Friday, October 21, 2011

पहाडि़या के जीवन में हो रहा है बदलाव,आजिविका मिली घरमें


शैलेन्द्र सिन्हा
झारखंड की आदिम जनजाति पहाडिया को अब घर में रोजगार मिलने से उनकी माली हालात में सुधार हो रहा है।साहिबगंज जिले के तालझारी प्रखंड के चमडी गाँव की चिमरी पहाडिन,पति मंगला पहाडिया बताती हैं कि वह अपनी जमीन में सब्जी और धान की खेती करके जिंदगी की गाडी आसानी से चला रही है। वह किचन गार्डेन के द्वारा अपने दो एकड जमीन में हुए पैदावार को बेचकर लाभ कमा रही हैं।उनके जीवन में बदलाव आ रहा है,वह खुशीपूर्वक बताती हैं कि पहले महाजन से उधार लेना पडता था,अब स्थिति वैसी नहीं है।ग्राम प्रधान मंगु पहाडिया भी यह मानतें हैं कि यहां के लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो रहा है।मंडरो प्रखंड के खेरवा पंचायत के अंबा गाॅव की सूरजी पहाडिन पति सुरेन्द्र पहाडिया आज पशुपालन और मुर्गीपालन व्यवसाय के माध्यम से अपने चार बच्चों का परवरिश कर रही हैं।सूरजी ने बताया कि वह प्याज की खेती करके इस वर्ष अच्छी आमदनी कमाई है।सूरजी आज सफल किसान के रूप में आपने आसपास में जानी जा रही हैं।ग्राम प्रधान मैसा पहाडिया अपने गाॅव के लोगों की उन्नति से खुश हैं,वे बताते हैं कि पहले यह सोच पहाडिया में नहीं थी,वे महाजन के कर्जदार जीवन भर रहते थे,लेकिन अब वे बदल रहें हैं। वे अपनी आमदनी को बैंक में जमा भी करा रहें हैं। पहाडिया के जीवन जीने के तरिके में बदलाव हो रहा है।साहिबगंज जिले के मंडरो,बोरियो और तालझारी प्रखंड के 700 पहाडिया परिवार के 3300 लोग आज खेती कर रहें हैं।आज उनके बीच साक्षरता और स्वास्थय के प्रति जागरूकता बढी है।उनका सामाजिक और आर्थीक दशा में सुधार हो रहा है। आज वे एस एच जी के माध्यम से बचत करना जान गए हैं और बैंक से कर्ज लेकर खेती कर रहें हैं और बैंक के पैसे वापस भी कर रहें हैं। पहाडिया के जीवन में यह बदलाव पाॅच वर्ष पूर्व से हो रहा है,इन तीन प्रखंडों में सामाजिक, आर्थिक विकास के लिए ईफिकोर नामक संस्था ने पहाडिया के बीच क्षमता निर्माण का प्रयास किया और रोजगार की दिशा में उन्हें मोडा।मालटो समुदाय के बीच उनकी मालटो भाषा में उन्हें समझाने से ऐसा संभव हुआ है।आज सरकार की कई योजनाऐं इसलिए सफल नहीं हुई क्योंकि पहाडिया अपनी भाषा को छोडकर दुसरी भाषा समझ नहीं पाते हैं।शिक्षा का अलख भी पहाडिया के पचास नवयुवकों के प्रयास से संभव हुआ,जो कम पढे लिखे होने के बावजूद समाज के लिए कुछ करना चाहते थे,उन्हें संस्था ने उनकी भाषा में पुस्तके और अन्य सामग्री प्रदान की। अब गाँव में ग्राम विकास समिति का गठन हो गया है,गाॅव के विकास के लिए वे खुद बैठक कर निर्णय ले रहें हैं।पंचायत चुनाव में इसबार पहाडिया के लिए आरक्षित सीटो के कारण अधिक संख्या में वे निर्वाचित हुऐ हैं।उनमें जागरूकता बढी है और वे संतालों की तरह जीना चाहते हैं,संताल आज उनसे कई मामलों में आगे हैं।संताल परगना के चार जिले दुमका,पाकुड,साहिबगंज और गोड्डा जिले में पहाडिया पाये जाते हैं,जिनकी आबादी लगभग 35 हजार है।झारखंड में आठ आदिम जनजाति निवास करती हैं।पहाडिया तीन प्रकार के होते हैं-सांवरिया,माल और कुमारभाग।पहाडिया पहाड पर रहते हैं,आम लोगों की तरह उनका जीवन नहीं होता,वे पहाड में पाये जानेवाले कंदमुल खाकर जीवन जीते हैं,बीमार होने पर वे जडी-बुटी का प्रयोग करते हैं।पहाडिया पहाड की ढलान पर खेती करते हैं,वे बरबट्टी,बाजरा,अरहर और सुतली की खेती कर अपनी जीविका चलाते हैं। वे जंगलों से लकडी काटकर बेचते हैं,कई बार वे वन विभाग के द्वारा पकडे जाने पर जेल भी जाते है,आज भी उन्हें जमीन का पट्टा नहीं दिया गया है।पहाडिया का इतिहास है कि वे कभी राजा हुआ करते थे,अंग्रेजों से लडते हुए प्राण त्यागे थे।आज वे मलेरिया,बेंरन मलेरिया और घेंघ के शिकार हो रहें हैं,उनके गाॅव में पीने का साफ पानी तक नहीं है।प्रसिद्व चीनी यात्री ह्वेन सांग ने अपने यात्रा वर्णन में उनका जिक्र किया है,मेघास्थनिज ने उन्हें मालेर कहा। डा.सर जार्ज अब्राहम गिर्यसन ने अपनी पुस्तक लिंगुइसटीक सर्वे आफ इंडिया में इन्हें द्रविडों का वंशज बताया था।आज पहाडिया में गरीबी,अशिक्षा और रोजगार के अभाव से वे पलायन को मजबूर हैं,ऐसे में ईफिकोर के प्रयास की सराहना की जानी चाहिए।ईफिकोर के प्रोजेक्ट कोआर्डिनेटर रैफन बाखला बताते हैं कि उनका विश्वास जीतने में समय लगा,लेकिन वे अब मुख्यधारा में आना चाहते हैं,उनके जीवन में अदलाव आ रहा है,जो शुभ संकेत है। वे बचत करना सीख गये हें,उनके बच्चों में बदलाव आ रहा है।


Thursday, October 20, 2011

हरियाली से खुशहाली की अनूठी पहल


बाबा मायाराम
इन दिनों मध्यप्रदेश के बैतूल और हरदा जिले में भूख, कुपोषण और पर्यावरण सुधार के लिए हरियाली-खुशहाली की अनूठी मुहिम चलाई जा रही है। और इसे वनविभाग नहीं, आदिवासी चला रहे हैं। इसके तहत् खेत, बाड़ी, और जंगल की खाली जमीन पर फलदार और छायादार वृक्ष लगाए जा रहे हैं जिससे कुपोषण से निजात मिल सके, आमदनी बढ सके और रूखे-सूखे जंगल को फिर से हरा-भरा बनाया जा सके। पर्यावरण सुधारा जा सके और जैव विविधता का सवर्धन और संरक्षण किया जा सके।

