Wednesday, July 6, 2011

उद्योग की आंधी में आदिवासी



सुनील शर्मा
/जशपुर

आदिवासियों की जनसंख्या लगातार क्यों कम हो रही है, इसका सही-सही जवाब कोई नहीं देना चाहता.लेकिन आंकड़े बहुत साफ-साफ सारी कहानी कह जाते हैं. पिछले दस-बारह सालों में अलग-अलग तरह की औद्योगिक परियोजनाओं में छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में 14 लाख लोग विस्थापित हुये और इनमें आदिवासियों की संख्या 79 प्रतिशत है. दुखद ये है कि इनमें से 66 प्रतिशत का पुनर्वास सरकार ने आज तक नहीं किया. छत्तीसगढ़ का जशपुर ऐसे ही विस्थापन का प्रतीक बन रहा है. नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की मीडिया फेलोशीप के तहत आदिवासियों की स्थिति पर अध्ययन कर रहे पत्रकार सुनील शर्मा की रिपोर्ट

जशपुर में ईब नदी के किनारे बसे आदिवासी जानते हैं कि अबकी बार इनका सामना चारे की तलाश में भटकते मतवाले हाथियों से नहीं बल्कि औद्योगिक विकास की एक ऐसी अंधी बयार से है जो उन्हें, उनकी संस्कृति और उनका अस्तित्व भी चौपट कर सकता है. गुल्लु में बनने वाले हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट से बिजली कब पैदा होगी यह तो नहीं मालूम लेकिन आदिवासियों के जीवन में अभी से अंधेरा छाने लगा है

'' ऊपर गुल्लु, मतलुंगा, अलोरी डूबेगा तो क्या हम बचेंगे साहब, हम भी डूबेंगे और खेती-बाड़ी की जमीन भी. हमें तो मुआवजा तो दूर नोटिस देना भी जरूरी नहीं समझा गया, हमारी जमीन ली भी जा रही है और कहा भी नहीं जा रहा है कि तुम लोगों की जमीन ले रहे हैं, जैसे यह कोई निर्जन जगह हो, जहां कोई घर नहीं हो, कोई आदमी नहीं हो.

छत्तीसगढ़ हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्राइवेट लिमिटेड इलाके में बांध बना रही है और कंपनी का दावा है कि इससे केवल 4 गांव प्रभावित होंगे. लेकिन इस बेशर्म झूठ की हकीकत ये है कि कंपनी जो बांध बना रही है, उसमें बांध प्रवाह के दोनों छोर के चार गांवों को तो डूब का इलाका मान रही है और इन गांवों के कुल 38 परिवारों को मुआवजा भी दे रही है लेकिन इन चार गांवों के बीच के गांव, जो अनिवार्य रुप से डूबेंगे, उन गांव के लोगों को मुआवजा कौन कहे, कंपनी ने आज तक नोटिस तक नहीं दी है. गुल्लु, मतलुंगा और अलोरी के आदिवासी अपनी जमीन किसी भी कीमत पर नहीं देना चाहते. उनका कहना है कि वे यहां से कहीं नहीं जायेंगे, भले ही ईब नदी उन्हें डूबा ही क्यों न दे.

जशुपरनगर से सन्ना रोड पर बाई ओर दुर्गम इलाके में ईब नदी के किनारे बसे ये गांव मनोरा तहसील में आते हैं. इनमें ज्यादातर उरांव जनजाति के लोग रहते हैं, जबकि कुछ कोरवा मांझी परिवार भी इन गांवों में कई पीढिय़ों से रहते आ रहे हैं. इस पूरे इलाके में आदिवासी सघनता से बसे हुए है. जिले में मनोरा ही एकमात्र ऐसी तहसील है, जहाँ अन्य तहसीलों की अपेक्षा सबसे अधिक 79.60 प्रतिशत आदिवासी रहते हैं.

इलाके में रहने वाले इन आदिवासियों के लिये इलाके का जंगल ही इनकी अपनी दुनिया है. जंगल पर इनकी निर्भरता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि नमक, साबून और तेल के अलावा किसी भी खाद्य सामग्री के लिये इन्हें बाजार का मुंह नहीं देखना पड़ता. गांव के एक बुजुर्ग अपनी भाषा में बताते हैं- हमारी उत्पत्ति और पालन में दो ही तत्वों का महत्व है, पहला प्रकृति और दूसरा पितर.

