हैं और हमने पूरा जोखिम लिया है। हमें पुरस्‍कार देना तो दूर की बात, सीधी नजरों से भी नहीं देख रहे हैं आप आम लोग।

बिहार में शहद की बढ़ी मिठास



संतोष सारंग\ मुजफ्फरपुर (बिहार)

बिहार का मुजफ्फरपुर जिला लीची के लिए प्रसिद्ध है। इसका लाभ मधुमक्खी पालन में खूब हो रहा है। यहां सबसे अधिक लीची मधु का ही उत्पादन होता है। लीची के मधु की मांग सर्वाधिक है। तब सरसों, जामून, करंज, सूर्यमुखी, मूग, सहजन के मधु का नंबर आता है। मधुमेह के रोगी जामून के मधु का प्रयोग अधिक करते हैं।
शहद उत्पादन के क्षेत्र में बिहार देश का अव्वल राज्य बन गया है। पंजाब को पीछे कर दिया। हालांकि निर्यात में आज भी पंजाब ही आगे है, लेकिन उत्पादन में उसे मात दे दिया। अब राज्य में शहद का सालाना कारोबार 210 करोड़ का हो गया है। दिग्गज कारोबारी और निर्यातक कंपनियां बिहार की ओर रुख करने लगी है। इनमें सबसे अधिक पंजाब की ही कंपनियां व व्यापारी शामिल हैं। कश्मीर अपीयरी प्रा. लि., अतीश नेचुरल प्रा. लि., लिटिल बी इम्पैक्ट, केजरीवाल इंटरप्राइजेज जैसी कंपनियां बिहार के मधुपालकों से मधु खरीद कर अच्छी कमाई कर रही हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो बिहार में मधु का उत्पादन 35 हजार टन पहुंच गया है। जबकि पंजाब 25 हजार टन उत्पादन के साथ दूसरे नंबर पर है। बिहार से करीब 90 फीसदी शहद का निर्यात होता है। बाकी मधु स्थानीय बाजारों में ही खप जाता है। अब तो दूध के कारोबार में सफलता का परचम लहराने वाला तिरहुत और पटना की दुग्ध उत्पादक सहकारी समितियां भी मधु की पैकेजिंग कर मार्केट उपलब्ध करा रही हैं। मुजफ्फरपुर की सुधा डेयरी ने कुछ दिन पहले प्रोसेसिंग प्लांट लगाया है। मधु के प्रोडक्ट सुधा के काउंटर पर मिल रहे हैं। डिमांड भी बढ़ रही है। बिहार से मधु कोलकाता, मुंबई भी जा रहा है। बिहारी मधु की मांग यूरोपियन और खाड़ी देशों में काफी है। सनद रहे कि यहां के मधु में वसा की मात्रा न के बराबर होती है। इसी वजह से विदेश के लोग स्लाइस ब्रेड में मक्खन की जगह शहद का इस्तेमाल करते हैं।
इधर, मधुमक्खी पालन के क्षेत्र में बिहार के लोगों की बढ़ रही रुचि और राज्य सरकार के उद्योग-धंधों के प्रति स्पष्ट नजरिये को देखते हुए कई उत्पादक कंपनियां यहां कारखाना लगाने में रुचि दिखा रही हैं। दरभंगा के दोनार औद्योगिक क्षेत्र में नैचुरल हनी (शहद) बनाने की फैक्ट्री ‘एसवीजे इंटरप्राइजेज प्रा. लि.’ नाम से लग चुकी हैं। कंपनी के चेयरमैन सुरेश झा कहते हैं कि मिथिलांचल का मधु दूसरे देशों में भी निर्यात किया जायेगा। उन्होंने कहा कि फैक्ट्री का वार्षीक उत्पादन क्षमता नौ सौ टन होगा। इससे न सिर्फ मधुपालकों को बल्कि लीची, सरसों और सूर्यमुखी की खेती करने वाले किसानों को भी बाजार मिलेगा।
निःसंदेह बिहार में मधु का उत्पादन बढ़ा है, लेकिन मधुमक्खी पालकों को उत्पाद का उचित कीमत नहीं मिल रहा है। पालक कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। नरौली, मुजफ्फरपुर के मधुमक्खी पालक गरीबनाथ भगत कहते हैं कि दो साल से घाटा हो रहा है। शहद का अच्छा रेट नहीं मिल रहा है। इस वर्ष 80 रुपये प्रति लीटर बिका। गत वर्ष इससे कम कीमत मिली। इनका कहना है कि प्रति लीटर 100 रुपये मिले तो पालकों को फायदा होगा। कुछ यही पीड़ा अन्य पालकों की भी है। वे कहते हैं कि बिक्री का तरीका गलत है। दलालों के माध्यम से बाहरी कारोबारी खरीद करते हैं। उत्पादक को कीमत कम मिलता है, जबकि बिचौलिये मालामाल होते हैं। इस कारण सही मधु इसकी मार्केटिंग व पैकेजिंग में लगी कंपनियों तक नहीं पहुंच पा रहा है। मिलावट हो रही है।