बैतूल जिले के चिचौली और शाहपुर विकासखंड में आदिवासी इस मुहिम में जुटे हुए हैं। यह मुहिम 24 जुलाई से ’शुरू हुई है, जो 30 सितंबर तक चलेगी। इसके तहत् चीरापाटला गांव में 24 जुलाई को, भौंरा मे 5 अगस्त को और चूनाहजूरी में 20 अगस्त को सैकड़ों की तादाद में आदिवासी एकत्र हुए। आदिवासियों ने कावड़ में पौधे सजाकर पूरे बाजार में जुलूस निकाला। हर व्यक्ति के हाथ में दो फलदार पौधे थे। सामूहिक रूप से सैकड़ों पौधों का रोपण किया गया। यहां सकि्रय श्रमिक आदिवासी संगठन और समाजवादी जनपरिषद द्वारा इस सकारात्मक मुहिम को चलाया जा रहा है।

आदिवासियों के अधिकारों के लिए बरसों से सकि्रय सामाजिक कार्यकर्त्ता राजेन्द्र गढ़वाल कहते हैं कि पहले जंगलं आम, आंवला, बेर, अचार, महुआ, जामुन जैसे फलदार वृक्षों से भरा था। लेकिन अब यह फलदार व्क्ष खत्म हो गए हैं। फिर से जंगल को हरा-भरा करना जरूरी है जिससे आदिवासियों को भूख और कुपोषण से बचाया जा सके। उनकी आमदनी बधाई जा सके। इसके तहत अपने घरों के बाड़े में, खेत में, गांव की खाली जमीन पर व जंगल में पेड़ लगाए जा रहे हैं। सामूहिक रूप से आम, जाम, इमली, आंवला, बेर, जामुन, सीताफल, मुनगा, कटहल आदि पेड़ लगाए जा रहे हैं। बैतूल जिले में एक माह में 25 हजार पौधों का रोपण करने का लक्ष्य रखा गया है।

समाजवादी जनपरिषद की नेत्री‘’ामीम मोदी कहती है कि हम तो हर साल यह मुहिम चलाते हैं लेकिन वनविभाग का सहयोग नहीं मिलता बल्कि वे पेड़ों को ही उखाड़ देते हैं। उन्होंने चिचौली विकासखंड के पीपलबर्रा का गांव का उदाहरण दिया, जहां वनविभाग और वन सुरक्षा समिति के लोगों ने पेड़ो में आग लगा दी थी। उनका कहना है अब तक अरबों रूपयों की वानिकी परियोजनाएं भी असफल साबित हुई हैं। अगर लोगों की जरूरत के हिसाब से वृक्षारोपण किया जाए तो इसके सकारात्मक नतीजे आएंगे।

इसकी तैयारी आदिवासी गर्मी के मौसम से ही शुरू कर देते हैं। बीजों को एकत्र करना, उनकी साफ सफाई करना, भंडारण करना, पौधे तैयार करना और फिर जंगल में लगाना। कुछ गांवों के लोग जंगल या नदी किनारे लगे आम पेड़ के नीचे उगे छोटे पौधों का वितरण करते हैं। आम के पेड़ ही ज्यादा लगाए जा रहे हैं, क्योंकि उसके पौधे आसानी से उपलब्ध हो रहे हैं। इसके अलावा, चीकू और काजू के पौधों का रोपण भी किया जा रहा है।

आदिवासियों का जीवन मौदि्रक नहीं, अमौदि्रक है। वे प्रकृति से सबसे ज्यादा करीब से जुड़े हुए हैं। प्रकृति से उनका मां-बेटे का रिश्ता है। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी उनकी जरूरत है। वे पेड़- पहाड़ को देवता के समान मानते हैं। वे अपनी जिंदगी मे प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर हैं।

लेकिन जंगलों में फलदार पेड़ कम होने से उनकी आजीविका और जीवन पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। उन्हें भूख और अभाव में कठिन दिन गुजारने पड़ रहे हैं। ये फलदार पेड़ और कंद-मूल उनके भूख के साथी हैं।

इस मुहिम से जुड़े मनाराम, सुखदेव, संतोष, रोनू, और शंकर कहते हैं कि पहले जंगल से हमें कई तरह के फल-फूल और कंद-मूल मिलते थे। महुआ, तेंदू, अचार, मैनर, आंवला आदि कई चीजें मिलती थीं। और ये सब नि’ाुल्क उपलब्ध थी। लेकिन अब नहीं मिलती।

जंगलों में फलदार वृक्ष कम होने के कई कारण हैं। एक तो जंगल में सागौन और बांस लगाए जा रहे हैं। दूसरा जंगल में कुछ लोग लालचवश फलदार वृक्षों से कच्चे फल तोड़ लेते हैं। उन्हें पकने से पहले ही उन्हें झड़ा लेते हैं। टहनियां भी तोड़कर फेंक देते हैं जिससे तेजी से जंगलों में फलदार वृक्ष कम हो रहे हैं। इन पर रोक लगना ही चाहिए। साथ ही पौधे लगाकर फिर से जंगल को हरा-भरा करना भी जरूरी है।

कुछ वर्ष पहले बोरी अभयारण्य में भी आदिवासियों ने फलदार वृक्षों को बचाने की मुहिम चलाई थी। यह अलहदा बात है कि अब इन्हीं आदिवाशियों को जंगल में शेर पालने के नाम पर उजाड़ा जा रहा है। बहरहाल, इस नई पहल मे न केवल जंगल के पेड़ों को बचाया जा रहा है बल्कि नए पेड़ लगाए जा रहे हैं। इससे पर्यावरण का सुधार और जैव विविधता का संरक्षण और सवर्धन भी होगा। आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी। बहरहाल, यह सकारात्मक व जनोपयोगी पहल सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।