गुल्लु में प्रस्तावित 24 मेगावाट क्षमता के हाइड्रोइलेक्टिक पावर प्लांट के मूर्त रूप लेने से गुल्लु से लेकर सन्ना तक करीब 30 किमी नदी के किनारे बसे गांव और जमीन हमेशा के लिये डूब जायेंगे. ईब के पानी में आदिवासियों के घरों के साथ ही उनकी खेती-बाड़ी की जमीन और उनकी संस्कृति भी जलमग्न हो जायेगी. नदी के दूसरी ओर का बादलखोल अभयारण भी इस डूब से प्रभावित होगा. हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट के लिये वैसे तो चार गांव की जमीन लेने की बात कहीं जा रही है. पर वास्तव में इसके लिये तकरीबन 381 वर्ग किमी जमीन अधिग्रहित होगी. इसमें 3.299 हेक्टेयर शासकीय, 24.867 हेक्टेयर निजी और 5.105 हेक्टेयर वन भूमि शामिल है. 131 करोड़ की लागत वाले इस पावर प्लांट के बनने से इस इलाके के 22 गांवों में रहने वाले 1476 परिवारों के 9471 आदिवासी सीधे तौर पर प्रभावित होंगे. संरक्षित वन के भीतर रहने वाले दुर्लभ जीव-जंतु बिजली बनाने के इस उपक्रम की भेंट चढ़ेंगे वह अलग.

आदिवासियों के लिये संघर्ष कर रही आदिवासी महिला महासंघ की ममता कुजूर बताती हैं- '' ग्राम सभा में 82 ग्रामीणों को उपस्थित होना बताया गया है, जबकि इनकी संख्या आधी भी नहीं थी. अधिकांश हस्ताक्षर जाली है, जिन्हें पढऩा-लिखना नहीं आता उनका भी हस्ताक्षर रजिस्टर में है. कुछ ग्रामीणों के जबरन हस्ताक्षर भी लिये गये. ग्रामसभा में अधिकारियों ने अपनी मर्जी चलाई और ग्रामीणों को मुआवजे का लालच देने के साथ ही जमीन नहीं देने पर शासकीय योजनाओं का लाभ नहीं देने की बात कहकर उन्हें धमकाया भी. अधिकारियों की बात सुनकर ग्रामीण डर गये और अधिकारियों ने हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट के लिये ग्रामीणों की सहमति होने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. '' ऐसा नहीं है कि आदिवासियों ने अपनी जमीन बचाने के लिये कुछ नहीं किया, वे निरंतर संघर्ष करते रहे हैं. जशपुरनगर आने से डरने वाले आदिवासियों ने राजधानी रायपुर जाकर भी अपना विरोध जताया. सामाजिक कार्यकर्ता और ममता की सहयोगी मालती तिर्की बताती है कि बीते तीन-चार सालों में आदिवासियों ने अपनी जमीन बचाने के लिये कड़ा संघर्ष किया है. ज्ञापन,शिकायत,धरना-प्रदर्शन, रैली इतने हुये कि इन्हें गिनना मुश्किल है.

मूल निवासी मुक्ति मोर्चा के चीफ को-आर्डिनेटर डा. आस्कर एस.तिर्की विस्थापन के विरोध में लगातार आदिवासियों को संगठित करने का कार्य कर रहे हैं. वे कहते हैं कि '' पूरे जशपुर में आदिवासी अपनी जमीन बचाने के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं तो कंपनी के अधिकारी, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी बार-बार उनके पास जाकर जमीन देने दबाव डाल रहे हैं. सीधी सी बात लोगों की समझ में क्यों नहीं आती कि आदिवासियों का जीवन जल,जंगल और जमीन के बिना मुश्किल है. उनका विस्थापन उचित नहीं है. ये सामुदायिक जीवन जीते हैं, आदिवासियों की संस्कृति वहीं फल-फूल सकती है जहां वे मूलत: निवास करते हैं.''

आदिवासियों को इस लड़ाई में आर्थिक समस्याओं का सामना भी करना पड़ रहा है. जंगल पर निर्भर उनकी अर्थव्यवस्था उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देती. ग्रामीण विकास केंद्र की सिस्टर सेवती पन्ना पिछले दस सालों से जशपुर में मानव व्यापार, आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ आवाज उठा रही है. वह कहती है- '' विकल्प शब्द मन में आशा जगाता है पर जिनके पास विकल्प नहीं है वे क्या करें ? 70 वर्षीय दुबाराम अपने जीर्ण हो चुके शरीर को एकबारगी देखता है, फिर कहता है- '' जमीन नईये देब हमें, देबे नई करई, काहे देब. कई पीढ़ी बीत गेला, कईसे देब, पुरखा मनके धरन जमीन, छुआ मन ल छोडक़े कहां जाब, हमें देबे नई करई.''

लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि जिन आदिवासियों के विकास नाम पर छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनाया गया, उस राज्य में विकास का यह कौन सा रूप है?

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