इतना ही नहीं। लीची, सरसों, मूंग का सीजन खत्म होने पर पालकों को मधुमक्खी को जीवित रखने और प्रोडक्शन बनाये रखने के लिए अन्य राज्यों की ओर बक्सा ले जाना पड़ता है। पालक बक्से झारखंड, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ ट्रक पर लाद कर ले जाते हैं। इस दौरान उन्हें ढेर सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। रास्ते में पुलिस को चुंगी देनी पड़ती है तो बागान मालिक और स्थानीय दबंगों का भी शोषण सहना पड़ता है। इन्हें संरक्षण देने वाला कोई नहीं है। पालक अपने बलबूते इस काम को ऊंचाई पर ले जा रहे हैं और बिहार को मधु के क्षेत्र में अव्वल बना रहे हैं।
पूंजी के अभाव में कई पालक मधुमक्खी पालन से मुंह भी मोड़ रहे हैं। मुजफ्फरपुर जिले के हरिहरपुर के पालक राजीव रंजन ने भी दो साल तक मधुमक्खी पालन किया। अंततः ऊबकर उसने धंधा बदल लिया है। अस्सी के दशक के शुरूआत में सरकार ने पालकों को सब्सिडी देना शुरू किया था, लेकिन 1994 में वह भी बंद हो गया। अल्पकालीन लोन भी बंद हो गया। हालांकि कुछ पालकों ने बताया कि उसे समेकित कृषि प्रणाली के अंतर्गत अनुदान मिला है, लेकिन अधिकांश पालक अनुदान व लोन से वंचित ही हैं। बिहार खादी ग्रामोद्योग आयोग समय-समय पर इच्छुक लोगों को मधुमक्खी पालन का प्रशिक्षण देता है।
मुजफ्फरपुर खादी ग्रामोद्योग संघ के मंत्री वीरेन्द्र चौधरी बताते हैं कि हमने मधु के कारोबार को स्थानीय स्तर पर बढ़ावा देने के लिए एक छोटा प्रोसेसिंग प्लांट केवीआईसी के स्फूर्ति प्रोग्राम के तहत यूएनडीपी की मदद से लगाया है। लेकिन पूंजी के अभाव हम पालकों से जितना चाहिए, उतना मधु नहीं खरीद पाते हैं। इनका कहना है कि हरेक बक्से का इंश्योरेंस होना चाहिए। लेकिन राज्य सरकार की कोई ऐसी योजना नहीं है जो बिहार के लगभग 15 हजार पालकों को इस काम को आगे बढ़ाने में मदद करे। सीतामढ़ी में भी एक छोटी यूनिट लगायी गयी है। इधर, मुजफ्फरपुर स्थित सुधा डेयरी ने भी एक बड़ा प्रोसेसिंग यूनिट लगाया है। इसका प्रोडक्शन क्षमता भी अधिक है। सुधा के मधु विभाग के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर फूल झा कहते हैं कि तिरहुत दुग्ध उत्पादक सहयोग सहकारी समिति ने यहां के पालकों को समय-समय पर प्रशिक्षण, उचित दिशा-निर्देश व बाजार दिया है। हमारी योजना मधु के बाजार को और विस्तार देने की है। हालांकि अभी तक बिहार में मधु की सिर्फ पैकेजिंग व प्रोसेसिंग कर बोतल बंद शहद ही बेची जा रही है। इसका बाइप्रोडक्ट बनाने के लिए कोई प्लांट नहीं है। जबकि शहद का उपयोग मेडीसिन, जूस, चॉकलेट, साबुन के निर्माण में है। यह अलग बात है कि उक्त प्रोडक्ट बनाने वाली बाहरी कंपनियां यहां से शहद खरीद रही हैं।
सनद रहे कि मुजफ्फरपुर का नरौली, मीनापुर, पटियासा, प. चंपारण का मेहसी, वैशाली का मिरजानगर, भगवानपुर व गौरौल, समस्तीपुर, भागलपुर, खगड़िया, मुंगेर मधुमक्खी पालकों का गढ़ है। पटियासा का लगभग 80 फीसदी परिवार इस काम में लगा है और उम्मीद से ज्यादा आर्थिक प्रगति कर रहा है। एक-एक पालकों के पास चार-पांच सौ से अधिक बक्से हैं। पालक शंकर प्रसाद के पास लगभग 700 बक्सा है। पटियासा की हनी गर्ल अनीता, मेहसी के जीतन कुमार, नरौली के अजय, बेला का मूसन मधुवाटिका, शिवराहा बोचहां के सत्यनारायण आजाद आदि प्रमुख नाम हैं, जो इस क्षेत्र्ा में नाम कमाया है। सिर्फ मुजफ्फरपुर में पांच हजार मधुमक्खी पालक हैं। मुजफ्फरपुर में पिछले दिनों मधुमक्खी पालन को संगठित रूप देने के लिए ‘तिरहुत मधु उत्पादन स्वावलंबी सहकारी परिसंघ’ की स्थापना की गयी है। इसके तहत 18 समितियों का गठन किया गया है। परिसंघ के अध्यक्ष शंकर प्रसाद बताते हैं कि परिसंघ समितियों का उद्देश्य मधु को बाजार उपलब्ध कराना, फिल्ड का मुआयना कर पालकों की समस्याओं का समाधान करना आदि है।
मधु के क्षेत्र में डंका बजाने वाले पालकों को सरकार की ओर से उचित माहौल, संरक्षण, आर्थिक सहायता व बाजार उपलब्ध कराने की जरूरत है। क्योंकि जिन पालकों ने अपने बूते राज्य का नाम रोशन किया है और अपने परिवार को आर्थिक समृद्धि दी है, उन्हें सहयोग मिले तो यह सेक्टर हजारों हाथों को रोजगार दे सकता है।