Saturday, October 15, 2011

रावण के पुतले की ख्‍वाहिश और हमारे तिहाड़ी नेता


अविनाश वाचस्‍पति

सरकार को एक ई मेल मिलती है और कईयों की नींद उड़ जाती है जबकि उनमें से बहुतेरे ऐसे होते हैं जिन्‍हें नींद आती नहीं है पर वे भी यही अहसास कराते पाए जाते हैं कि उनकी नींद उड़ गई है। अब उड़कर कहां गई है, यह तो कोई नहीं जानता परंतु वे उस नींद को इस हालिया मिली ई मेल में तलाशने में लग गए हैं। ई मेल में खबर यह है कि इस बार पुतलों ने विद्रोह कर दिया है। जबकि इसमें विशेष यह है कि रावण के पुतलों ने नेताओं के मुखौटे पहनने से साफ मना कर दिया है। दशहरा नजदीक है और उससे नजदीक रामलीला हैं। इसलिए इस आशय का ई मेल कई रामलीला कमेटियों को मिला है। सरकार का रामलीला विभाग इस जानकारी को जुटाने में लग गया है कि पुतलों के नाम पर खाते खोलकर कौन यह कार्य कर रहा है या पृथ्‍वीलोक से इतर लोकों में भी इंटरनेट, फेसबुक इत्‍यादि की सुविधा मिलनी शुरू हो गई है। मेल में साफ चेतावनी दी गई कि अगर मेरे चेहरे पर कपिल, मनीष, राहुल, कनिमोझी, कलमाड़ी इत्‍यादि नेताओं के मुखौटे पहनाए गए, तो हम नहीं जलेंगे। नेताओं के इतने बुरे दिन आयेंगे, ऐसी कल्‍पना खुद इन पुतलों ने भी नहीं की होगी, इसलिए रावण की इन ई मेलों को काफी गंभीरता से लिया जा रहा है। देश भर में सर्वत्र रामलीला आयोजकों के बीच गहन चिंता व्‍याप्‍त हो गई है। जबकि राजधानी में आक्रोश जाहिर करने के लिए सामान्‍य तौर पर नेताओं के पुतले खूब फूंके जाते रहे हैं। परंतु हालिया बुरी स्थिति इस बार नेताओं के तिहाड़ में अड्डा जमाए जाने के कारण उत्‍पन्‍न हुई, लग रही है।

मेल में राहत की खबर यह है कि महंगाई, भ्रष्‍टाचार, बेईमानी के मुखौटे पहनाने पर छूट दी गई है। जिससे रावण दहन के अवसर पर पुतलों पर समाज में व्‍याप्‍त बुराईयों का दमन भी किया जा सके। मेल में यह भी उल्‍लेख है कि यदि महंगाई, भ्रष्‍टाचार, बेईमानी के पुतलों के चेहरों की कल्‍पना करने में सर्जकों का दिमाग चेतना शून्‍य जैसा महसूस कर रहा हो तो वे निस्‍संकोच हमें जानवरों और पक्षियों यथा कुत्‍ते, गधे, उल्‍लू, सियार, बंदर, बिल्‍ली, गिरगिट जैसे प्राणियों के मुखौटे पहना सकते हैं। इस पर हमें कतई एतराज नहीं होगा। अभी तो इस बात पर विचार किया जा रहा है कि जब इन सब बुराईयों का उद्गम नेताओं से ही होता है। फिर भी रावण के पुतलों ऐसे मुखौटे पहनने से इंकार करने में, कहीं नेताओं की मिलीभगत ही तो नहीं है। वैसे सरकार इस फर्जीवाड़े पर रोक लगाने के लिए कमर कस चुकी है। एक सलाह पर अमल करते हुए यह तय किया गया है कि पुतलों की या तो आंखें ही नहीं बनाई जायेंगी और अगर अंधे पुतलों से जनमानस में रोष की स्थिति पैदा होती दिखी, तो उस स्थिति से निपटने के लिए काले चश्‍मे तैयार रखे जाएंगे और सभी पुतलों को उन्‍हें तुरंत एक अध्‍यादेश जारी कर, कानून बनाकर पहना दिया जाएगा। जिससे बिना किसी विरोध के पुतलों पर चश्‍मा चढ़ाने का कार्य निर्विघ्‍न पूरा हो सके। जैसा सलूक आज तक नेता लोग अपने वोटरों की आंखों के साथ करते रहे हैं। सरकार के भीतर से यह खबर लीक न हो सके और न ही विकीलीक्‍स इसकी जानकारी पाकर चीख उठे, इसे नितांत गोपनीय रखने की व्‍यवस्‍था कर ली गई है। इसी के चलते यह व्‍यंग्‍य आपको अक्‍टूबर माह में पढ़ने को मिल रहा है। अब पुतलों को बुत समझने के लिए लद गए, समझ लीजै।

जबकि आपको यह भी समझ लेना चाहिए कि तितारपुर दिल्‍ली में रावण के पुतलों का बाजार सज चुका है। 5 सितम्‍बर से पुतले बनाने का कार्य जोरों पर है। अब तक 5000 पुतले तैयार हो चुके हैं, जिन्‍हें गाजियाबाद, गुड़गांव, फरीदाबाद, सोनीपत, पानीपत, उत्‍तर प्रदेश, उत्‍तराखंड, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्‍थान और महाराष्‍ट्र के कुछ क्षेत्रों में जलाने के लिए हमेशा की तरह ले जाया जाने लगा है। वैसे भी पुतलों को घर के अंदर या छत के ऊपर तो बनाया नहीं जा सकता और न ही इनको स्‍टेडियम के अंदर जलाया जाता है। यह सब नेक कार्य खुले में संपन्‍न होते हैं। आप तो यह भी नहीं जानते होंगे कि पुतले बनाने के लिए बांस असम और केरल से दिल्‍ली लाया जाता है। बांस भी सख्‍त और मुलायम किस्‍म का होता है। मुलायम बांस से 20 फुट तक के पुतले और सख्‍त बांस से 40 फुट और बड़े पुतले बनाए जाते हैं। इतने पुतले बन चुके हैं कि अभी से पुतलों के लिए जगह कम पड़ने लगी है। आप अगर तितारपुर से गुजरे होंगे तो आपने देखा होगा कि विभिन्‍न विशालकाय पुतले मेट्रो लाइन के नीचे और स्‍टेशन के नीचे डेरा डाले हुए हैं। पिछले 35 सालों से पुतले बनाने का यह कार्य यहां पर किया जा रहा है। उल्‍लेखनीय है कि इस बार बच्‍चे पुतले बनाना देखने के साथ, कच्‍चा सामान जैसे बांस, स्‍टील की तार, धोती, कागज, पेंट पटाखे खरीद कर साथ ले गए हैं और उन्‍होंने भी इस कला में अपने हाथ आजमाए हैं। आपको मौका मिले तो अपने पड़ोस के पुतलों को एक नए नजरिए से देखने की कोशिश अवश्‍य कीजिएगा।


Wednesday, October 12, 2011

Lessons in quality


Sopan Correspondent/Patna

Bihar has initiated a slew of steps to arrest migration of students to other states for quality education

