Friday, July 15, 2011

गांधी टोपी से सधती गांधी शिक्षा की राह


सुषमा सिंह/ नरसिंगपुर (मध्य प्रदेश)

रोटी, कपड़े और मकान की तरह ही आज शिक्षा व्यक्ति की मूल जरुरत बन गई है। शिक्षा की परंपरा हमारे देश में प्राचीन काल से ही चली आ रही है। नालंदा जैसे गुरूकुल की परंपरा भी भारत में ही रही। लेकिन आज बदलती दुनिया के साथ शिक्षा में क्या बदलाव आया है? सरकारी और गैर सरकारी तौर पर खुलते स्कूलों में शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है और अभिभावकों की परेशानी बढ़ती जा रही है। शहरों से लेकर गांव तक विभिन्न प्रकार की समस्या शिक्षा के क्षेत्र में आ रही है। कभी दाखिले को लेकर तो कभी पढ़ाई के खराब स्तर को लेकर।

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अंग्रजों के समय से चला आ रहा प्रदेश का एकमात्र अनोखा विद्यालय सिंहपुर में स्थित है। इस विद्यालय की स्थापना काल 1868 से ही बच्चे स्कूल गांधी टोपी लगाकर जाते हैं। विगत 143 साल से यह परंपरा चली आ रही है और आज भी कायम है। इस स्कूल का नाम शासकीय उत्तर बुनियादी शाला है, जो गांधी टोपीवाले स्कूल के नाम से प्रख्यात है। स्कूल की स्थपना के बाद से ही पढ़ाई करने वाले छात्रों को टोपी पहन कर आना अनिवार्य किया गया था। टोपी लगाना कभी इनकी मजबूरी नहीं रहीं। यहां सिंहपुर के अलावा आस-पास के दर्जनों गांव की तीन पीढ़ियों तक ने अध्ययन किया है। अब तो कई बच्चे ऐसे हैं जो अपने पिता, दादा और परदादा के पढ़ने वाले इस स्कूल में अध्यनरत है। प्राथमिक माध्यमिक स्तर तक की कक्षा वाले इस स्कूल में लगभग 198 छात्र व 08 शिक्षक है जबकि 2004 में 350 के करीब छात्र और 13 शिक्षक थे। कुछ शिक्षक इसी विद्यालय में पढ़े और अब नई पीढ़ी को सही शिक्षित कर रहे हैं। इस स्कूल की खासियत यह है कि 21.7.1869 से लेकर आज तक के पूरे रिकार्ड को भी संजो कर रखा गया है।

शैक्षणिक गुणवत्ता के मामले में भी इस विद्यालय पीछे नहीं रहा। यहां अध्ययन करने वालों छात्रों ने शिक्षा, चिकित्सा, प्रबंधन, कंप्यूटर इत्यादि के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए हैं। यही से पढ़े शिवकुमार महाजन इंग्लैंड में चिकित्सक है, तो विश्वम्भर दलाल सोनी कोल डिपो में उंचे ओहदे पर कार्यरत है। इनके अलावा भी अन्य छात्र आज इस सरकारी स्कूल का नाम ऊँचा कर रहे हैं। यह एक ऐसा विद्यालय भी है, जहां के अपने कर्तव्यों व दायित्वों के कारण समय-समय पर राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित हुए हैं। शेख नियाज मोहम्मद को सन् 1963 में राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के द्वारा पुरस्कृत किया गया। सन् 91-92 में ही देवलाल बुनकर व 95-96 में चौधरी नरेन्द्र कुमार शर्मा भी राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हुए। बच्चों और उनके अभिभावकों को लगता है कि टोपी पहनने से बच्चों में अनुशासन की भावना आती है। वह ऐसा महसूस करते हैं कि टोपी पहनने के बाद विद्यार्थी की रुचि पढ़ाई-लिखाई की ओर मुड़ जाती है। राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त सेवानिवृत शिक्षक महेशचन्द्र शर्मा अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं कि उन्हें याद है जब सन् 1948 में महात्मा गांधी के वर्धा आश्रम की शुरूआत हुई थी और बुनियादी शालाओं में सूत कातना, गलीचा बनना शुरू हुआ था। तब उन्होंने इस विद्यालय में टोपी पहनने की परंपरा को और सुदृढ़ बनाया। वह एक संस्मरण सुनाते हुए कहते हैं कि सन् 1968-69 me शिक्षा विभाग के एक अधिकारी ने एम.डी. चौबे इस बात पर अड़ गए कि उनका बालक देवेन्द्र टोपी पहनकर स्कूल नहीं जाएगा, तब उन्होंने उसके पिता से अनुरोध किया कि आप बालक देवेन्द्र को कल से स्कूल न भेंजे। यदि आप विद्यालय की परंपराओं का पालन नहीं करेंगे, तो छात्र के लिए स्कूल में जगह नहीं है।

