Tuesday, April 5, 2011

कार्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी का मिथक !



सुभाष गाताडे
मिल्टन फ्रीडमन का नाम नवक्लासिकीय अर्थशास्त्र के अग्रणियों में शुमार किया जाता है। अर्थव्यस्था में बाजार शक्तियों को खुली छूट देने की जिन नीतियों का इन दिनों बोलबाला है, उसके ‘जनकों’ में वह शुमार किए जाते हैं। पूंजीपतियों के इस लाडले विचारक के तमाम कदमों से हम असहमत हो सकते हैं, मगर एक मामले में उनकी साफगोई की दाद देनी पड़ेगी। अपने एक लम्बे आलेख में उन्होंने कार्पोट सामाजिक जिम्मेदारी के हिमायतियों का बहुत मजाक उड़ाया है, जो अरबों-खरबों कमाने वाली कंपनियों को अगाह करते रहते हैं कि उन्हें मुनाफे का हिस्सा अपने सामाजिक दायित्वों को निभाने के लिए देने चाहिए। वह साफ कहते हैं कि पूंजीपतियों की सामाजिक जिम्मेदारी है अधिकाधिक मुनाफा कमाना।
ऐसा नहीं होगा कि देश दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के नियंता बने कार्पोरेट मालिकान, जो अपने इस पथ प्रदर्शक के विचारों को सर आंखों पर लिए घूमते रहते हैं, वह उनके इस चर्चित आलेख से नावाकिफ होंगे। स्पष्ट है कि उनका यह मौन बेहद सूचक है, जो बताता है कि इस तारीके को अपनाने में उन्हें लाभ ही लाभ दिख रहा है। यह अकारण नहीं कि इन दिनों कार्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी की धूम है, जिसके लिए तमाम बड़े घराने अत्यधिक सक्रिय दिखते हैं। अमेरिका के अग्रणी पूंजीपति वारेन बुफेट और बिल गेट्स की भारत यात्रा के इस मौके पर उद्योगपतियों के अलग घरानों की तरफ से इस सिलसिले में किए जा रहे कदमों को रेखांकित किया जा रहा है। इनमें सबसे ताजा समाचार है जीएमआर ग्रुप की तरफ से दी गई 1,500 करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि का।
बताया गया कि एनर्जी, इन्फ्रास्त्रचर , हाइवे, एअरपोर्ट के निर्माण में तेजी से आगे बढ़े इस ग्रुप के संस्थापक जीएमराव द्वारा अपने निजी आय से प्रस्तुत धनराशि का प्रबन्धन किया गया है। प्रस्तुत धनराशि जीएमआर वरालक्ष्मी फाउण्डेशन जो जीएमआर ग्रुप की ही कार्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी शाखा है, उसे दी जाएगी और समूह जिन इलाकों में सक्रिय है उसके इर्दगिर्द के समुदायों के जीवन की गुणवत्ता को सुधारने की कोशिश करना। यह फाउण्डेशन सेक्सन 25 अर्थात् नॉट फॉर प्राफिट कंपनी है, जिसका स्वतंत्र स्टाफ है, जिसका संचालन जीएमआर ग्रुप के चेयरमैन के हाथों में ही है। यह फाउण्डेशन शिक्षा, स्वास्थ्य, आरोग्य, स्वच्छता, सशक्तिकरण, जीवनयापन एवं समुदाय विकास के क्षेत्रों में सक्रिय है।
निश्चित ही अपने ही समुह की ‘कार्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी’ शाखा के तौर पर सेक्सन 25 के अन्तर्गत अलग कंपनी पंजीकृत कराने वालों में जीएमआर ग्रुप अलग नहीं कहा जा सकता। मालूम हो कि बिल गेट्स और उनकी पत्नी मेलिण्डा ने ‘गिल एण्ड मेलण्डा गेट्स फाउण्डेशन’ बनाया है और चैरिटी के लिए ली जाने वाली धनराशि इसी फाउण्डेशन के कामों में लगाते हैं, वहीं हाल अधिकतर पूंजीपतियों का