Sopan Correspondent/Patna

Bihar Chief Minister Nitish Kumar recently launched 'Samjhe Seekhe Gunwatta' (understand-learn quality) programme in all the districts in the state.
"Our goal is to stop the migration of our children to other states for quality education. For this we have made arrangements at pre-school levels at various Anganbari centres across the state. The children are given free books and school uniform and are encouraged to stay in school by offering various programmes that keep them interested in education", said the Chief Minister.
Under this programme, an eight-minute documentary focusing on how to improve quality education for the students in the state would be screened in all the schools in the districts. A sapling would also be planted in the districts.
The CM also promised at least one Urdu and Sanskrit teacher in every school in the state. He further said that the government will focus more on promoting English education as well.
Deputy CM Sushil Kumar Modi said that by distributing 35 lakh bicycles to the girls, the state has become first in giving cycles.
Meanwhile, the Central Government's ambitious literacy mission 'Sakshar Bharat' is yielding results as 46.33 lakh new learners came forward to take the functional literacy test.
Out of these, 70 per cent passed the test with A and B grades. Every learner got a certificate despite how well they excelled in the test. Also, 82 per cent literacy has been reported among the women neo literates who were assessed as against 18 per cent literacy among men.
The learners got rated on reading, writing and numeracy. Tamil Nadu showed 100 per cent literacy among the candidates assessed, while Andhra Pradesh posted the lowest adult literacy percentage of 51.52. Saakshar Bharat is a centrally sponsored scheme of Department of School Education and Literacy (DSEL) and Ministry of Human Resource Development (MHRD).
It aims to promote and strengthen Adult Education, specially of women, by extending educational options to those adults who having lost the opportunity of access to formal education and crossed the standard age for receiving such education.
A proposal for the setting up of a centre for policy research and training in adult education by 2013 came up during a recently held international Conference in New Delhi. The conference was attended by 14 countries including Brazil, China, Indonesia, Egypt, Nigeria, Mexico, Pakistan, Bangladesh, Afghanistan, Sri Lanka, Maldives, Bhutan and Nepal.
The Conference, 'Women's Literacy for Inclusive and Sustainable Development' was hosted by India. The proposed centre will benefit India, Pakistan and Bangaldesh.
After India's independence, several schemes and campaigns like the Community Development Programme and the Sarva Shiksha Mohim were launched by the Government, to accelerate the process of spread of literacy. A scheme called Functional Literacy for Adult Women (FLAW) was started in 1975-76, to boost the literacy rate among women. A two-pronged approach for the universalisation of elementary education and universal adult literacy was adopted for achieving total literacy.
Over the years, National Policy on Education (External website that opens in a new window) has given an unqualified priority to programmes for eradication of illiteracy, particularly among women.
The Central Government is planning to give ISO certification and credit funding for vocational education courses in the country.
"We are working on getting ISO certification for all the Industrial Training Institutes (ITIs) to make the sector more standardized and become a global talent hub," said Sharada Prasad, director general of employment and training at the Union labour ministry.
The aim of this move is to formulate standards for the sector and make India a skilled manpower hub during the 12th Five-year Plan period. India has more than 9,300 ITIs.

Fast forward, now pause


Sangita Jha/New Delhi

MPs' panel has to give its report on the Bill in three months; till then it is peace

Change may be painful at times. No wonder an attempt to change generally sets in motion opposition from those who find tough to shrug off status quo. The story of Lokpal may also be that of one struggling to jolt the establishment to shun status quoist position.
Shrillness on the street for Lokpal appears to have taken a pause. It's clearly in lines with the strategy of the proponents of the Jan Lokpal Bill. The guerilla warfare is no more just confined to military parlance only, as its tactics are very much part of those striving to bring in change in a well entrenched system.
The Central Bureau of Investigation and Chief Vigilance Commissioner have largely been the faces of anticorruption wings of the establishment. However, their performance has largely left the people in the country disenchanted. Therefore, it's easy to explain why people across the country hit the street on the call of the Gandhian social activist Anna Hazare. One is led to believe that the time to have an effective and independent Lokpal has come and can not wait any further.
However, the CBI does not believe in the popular demand. The agency does not want to be split in two parts. Therefore, the CBI deposed before the Parliamentary Standing Committee on Personnel Public Grievances and Law and Justice examining the two versions of the Lok Pal Bill --- government and Anna Hazare's --- saying that the agency not be divided, and rather its functionally autonomy be ensured. The CBI, sources said, is of the view that the proposed Lokpal can have superintendence over it.
The Jan Lokpal Bill calls for CBI to be under the proposed anti-corruption Ombudsman. The Lokpal is proposed to be an anti-corruption watchdog. Anna Hazare wants his version of the Lokpal to investigate cases of corruption and give punishment apart from recovering the losses from the guilty. The CBI has largely two functions, that of investigating financial irregularities and also some high profile criminal cases. The CBI officials are of the view that if the part of investigation in financial irregularities is taken away, it will be left only to investigate high profile murder cases, which do not come in big number to it. However, the counter view as some say is that the National Investigation Agency (NIA) could take over the crime investigation part from the CBI without much fuss.
However, the CBI is learnt to have deposed before the standing committee that it should be retained in its present form as "the only premier investigating agency for corruption cases", while the Lokpal can be given all such powers because of which "interference is said to be caused" in its functioning.
Therefore, the CBI is believed to have reasoned "underlying theme in both the draft Lokpal bills is to confer more autonomy on the investigation agency so as to insulate it from interference. This kind of autonomy and independence can be given to the CBI by conferring Lokpal with all such powers because of which interference is said to be caused in functioning of CBI".
It's quite clear that the CBI has gone behind the existing model of having a working relationship with the proposed Lokpal as it has with the CVC. The clear focus appears to have superintendence by the proposed Lokpal but at an arm's length. The proposed Lokpal could be vested with all powers to meet the financial, administrative and legal requirements of CBI.
Further caveat appears to be the position of the premier investigative agency that the Director, CBI should continue to exercise the final police powers to decide a case. "The Lokpal could instead have an enquiry wing under it for conducting fact-finding enquiries in matters that it may deem fit and entrust investigation to CBI, if it so warrants," said a senior official.
However, this is not what Anna Hazare is demanding. Team Anna will have reasons to believe that such a position as proposed by the CBI would only be camouflaging the status quo. But no one clearly at least those on the street want status quo any more.
The CVC on the other hand is stated to have recommended vigilance framework under proposed Lokpal for the corporates also. The CVC also wants that overlapping of responsibilities with Lokpal be avoided.
The standing committee headed by the Congress MP Abhishek Manu Singhvi was given three months' time to submit its recommendations, as the Parliament is expected to take up the Bill in the Winter session. Meanwhile, the team Anna has gone to the people conducting referendum in a number of cities in UP and Uttarakhand.
One is led to believe that another round of confrontation between team Anna and the government is in the making. Till then, it may just be a pause for tactical purposes.

Jolt from slumber


Shankar Ray/Kolkata

The recent earthquake in Sikkim shows how unprepared are we to deal with natural calamities. There is a need to look at how we construct our houses.

