बाबा रामदेव की अनशन वाली सभा पर रामलीला मैदान में रात को पुलिस ने खूब सारी लाठियां बरसाईं। पुलिस जब लाठियां बरसाती हैं तो बेदर्दी से बरसाती है। बेरहमी से पब्लिक का खून बहाती है। खून बह रहा होता है और पुलिस की लाठियां चार्ज हो रही होती हैं। ऐसा सब कहते हैं जबकि लाठियां कोई मोबाइल फोन नहीं हैं जिनमें बैटरी लगी हुई होती हो और उन्हें चार्ज करना जरूरी हो। इसलिए पहले सिरे से ही इस आरोप को हम पुलिसवाले नकारते हैं कि लाठियों को किसी प्रकार भी चार्ज किया गया था। जबकि लाठियों से पिटाई करने से पहले लाठियों को तेल पिलाया जाता रहा है। हमने तो उन्हें तेल की छोडि़ए, दूध पानी तक भी नहीं पिलाया था। जिन लाठियों ने कुछ पिया ही नहीं , वे भला कैसे चार्ज हो सकती थीं। वैसे अगर आप बाबा रामदेव की अनशन सभा को तितर-बितर करने के लिए लाठियां मारने को चार्ज करना कह रहे हैं फिर तो मोबाइल फोन को भी मार मार कर चार्ज किया जा सकता होगा और ऐसा करने का क्या हश्र हो सकता है, आप एक बार मोबाइल को कहीं पर मार कर खुद ही चार्ज करके देख लीजिए। जब मोबाइल फोन ही चार्ज नहीं हो रहे हैं मारने से तो भला लाठियां कैसे चार्ज हो सकती हैं। उसी प्रकार जिस प्रकार पत्थर मारे जाने पर पत्थर चार्ज करना नहीं कहा जाता है। जिन चीजों को चार्जिंग की जरूरत पड़ती है, उसके बारे में तो सारी दुनिया जानती है। दिमाग जरूर चार्ज करना पड़ता है। उसको भी अगर दीवार में या पत्थर पर दे मारें तो जो चार्जिंग बची हुई होगी वो भी डिस्चार्ज हो जाएगी। अगर दिमाग चार्ज नहीं किया जाता होता तो ऐसे नायाब तरीके भला पुलिस को कैसे सूझ सकते थे। जिसके कारिंदों के दिमाग अपने ठेठ गंवारपने के लिए मशहूर हैं।
जहां तक फोटो और वीडियो की बात है वो तो आजकल तकनीक इतनी सक्षम है कि जो नहीं हुआ उसे ऐसे और इतने सारे सबूतों के साथ पेश कर दिया जाता है कि ऑरीजनैलिटी भी शर्मा जाए। यही रामलीला की लीला देखने दिखाने के लिए किया जाता है। वैसे तो समाज में लीला करने के लिए सब लालायित रहते हैं। कितनी प्रकार की लीलाएं हम आप बचपन से देखते सुनते रहते हैं। कभी कृष्ण लीला, कंस लीला, राम लीला, रास लीला, रावण लीला इनमें अगर पुलिस लीला और जुड़ गई तो क्या आफत आ गई। आखिर एक और लोक कला में इजाफा हुआ है। कलाओं की बेहतरी और वृद्धि के लिए तो हम सब लोग और समाज वैसे ही प्रयत्न करते रहते हैं। हमने इसमें थोड़ा सा संशोधन कर दिया तो क्या बुरा कर दिया। इतना हो हल्ला लीलाओं के लिए मचाने की क्या जरूरत है कि सब मचान बांधकर पुलिस के विरोध में तैनात हो गए हैं। जब आपके साथ कुछ होता है तब भी तो आप पुलिस की शरण मे ही आते हो, अगर हमने उस दिन खुदही आपको अपनी शरण में लेना चाहा और आप हमें देखकर ही डरकर त्राहि त्राहि करने लगे।
जहां तक चैनलों की बात है तो वे तो सब कुछ सनसनीखेज बनाकर परोसने के लिए सदा तैयार रहते हैं। तो यह सब करामात अगर मीडिया ने कर ही दी तो क्या हुआ, आप इतने बेचैन क्यों हो रहे हैं।
फिर लीला ही तो की है बाबा को लील तो नहीं लिया है हमने। जबकि बाबा खुद ही भ्रष्टाचार को लीलने के लिए नौ दिन से खाना पीना छोड़ रखे थे। कोशिश ही तो की थी पर लील तो एकाध को ही पाए हैं पर आप इस तरह चिल्लाए हैं कि मानो पुलिस ने लीला करके सारी कायनात ही लील ली हो।
लाठीचार्ज की बात बेमानी है। वैसे भी बाबा भड़का रहे थे। यह कैसे साबित हो सकता है कि सोते हुए लोग भड़क नहीं सकते। सोते हुए लोग तो सबसे अधिक खतरनाक होते हैं। जो बोलते नहीं, उनसे सबको भय लगता है। सोते हुए लोगों पर बल प्रयोग करके पुलिस ने अपनी उद्यमशीलता का परिचय दिया है। कहा भी गया है कि एक चुप्पी का मुकाबला करना आसान नहीं है तो हमने सोते हुए चुप लोगों का मुकाबला करके कितना बड़ा तीर मारा है, इसे आप कैसे महसूस कर पायेंगे। वैसे भी पुलिस जोखिम वाले कार्य ही करती है, उसे मालूम था कि इस कार्रवाई पर उसे जरूर जवाबदेही का सामना करना पड़ेगा लेकिन हम तनिक चिंतित नहीं हए हैं और हमने पूरा जोखिम लिया है। हमें पुरस्कार देना तो दूर की बात, सीधी नजरों से भी नहीं देख रहे हैं आप आम लोग।
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