इसी स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापक लेख राम दूबे का कहना है कि बुनियादी शाला गांधीवादी सिद्धांत पर आधारित है। पहले यहां गांधीवादी नीतियां थी। लकिन अब सरकारी नीतियां लागू हो गई है। गार्डनिंग, दरी-गलीचे, चाक आदि बनाने के लिए पहले पैकेज भी मिला करते रहें। अब सारी सुविधाएं बंद कर दी गई है। 2-3 एकड़ के खेतों में काम किया करते थे। लखनादउ, अमरबाड़ा में भी इस प्रकार की बुनियादी शालाएं बनीं। वह अब नाम के लिए ही बची है, टोपी का तो वहां कुछ लेना देना है नहीं और कुछ भी नहीं बचा है। सिंहपुर बुनियादी शाला में टीचर भी कम है। 5 प्राइमरी टीचर और 3 मिडिल स्कूल में हैं।

मिडिल स्कूल तक की इस शाला के हेड मास्टर आई.पी. सोनी है जो नवम्बर में सेवा निवृत भी हो जाएगे। उनका कहना है कि यहां की इमारते भी अग्रेंजो द्वारा ही बनवाई गई है। उन्होंने 1955 से 64 तक इसी स्कूल में पढ़ाई की है। वह भी टोपी लगाकर स्कूल जाते रहे। उनके रिकार्ड के अनुसार पूरे स्कूल में मात्र 2 बच्चें सामान्य से और बाकि सभी पिछड़ी जाति के हैं। यहां पहले से बच्चे कम हुए है, इसका कारण यही है कि हर 1 किलोमीटर पर प्राइमरी और हर तीन किलोमीटर पर मिडिल स्कूल पर खोला जा रहा है। कंप्यूटर के लिए टेक्निकल टीचर नहीं है। 6 कंप्यूटर स्कूल में पड़े खराब हो रहे है। उसमें सरकारी तौर पर रेड हैट इन्सटॉल किया गया। जो किसी के पल्ले नहीं पड़ता। वहां के अन्य शिक्षकों को इसके बारे में तनिक भी जानकारी नहीं है। जिसे सरकारी तौर पर प्रशिक्षित किया गया। उनका तबादला कर दिया गया। मध्यान भोजन से भी कोई खास लाभ नहीं है। उनके अभिभावक सहयोग नहीं करते। ऐसी स्थिति में एबीएल स्कीम का आना कितना सार्थक हो सकता है। जरूरी यह नहीं है कि बस्ता लाए या न लाए। मूल बात यह होनी चाहिए कि पढ़ाई का स्तर क्या हो, बच्चा वहां से बाहर निकल कर कितना कामयाब होता है। प्रोत्साहन के तौर स्कीम चलाने से ज्यादा आवश्यक उन्हें सही रूप में लागू करना है। बच्चे अब अपने समय का सदुपयोग नहीं कर पाते। हर साल ट्रेनिंग में पढ़ाने की पद्धति बदलते रहना कारगर नहीं हो रहा है। टोपी के बारे में बताते हुए कहते हैं कि पंजाब में पगड़ी और गुजरात-राजस्थान में साफा जैसे ही बुनियादी शाला की टोपी का महत्व है। आई.पी. सोनी ने सरकारी शाला की खराब हालत को बया करते हुए कहा कि शिक्षा का स्तर उठाना है तो पुरानी शिक्षा पद्धति को साथ लेकर काम करना होगा।

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