A well-known geo-scientist in an interview with a national daily stating that India is about to be as one of the most disaster prone areas in the world. "India faces cyclones, floods, natural and man-made disasters but while it is possible to have forewarning of disasters like floods and cyclones, that's not the case with earthquakes. The only forewarning possibility with earthquakes is to install sensors that give a lead time of a few seconds."
But is this really new information? Earth scientists the world over know that over 60 per cent of geographical area of India belongs to highly or moderately seismic categories - let's be aloof from jargons by zones 3, 4 and 5. The seismic zonation by the Geological Survey of India and the National Geophysical Research Institute was placed before the policy-framing authorities in New Delhi using state-of-the-art scientific and technological methods and tools like digital broadband seismographs and accelerographs.
The Indian Geophysical Union presented at an international convention placed a document on "Seismic Hazard and crustal formations" in 2008, but all this is shelved as such hard truths are not palatable to the nexus comprising construction firms, civil engineers, architects and of course the alliance of IAS biggies and corrupt section of politicians. Words like seismic zones surface after catastrophic earthquakes. Otherwise, systematic destruction of villages and semi-urban regions continues in the name of development as if development exclusively means urbanization and industrialization. This lobby that is at home in generating catastrophes is against sustainable development whose mainstay is agriculture and fisheries. Small wonder, out of 3.2 million masons engaged in construction, only 34,000 have been imparted knowledge about seismic designs.
Columnist Sreelatha Menon referred to the power of local knowledge and wisdom. There is a Sikkimese (Lepcha) adage, "Earthquakes don't kill people, buildings do" She is right that the truth "again came to the fore in the recent earthquake." Those who have made many trips to Sikkim and mingled with the Lepchas and the Bhotias know how deep their attachment is to mountainous villages unlike the Nepali settlers. Actually not the innocent Nepali settlers but vested interests who dominate in the process of haphazard settlement through wanton eco-destruction are the real culprits everywhere. The Lepchas cite a Cree that explains the contradiction between human greed and nature. "Only after the last tree has been cut down, only after the last river has been poisoned, only after the last fish has been caught, you will find that money cannot be eaten," Menon appropriately noted.
Small wonder, some scientists, based on the contemporary international trends and their practical experience, suggest a correlation between earthquake deaths and corruption. "The Haiti earthquake resulted in the death of three lakh people because it is one of the most corrupt nations in the world. We in India also suffer human causalities because of lax implementation of our building codes. Japan, California, New Zealand and Chile are earthquake-prone but their earthquake preparedness has ensured minimum loss in terms of life and destruction of their urban structures", the geoscientist bluntly stated.
Many readers may accuse me of going illogically adrift, if I say, we should not be in a hurry to make new legislations on land acquisition although some columnists are queerly worried about the hurdles in acquisition of land for so-called development. True, land is "fast becoming a high-risk asset in many parts of India but they are little concerned about the status of our high-risk geographical domain. Peasants who want to continue with their present livelihood are abused "politically organized Farmers, resisting large-scale government land acquisitions and even questioning past buyouts." They need to have a clear perception of Section 3(f) of Land Acquisition Act,1894 ('public purpose'), instead of tendentious rejection of it for having been framed during the colonial era. Public purpose and commercial purpose are inexplicably mixed up. Gainers are vested interests, especially the construction lobby.
Why not a national debate through nationwide public hearing or jan-sunani?

Monday, October 10, 2011

Land-locked Govt


Devinder Sharma/ New Delhi

A Farmer's Income Commission is what agriculture needs to ensure a reasonable monthly take home package and thereby turn farm lands economically viable

Rural Development Minister Jairam Ramesh is visibly excited. He seems more than happy with the Land Acquisition, Rehabilitation and Resettlement bill 2011 that he has presented in Parliament. Soon after introducing the bill, he told a TV channel that he is hopeful that the final bill which would be enacted into a law would not be radically different from what he has presented. He is expecting only a few minor changes in what he has presented.
Only a few weeks before Jairam Ramesh presented the LARR bill, the Supreme Court had lashed out at the growing incidence of violent land acquisitions: "This is a sinister campaign initiated by several state governments against the people. It is forcing them (land owners) to become slum dwellers or take to crime." It faulted state governments for using the 'urgency' or 'emergency' clause for private benefit. The nexus has grown thicker and wider - economists joining ranks with politicians, bureaucrats and builders.
Dismissing another petition filed by the Greater Noida Authority and several private builders, it observed: "The justification often advanced, by advocates of neo-liberal development paradigm, as historically followed, or newly emerging, is that unless development occurs, via rapid and vast exploitation of natural resources, the country would not be able to either compete on the global scale, nor accumulate the wealth necessary to tackle endemic and seemingly intractable problems of poverty, illiteracy, hunger and squalor."
Isn't this an argument that you hear every other day? That rural India is literally on a boil is of no consequence. After all, land is required for manufacturing and industry; more industrial development means more employment; more employment means less of poverty. This popular assumption is regardless of the recommendations of a 2008 Expert Group of Planning Commission, which had concluded: "the benefits of this paradigm have been disproportionately cornered by the dominant sections at the expanse of the poor."
Land grab is happening at a time when the country is already in the throes of an unmanageable food crisis given that the galloping demands for food in the years to come requiring more area to be maintained under agriculture. For instance, if India is to grow domestically the quantity of pulses and oilseeds (in the form of edible oil) that are presently being imported, an additional 20 million hectares would be required. On the contrary, with arable land - mono-cropped or multi-cropped -- being diverted for non-agricultural purposes, India is fast getting into a much worse hunger trap.
Preserving productive agricultural land for cultivation therefore assumes utmost importance. In the United States, the federal government is providing US $ 750 million for the period 2008-13 under the Farm Bill 2008 to farmers to conserve and improve their farm and grazing lands so as to ensure farmers do not divert it for industrial and private use. In India on the other hand, the State governments are a tearing hurry to divest farm lands and turn them into concrete jungles in the name of development. "When people protest against acquisition of their land, men are arrested and women raped," the apex court observed.
Well said. But the thrust on acquiring farm land is happening at a time when farmers themselves are more than keen to dispense with their meagre land holdings. In a Hindustan Times-GFK Mode opinion poll conducted across five worst affected villages in UP's Aligarh and Gautam Budh Nagar districts more than 48 per cent farmers have expressed their willingness to sell land. All they are looking for is a better compensation package.
The underlying message is loud and clear. Farmers are keen to dispense with their land because agriculture has turned into a losing proposition. This is quite in contrast to what the Supreme Court observed, although quite a sizeable percentage of farmers are not in favour of selling off their land at any cost.
Knowing that in an earlier National Sample Survey Organisation (NSSO) survey 42 per cent farmers had expressed the desire to quit agriculture if given an alternative, the contentious issue of land acquisition has to be viewed in the light of the terrible agrarian distress that prevails reflected in the spate of farmer suicides being witnessed across the country, the ongoing debate on land acquisition skirts the fundamental issues confronting the economic viability of the farm and the resulting food insecurity.
Economic development unfortunately has come to mean that farmers should be divested of their meagre land holdings. Policy makers say that with rapid industrialization, average incomes will increase. As a result, people will have more money to buy food from the open market and make more nutritious choices. But the bigger question as to from where will the addition quantity of food come from has been simply overlooked, at our own peril.
In Andhra Pradesh, over 20 lakh acres has been diverted from agriculture to non-farm uses. In Haryana, over 60,000 acres has been acquired between 2005 and 2010. In Madhya Pradesh, over 11 lakh acres has been acquired for the industry in the past five years. Punjab, Karnataka, Andhra Pradesh, Maharashtra, Chhattisgarh, and Madhya Pradesh are building up "land banks" for the industry and Rajasthan has allowed the industry to buy land directly from farmers setting aside the ceiling limit.
No one, in fact, has worked out how much agricultural land needs to be acquired to meet the industrial needs, and how much has actually been purchased. It is free for all; you can acquire as much land as you can. LARR merely facilitates the takeover of farm land.
Rahul Gandhi himself has alleged that along the proposed Yamuna Expressway in UP, roughly 44,000 hectares of fertile farm land is being acquired for townships, industrial clusters, golf courses and an Formula One racing track.
My own analysis shows that of the total area of 198 lakh acres under food grain crops in UP, one-third or roughly 66 lakh acres will go out of production. This will mean a shortfall in food grain production in UP alone to the tune of 145 lakh tonnes. The immediate question that crops up is: Who will feed Uttar Pradesh?
Keeping country's food security in mind what therefore must be done is to first draw up a land use map for the country. This has to be accompanied by a moratorium on the sale of farm lands for non-farm activities except for clearly defined 'public' purpose. At the same time, the proposed land acquisition bill must be integrated enough to include provisions for enhancing farm incomes.
At present the average monthly income of farm family ranges around Rs 2400. A chaprasi on the other hand gets a minimum salary of Rs15,000. A Farmer's Income Commission is what agriculture needs desperately to ensure a reasonable monthly take home package and thereby turn farm lands economically viable.