है। बिल गेट्स के साथ भारत यात्रा पर आए वारन बुफेट को देखे तो - जो दुनिया के अग्रणी व्यक्तिगत पूंजीपतियों में से हैं - उन्होंने भी अपनी धनराशि या तो बुफेट फाउण्डेशन में लगाई है या उसका अधिकतर हिस्सा बिल एण्ड मेलिण्डा फाउण्डेशन के लिए दिया है। बड़े-बड़े पूंजीपति घराने इसी नीति के तहत चलते हैं। चैरिटी के नाम पर दिया जाने वाला पैसा अपने ही फाउण्डेशन में लगा देते हैं, जो उन इलाकों में सक्रिय रहता है जहां पर कंपनी अपनी इकाई खोल रही है या जहां पर उसकी उपस्थिति से स्थानीय आबादी पर नकारात्मक असर अधिक पड़ने की संभावना रहती है। ‘वाकिंग विथ काम्रेडस’ शीर्षक अपने चर्चित लेख में अरूंधति रॉय ने छतीसगढ़ की अकूत खनिज संपदा एवं प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण के लिए बेताब बड़ी-बड़ी कंपनियों की कार्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी नीतियों की चर्चा करते हुए बताया था कि किस तरह स्थानीय आबादी के जीवन में तबाही के नए मंजर रचने वाली कंपनियों ने वहां अदद स्कूल खोले हैं या कहीं क्लिनिक चलाती है।
अगर हम इस शब्द का इतिहास देखे तो वह बहुत पुराना नहीं हैं। साठ के दशक के उतर्रर्ध और सत्तर के दशक के शुरू में, जब कई सारी बहुदेशीय कंपनियां वजूद में आई, तभी यह शब्द आम इस्तेमाल में आया। इस विचार के हिमायती कहते हैं कि एक दूरगामी परिप्रेक्ष्य से काम करने पर कार्पेरेशन अधिक मुनाफा कमाते हैं, जबकि आलोचकों के मुताबिक सीएसआर उद्योगों के आर्थिक भूमिका से ध्यान बांटता है। यह भी कहा जाता है कि यह महज एक शिगूफा है या ताकतवर बहुदेशीय कंपनियों की निगरानी के लिए सरकारों की भूमिका को अप्रत्यक्ष तरीके से हथिया लेना है।
यूं तो कार्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी पर अमल करने के तरीके अस्तित्व में है, एक तरीका है वंचित समुदायों में सक्रिय स्थानीय संगठनों को वित्तीय सहायता प्रदान करना, दूसरा तरीका है इस रणनीति को कंपनी की बिजनेस रणनीति का ही अविभाज्य अंग बनाना, तीसरा तरीका है साझे मुल्य का निर्माण अर्थात् ‘ क्रेअटिंग शेअर्ड वैल्यू’। वैसे जो एप्रोच/तरीका अब अधिकाधिक स्वीकृत हो चला है वह है समुदाय आधारित विकास का तरीका। इसके अंतर्गत कंपनियां स्थानीय समुदायों के साथ उनकी बेहतरी के लिए खुद काम करती है, जिसमें स्कूल चलाना, व्यस्कों को कुशल बनाने के लिए केन्द्र चलाना, समुदायों के साथ व्यापार का नेटवर्क बनाने की कोशिश करना, एडस/एचआईवी के लिए शिक्षा कार्यक्रम चलाना आदि।
अगर कंपनियों को देखे तो उन्हें इसमें कई फायदे नजर आते हैं। एक फायदा नए कर्मचारियों को भर्ती करने या उन्हें कंपनी के साथ जोड़े रखने में दिखता है। एक साधारण कर्मचारी के लिए वह कंपनी ज्यादा अधिक जुड़ने लायक लग सकती है कि जहां पर इस जिम्मेदारी के तहत काम हो रहा हो। भरे बाजार में जहां कई प्रतिद्वंदी मौजूद है, वहां कंपनियां अपने लिए अनोखी पहचान भी तलाशने की कोशिश करती है, सीएसआर की रणनीति कंपनी की छाप छोड़ने के लिए काफी मुफीद रहती है।