Saturday, October 8, 2011

More Qs than answers


Sangita Jha/New Delhi


Rural development minister Jairam Ramesh takes credit for fast-tracking Land Acquisition and Rehabilitation and Resettlement (LARR) Bill, 2011. He is right as far as the draft bill was drafted
and introduced in the Parliament in a flat 55 days since he took charge of the ministry from his predecessor Vilasrao Deshmukh. However, the LARR Bill, 2011 appears to have a clear bias against planned urbanisation. For any township to be set up, which is critical part of planned urbanisation, a developer needs at least 100 acres of land, while the ideal is stated to be about 150 acres.India being home to largest middle class population in the world has a clear challenge to fulfill the demands for affordable housing. There is no denying the fact that India has lagged behind in fulfilling this demand. The LARR Bill, 2011 has all the ingredients to make the dreams of the middle class to own houses in urban centres not only difficult but also painful. The reason for this is the consequent spiking in the cost of acquisition of land.

Ramesh takes credit for introducing one combined legislative proposal for acquisition of land and resettlement of the affected people. The LARR Bill, 2011 makes it mandatory that the acquisition of more than 50 acres of land in the urban areas would require giving
rehabilitation and resettlement to the affected people. Housing experts have claimed that the land cost which was so far about 30 per cent of the total project cost could go all the way to about 60 per cent after the LARR Bill, 2011 becomes a law. The additional cost has to be borne by the end user, that is the flat buyers. Though the representatives of the real-estate developers wanted to meet the minister, no such requests were accepted and when Ramesh was
asked if he had any aversion to the people from the realty sector he had claimed that they were free to submit their demands. Not only affordable housing but as the country gears up for expansion of airports and commissioning of new ones on the back of growing number of air-travelers, the government and private developers too are likely to be hit hard. Since, the airports as have been the case come up in the fringe areas of urban centres. Therefore, the government too would have to factor in higher cost of acquisition of land for new airports and expansion of the existing ones.

While briefing media about final version of the LARR Bill, 2011, Ramesh referred to his long meetings with social activist Medha Patkar. But he had no answers when asked if any of the demands of Patkar had been incorporated in the final version of the Land Bill. In fact Patkar in her meetings with Ramesh had sought ceilings on the extent of land acquisition for projects under public-private partnership. She had given the example of the new airport at Bangalore
where land in excess was acquired, with a large chunk of them being used for developing commercial complexes having no relations to the requirements of an airport. The industries had petitioned that the clause in the land bill to have prior consent of 80 per cent of the affected people for acquisition of land would be quite cumbersome and could even put a brake on the pace of industrialisation. However, the clause remains for all purposes except for when the government acquires land for defence, strategic and national importance. So, all big projects of power, highways and others would have to adhere to the norms of prior consent of 80 per cent of the affected people. Industry bodies have complained that it could be a time consuming exercise.

Ramesh has explained that social impact assessment would be the basis of getting the consent of at least 80 per cent of the affected people at the Gram Sabha level and respective bodies in the urban areas. Since, social impact assessment would also cover the livelihhoods' losers, absence of any database is likely to be a big hindrance. As most often the farmers employ casual labourers, who mostly happened to be migratory population from the poorer states, officials have a tough
task at hand to execute this clause in its proper spirit. Also, the sharecroppers are engaged by landowners on verbal agreement, a fact, which cannot be ignored.

The rural development minister had heard quite extensively demands of farmers, including those from the Bhatta-Parsaul in the Greater Noida and Tappal in the Aligarh district of UP. These farmers had been on the forefront of agitation against land acquisition. One of the critical demands of the farmers had been to define properly "family" for the sake of compensatory employment. They had reasoned that land in villages is generally in the name of a family patriarch who invariably happens to have quite a long family chain. "You give job to one member of the family and he separates out after getting the employment. What about others who too have family of their own to look after. This could lead to disintegration of the joint family system in the rural areas," the farmers had reasoned with the minister.

However, the LARR Bill, 2011 failed to address the demands of the farmers, with Ramesh saying that there could be no end to such issues. The Land Bill makes it very clear that there could be no change in land use once the land is acquired. However, if the acquired land is not utilised for next 10 years it would not be returned to the farmers but would go to the land bank of the state government, which is an idea clearly inspired by that of Gujrat. However, the minister is not
clear if the land is again allocated from the bank for a project and its land use is changed at that point of time, as then it will be upto the discretions of the state government to do so.

In the course of drafting of the Land Bill there was a proposal to address the concerns of food security, as experts regularly pointed out to shrinking land base for the agricultural use. Initially, the draft bill proposed a blanket ban on acquisition of multi-cropped
agricultural land but later on after the states of Haryana, Punjab, West Bengal objected, it was amended with a clause that the barren land equal in size would need to be made fertile in the event of acquisition of such land. This leaves the question of food security when such a law is on the anvil an open question. The move to implement the LARR Bill, 2011 with retrospective effect may please the affected landowners but could affect the ongoing projects. This is because the whole terms of reference would change and the exercise might need to be initiated afresh.
Now that the LARR Bill, 2011 has been referred to the standing committee there would be more representations to the law makers to make necessary amends which might not have been addressed when Ramesh was in a tearing hurry to introduce the legislative proposal in the
Parliament.

भारत में लिंगानुपात

संजीव कुमार

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत के राष्ट्रीय लिंगानुपात में 7 अंकों की वृद्धि हुई है। 2001 की जनगणना में प्रति 1000 पुरुष पर 933 (932.91) स्त्री थी, जो 2011 की जनगणना में बढ़कर 940 (940.27) स्त्री पर पहुंच गया है। राष्ट्रीय लिंगानुपात में यह वृद्धि देश के लिए एक अच्छा संकेत है। क्योंकि आंकड़ों के हिसाब से यह 1971 की जनगणना के बाद से दर्ज सबसे उंचा लिंगानुपात है। वहीं 1961 की जनगणना की तुलना में थोड़ा कम है। इस जनगणना में 29 राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों में लिंगानुपात में वृद्धि देखी गई है। तीन प्रमुख राज्यों- जम्मू-कश्मीर, बिहार और गुजरात के लिंगानुपात में 2001 की जनगणना की तुलना में गिरावट दर्ज की गई है। वहीं दूसरी

बताते चलें कि लिंगानुपात में प्रति एक हजार पुरुष पर महिलाओं की संख्या को गिना जाता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, केरल में सर्वाधिक तरफ 0-6 वर्ष के बच्चों के लिंगानुपात में 13 अंकों की कमी आई है। यह बेहद ही चिंताजनक है। क्योंकि बच्चे ही देश के भविष्य हंै। अगर इसी तरह बच्चों के लिंगानुपात में लगातार गिरावट आती रही तो आने वाले दिन में राष्ट्रीय लिंगानुपात में भी कमी आएगी।
लिंगानुपात 1,084 वाला राज्य है। इसके बाद 1,038 के लिंगानुपात के साथ पुडुचेरी का दूसरा स्थान है। वहीं दमन एवं दीव में लिंगानुपात सबसे कम 618 है। तो एक हजार पुरुष पर 775 महिलाओं के साथ नागर एवं हवेली दूसरा सबसे कम लिंगानुपात वाला राज्य है। यही लिंगानुपात अगर जिला में देखें तो जिलों में माहे (पुडुचेरी) सबसे अधिक लिंगानुपात प्रति एक हजार पुरुष पर 1,176 स्त्री वाला जिला है, इसके बाद उत्तराखंड में अल्मोड़ा जिला का लिंगानुपात 1,142 है। वहीं दमन जिले में सबसे कम लिंगानुपात प्रति एक हजार पुरुष पर 533 स्त्री वाला जिला और इसके उपर लद्दाख के लेह जिले का लिंगानुपात 583 है। गौरतलब यह है कि केरल भारत का अकेला ऐसा राज्य है जिसके सभी जिलों का लिंगानुपात 1,000 से अधिक है। वहीं कुछ ऐसे भी राज्य हैं जिनके किसी भी एक जिले का लिंगानुपात 1000 नहीं है। उनमें दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, गोवा, असम, त्रिपुरा, सिक्किम, नागालैंड, पश्चिम बंगाल, दादर व नागर हवेली, अंडमान व निकोबार द्वीप समूह और चंडीगढ़, प्रमुख हैं।
भारत में असमान लिंगानुपात के बारे में जानकारों का मानना है कि कन्या भ्रूण हत्या और चयनात्मक लिंग निर्धारण
इसके महत्पूर्ण कारण है। विशेषज्ञों के अनुसार, आज भी समाज में एक तरफ लड़के-लड़कियों में भेद किया जाता है तो दूसरी तरफ दहेज के लिए बहुओं की हत्या तक कर दी जाती हैं। कहने को तो आज हम अपने को विकासशील और आधुनिक मानते हैं लेकिन मानसिक तौर पर आज भी हम उपर नहीं उठे हैं। हम आज भी पुरातनपंथी हैं। लड़की के स्थान पर लड़कों को तरजीह देते हैं। इसके लिए हम 0-6 वर्ष की आयु समूह के बच्चों का लिंगानुपात देख सकते हैं। 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में लिंगानुपात 914 है। 2001 की जनगणना में जहां बच्चों का लिंगानुपात 927 (927.31) था, वहीं 2011 के आंकड़ों के अनुसार बच्चों का लिंगानुपात 1000 लड़कों पर 914 (914.23) लड़कियां हैं। यानी बच्चों के लिंगानुपात में 13 अंकों की कमी आई है। बच्चों के लिंगानुपात यह गिरावट हमारे लिए चिंता की बात है। कहने का अर्थ यह है कि पिछले एक दशक में हमारे समाज में लगातार लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को प्राथमिकता दी गई है। बताते चलंे कि 0-6 वर्ष के आयु समूह का लिंगानुपात 1961 की जनगणना से लगातार घट रही है लेकिन 2011 की जनगणना में बच्चों के लिंगानुपात में आजादी के बाद से सर्वाधिक गिरावट देखने को मिली है। आंकड़ों के अनुसार, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, गुज
रात, तमिलनाडु, मिजोरम और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिंगानुपात में वृद्धि के रुझान मिले हैं। वहीं शेष 27 राज्यों/संघशासित क्षेत्रों में, बच्चों के इस लिंगानुपात में 2001 की जनगणना की तुलना में गिरावट ही देखी गई है। 6 वर्ष से कम आयु समूह के बच्चों की संख्या अब 158.8 मिलियन है जो 2001
की जनगणना से 5 मिलियन से कम है।
जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों मंे सर्वाधिक लिंगानुपात (971) मिजोरम का है। वहीं 970 के लिंगानुपात के साथ मेघालय दूसरे स्थान पर है। सबसे कम लिंगानुपात 830 वाला राज्य हरियाणा है जबकि 846 के लिंगानुपात के साथ पंजाब दूसरे स्थान पर है। जिला स्तर पर 0-6 आयु समूह में हिमाचल प्रदेश के लाहुल एवं स्पीति में सबसे अधिक लिंगानुपात 1013 है, जबकि तवांग (अरुणाचल प्रदेश) 1005 के लिंगानुपात के साथ दूसरे स्थान पर है। बच्चों का लिंगानुपात सबसे कम हरियाणा के झज्जर एवं महेन्द्रगढ़ जिले में क्रमशः 774 एवं 778 है। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि कन्या भ्रूण हत्या की रोकथाम के लिए लिंग-निर्धारण परीक्षण पूर्व-प्रसव निदान तकनीक (दुरुपयोग का विनियमन व निवारण) अधिनियम आज भी पूरी तरह अप्रभावित है।
इस जनगणना के आंकड़े से यह स्पष्ट है कि शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों का लिंगानुपात अधिक है। साथ ही शहरी क्षेत्रों से सटे ग्रामीण क्षेत्र भी शहरी आबोहवा से प्रभावित हुए हैं। क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों के लिंगानुपात में भी गिरावट आई है। उदाहरण के तौर पर पिछड़े राज्य झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम (1004) और सिमडेगा (1000) का लिंगानुपात अधिक है लेकिन शहरी जिले रांची (950), धनबाद (908) और बोकारो (912) के लिंगानुपात में कमी आई है। इस तरह 2011 के इन आंकड़ों से बच्चों का
लिंगानुपात देश के दक्षिण एवं पूर्वी हिस्से में तो संतोषजनक दिखता है लेकिन पूरे उत्तर और पश्चिमी भारत में जो तस्वीर उभरती है वह देश के भविष्य को लेकर मन में शंका उत्पन्न करती है।