कंपनियों द्वारा अपनाई जानेवाली यह रणनीति किस तरह उनके अपारदर्शी कामों पर परदा डाले रखती है या किस तरह बुनियादी प्रश्नों से जनता का ध्यान बांटती है, यह आसानी से देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए एनडीटीवी की तरफ से विगत कुछ सालों से गांव में सोलर लैन्टर्न बांटने की योजना चल रही है। प्रचार कार्यक्रम में वह अपने दर्शकों का भी इस काम में सहयोग जुटाते हैं, जहां वह उन्हें बताते हैं कि अगर अपना सहयोग दे तो वह गांव का अंधेरा दूर कर सकते हैं। स्पष्ट है कि तमाम दर्शकों अपना आर्थिक सहायेग देते हैं। चंद गांव सोलर लैन्टर्न बांटने से यह बात दबी रह जाती है कि ग्रामीण इलाके अंधेरे में इसलिए है क्योंकि देश में बिजली का वितरण बेहद असमान है जो मुख्यतः शहरों या बड़े उद्योगों पर अधिक फोकस करता है।
हमारे अपने वक्त में सत्यम कंपनी रामालिंगा राजू द्वारा किया गया करोड़ो रुपये का गबन एक चर्चित मामला रहा है। सत्यम जैसी नामी कंपनी ने अपने खातों में हेरा फेरी की बात कर के साधारण निवेशकों के करोड़ो रुपये गबन कर लिए थे। सत्यत के मालिकानों को इस बात की चिंता नहीं थी कि उनके 53,000 मुलाजिम भले ही कल सड़क पर खदेड़ दिए जाए, लेकिन उनकी अपनी तिजोरी पर कैंची न लगे। उसी वक्त यह सवाल उठा था कि क्या रामालिंगा राजू जैसा एक अकेला शख्स इतने बड़े काण्ड को अंजाम दे सकता है, ताकि बाकी निदेशकों एवं कंपनी के संचालको को इस काम की हवा भी न लगे? कंपनियों की आडिट फर्मों को पता भी न चलें, निच्शित ही नहीं।
वैसे सत्यम की वेब साइट पर लम्बे समय तक कंपनी की उपलब्धी के तौर पर पश्चिमी जगत की तमाम कंपनियों या समूहों द्वारा मिले पुरस्कारों की सूची पेश की गई थी, जिसमें उसे कार्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी निभाने के लिए भी तमाम पुरस्कार मिलने का जिक्र था। रामालिंगा राजू की गिरफ्तारी के बाद भी उसे फक्र से यूं पेश किया जा रहा था गोया लोग इस बात के लिए माफ कर दे कि इतना अच्छा काम यदि किया है तो कुछ गलत काम की छुट मिल जाए।
कार्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के हिमायतियों को पहले यह पूछा जाना चाहिए कि वह जवाबदेह तो बने, अपने कारोबार में पारदर्शी बनें। सभी जानते हैं कि बड़ी बड़ी कंपनियों जीरो टैक्स कंपनी या होती हैं अर्थात् सरकार के तमाम फायदे हासिल करने के बावजूद वह एक रुपये सरकारों का कर के तौर पर अदा नहीं करती। इस काम को कंपनी के बलेंसशीट को मैनेज करके अंजाम दिया जाता है, जिसे तैयार करने के लिए बड़ी बड़ी चार्टर्ड अकाउन्टेंट फर्मे लगी रहती है।
अगर जीरो टैक्स देनेवाली ऐसी कोई कंपनी चंद स्कूल किसी आदिवासी इलाके में चला दे तो क्या फर्क पड़ता है? पी साईनाथ के एक चर्चित आलेख के मुताबिक गेटस, बुफेट एण्ड द आर्ट ऑफ गिविंग, द हिन्दू, मार्च 12, 2011 देष के इन बिलियनपतियों की आय में अगर हम 10 फीसदी मुनाफे की बाम करें जो अपने आप में बहुत कम है तो वह राशि देश की जनता की स्वास्थ्य, उच्च शिक्षा, ग्रामीण रोजगार योजना और हैण्डलूम बजट को सालों साल पूरा करती रह सकती है।

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