रंजना कुमारी, निदेशक, सेंटर फार सोशल रिसर्च

‘‘2011 की जनगणना के अनुसार लिंगानुपात को लेकर जो आंकड़े आएं हैं वह थोड़ा संतोषजनक है। क्योंकि राष्ट्रीय लिंगानुपात में जो सात अंकों की वृद्धि हुई है, वह हमारे देश के लिए शुभ संकेत है। लेकिन बच्चों के लिंगानुपात में जो गिरावट दर्ज हुई है वह चिंतानजक है। हमें इस पर सोचने की जरूरत है कि हम बेटा और बेटी में भेद क्यों कर रहे हैं। जब तक यह भेद खत्म नहीं होगा लिंगानुपात में यह अस मानता बरकरार रहेगी।’’





मधु किश्वर, संपादक, मानुषी पत्रिका

‘‘राष्ट्रीय लिंगानुपात में वृद्धि और 0-6 वर्ष के बच्चों के लिंगानुपात में गिरावट मेरे समझ से परे है। हमारा समा
ज आज भी 18 वीं शताब्दी में जी रहा है। आज जब बेटियां हर क्षेत्र में अपना अलग मुकाम बना रही है। अपना और अपने परिवार का नाम रौशन कर रही है। फिर भी हम इन बेटियों
को जन्म से पूर्व ही मां के कोख में मार देते हैं। इसके लिए सिर्फ कानून बनाने से कुछ नहीं होगा बल्कि हर एक मां को सोचना होगा कि वह भी तो एक स्त्री ही है फिर कैसे किसी स्त्री (बच्ची) की हत्या वह कर सकती है।’’

Friday, October 7, 2011

मुसलमानों में कम हो रही हैं बेटियां


फ़िरदौस ख़ान

हिन्दुस्तानी मुसलमानों में भी लड़कों के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है. इसकी वजह से लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मां की कोख में मौत की नींद सुला दिया जाता है. मुस्लिम समुदाय में कुल लिंग अनुपात- 950 :1000 और बच्चों का लिंग अनुपात- 936 :1000 है, जो हिन्दू समुदाय के लिंग अनुपात- 925:1000 और बच्चों का लिंग अनुपात- 933:1000 से बेहतर कहा जा सकता है. हालांकि इस मामले में ईसाई समुदाय देश में अव्वल है- इस समुदाय कुल लिंग अनुपात- 1009 :1000 और बच्चों का लिंग अनुपात- 964:1000 है. औसत राष्ट्रीय लिंगानुपात 933:1000 है.

जम्मू कश्मीर में लिंगानुपात तेज़ी से घटा है. साल 2001 में सात साल के कम उम्र के हर एक हज़ार लड़कों के अनुपात में 941 लड़कियां थीं, अब ये संख्या 859 हो गई है. कन्या भ्रूण हत्या पर चिंता ज़ाहिर करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूख़ अब्दुल्ला ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर कन्या भ्रूण हत्या पर तुरंत रोक नहीं लगी तो भारत में पुरूष समलैंगिक हो जाएंगे.

अरब देशों में पहले लोग अपनी बेटियों को ज़िदा दफ़ना देते थे, लेकिन अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद ने इस घृणित प्रथा को ख़त्म करवा दिया. उन्होंने मुसलमानों से अपनी बेटियों की अच्छी तरह से परवरिश करने को कहा. लेकिन बेहद अफ़सोस की बात है कि आज हम अपने नबी की बताये रास्ते से भटक गए हैं.

एक हदीस के मुताबिक़ पैगंबर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया : "जिस की तीन बेटियां या तीन बहनें, या दो बेटियां या दो बहनें हैं, जिन्हें उस ने अच्छी तरह रखा और उन के बारे में अल्लाह तआला से डरता रहा, तो वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा." (सहीह इब्ने हिब्बान 2/190 हदीस संख्या : 446)

एक अन्य हदीस के मुताबिक़ "एक व्यक्ति अल्लाह के पैगंबर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आया और कहा कि अल्लाह के नबी! मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे अधिक हक़दार कौन है ? आप ने कहा: तेरी मां, उसने कहा कि फिर कौन ? आप ने फ़रमाया : तुम्हारी मां, उस ने कहा कि फिर कौन ? आप ने फ़रमाया: तुम्हारी मां, उस ने कहा कि फिर कौन? आप ने कहा : तुम्हारे पिता, फिर तुम्हारे क़रीबी रिश्तेदार।" (सहीह बुखारी हदीस संख्या : 5626, सहीह मुस्लिम हदीस नं.: 2548)

इस्लाम ने महिला को एक मां, एक बेटी और एक बहन के रूप में आदर और सम्मान प्रदान किया. अल्लाह तआला ने इसका ज़िक्र करते हुए क़ुरआन में फ़रमाया है : "उन में से जब किसी को लड़की होने की सूचना दी जाए तो उस का चेहरा काला हो जाता है और दिल ही दिल में घुटने लगता है. इस बुरी ख़बर के कारण लोगों से छुपा- छुपा फिरता है. सोचता है कि क्या इस को अपमानता के साथ लिए हुए ही रहे या इसे मिट्टी में दबा दे. आह! क्या ही बुरे फ़ैसले करते हैं." (सूरतुन-नह्ल : 58-59)

और जब (अर्थात् परलोक में हिसाब-किताब, फ़ैसला और बदला मिलने के दिन) ज़िन्दा गाड़ी गई बच्ची से (ईश्वर द्वारा) पूछा जाएगा, कि वह किस जुर्म में क़त्ल की गई थी’ (81:8,9)

मुसलमानों में बढ़ती दहेज प्रथा ने भी कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा दिया है. यूनिसेफ़ के सहयोग से जनवादी महिला समिति द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दहेज के बढ़ रहे मामलों के कारण मध्य प्रदेश में 60 फ़ीसदी, गुजरात में 50 फ़ीसदी और आंध्र प्रदेश में 40 फ़ीसदी लड़कियों ने माना कि दहेज के बिना उनकी शादी होना मुश्किल हो गया है. दहेज को लेकर मुसलमान एकमत नहीं हैं. जहां कुछ मुसलमान दहेज को ग़ैर इस्लामी क़रार देते हैं, वहीं कुछ मुसलमान दहेज को जायज़ मानते हैं. हालत यह है कि बेटे के लिए दुल्हन तलाशने वाले मुस्लिम वाल्देन लड़की के गुणों से ज़्यादा दहेज को तरजीह (प्राथमिकता) दे रहे हैं. हालांकि 'इस्लाम' में दहेज की प्रथा नहीं है. एक तरफ जहां बहुसंख्यक तबक़ा दहेज के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रहा है, वहीं शरीयत के अलमबरदार मुस्लिम समाज में पांव पसारती दहेज प्रथा के मुद्दे पर आंखें मूंदे बैठे हैं.

दहेज की वजह से मुस्लिम लड़कियों को उनके पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी अलग रखा जा रहा है. इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि उनके विवाह और दहेज में काफ़ी रक़म ख़र्च की गई है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता. ख़ास बात यह भी है कि लड़की के मेहर की रक़म तय करते वक़्त सैकड़ों साल पुरानी रिवायतों का वास्ता दिया जाता है, जबकि दहेज लेने के लिए शरीयत को 'ताक़' पर रखकर बेशर्मी से मुंह खोला जाता है.