Tuesday, March 15, 2011

खत्म होती चुनार चीनी मिट्टी की खुशबू



सुषमा सिंह / चुनार

वाराणसी से चालीस किलोमीटर दूर गंगा तट पर बसे चुनार में चीनी मिट्टी जैसे उद्योग 1948 से ही स्थापित हो चुके थे. वहां का एड़ी के आकार कुतुबुद्दीन ऐबक के समय का बना चुनार का किला भी इन्हीं शिल्पकारों द्वारा तैयार किया गया था जो गंगा किनारे की मिट्टी का उपयोग विभिन्न प्रकार की आकृतियां, खिलौने, प्लेट आदि बनाने में करते रहें. इनके कारीगरी की अलग पहचान इनकी चमकदार ग्लासी फिनिशिंग से हैं जो चावल उगाने वाले मैदानों के से बने अनोखे पावडर (कबिज) से आती है . चीनी मिट्टी के बने बर्तनों, खिलौनों आदि को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने के लिए 1952 में सरकार ने 'राजकीय चीनी पात्र प्राधिकरण' की स्थापना की जिसका मूल उद्देश यहां के लोगों को कान देने के साथ इस प्राचीन कला को विकसित करना भी था.
दुर्भाग्य ही है कि आज 1990 के खुले बाजार नीति के आने के बाद से चीनी मिट्टी अपनी पहचान खोटी जा रही है. इसकी जगह पर बाजार में दूसरी वस्तुओं से बने आकर्षक बर्तन, खिलौने सामने आने लगे हैं जो कम लागत में तैयार किये जाते हैं. चुनार कि बात करे तो वहां चार प्रकार से इन वस्तुओं को तैयार किया जाता है. चीनी मिट्टी, लाल मिट्टी, बोन चाइना और प्लास्टर आफ पेरिस. आज कि स्थिति का जायजा लेने पर पता चलता है कि सबसे ज्यादा लगभग 200 यूनिट प्लास्टर आफ पेरिस के, तीन यूनिट बोन चाइना के 8 -10 यूनिट चीनी मिट्टी और लाल मिट्टी के हैं. जो स्वतंत्र रूप से कार्यरत है. 50 यूनिट इन सभी को मिला कर केंद्र द्वारा चलाए जाते हैं. उसमें अगर चीनी मिट्टी कि बात करें तो केवल एक हीरालाल पाटरी बचा हुआ है , यहां भी प्लास्टर आफ पेरिस का काम ज्यादा होता है.
राजकीय चीनी मिट्टी पात्र विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष एवं हीरालाल पाटरी के मालिक आनंद प्रसाद अग्रवाल से हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि अब चीनी मिट्टी का काम बहुत ही खराब चल रहा है, उसकी स्थिति अच्छी नहीं है. उसे तैयार करने में खर्च ज्यादा आता है. 75 प्रतिशत माल खुर्जा से आता है और बिकता है चुनार के नाम पर. हमारे व्यापार के लिए किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं है. मौसम के समय ग्राहक आते हैं और वहीं मोल भाव होता है. हमें किसी बाजार में नहीं जाना होता है. जबकि एक अन्य पाटरी के मालिक मुनोवर बताते हैं कि इसका निर्यात मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार तक सीमित है. पहले उनके यहां चीनी मिट्टी का काम होता था लेकिन अब प्लास्टर आफ पेरिस का होता है क्योंकि इसमें कम लागत में ज्यादा फायदा होता है और उन्हें कोई परेशानी भी नहीं है. यहां मजदूर बिहार से आते हैं. यहां पर काम करने वाले मजदूरों से हुई बातचीत में उनका कहना था कि यह उद्योग उनके रोजगार का साधन था, परिवार के सदस्यों द्वारा भी इसे चलाया जाता रहा. लेकिन अब इसका बाजार ठंडा पड़ गया है.
इसके विपरित विकास प्राधिकरण के आध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष अखिल जोशी का कहना है कि उन्होंने इस कला को पुनः जीवित करने के प्रयास में सरकार को एक प्रोजेक्ट दिया है. डीजल भट्टी लगवाने के लिए इस प्रोजेक्ट में 60 लाख का बजट आ रहा है. योजना के तहत प्राधिकरण की अपनी जमीन होनी चाहिए. लेकिन जहां अभी काम होता है वह जमीन राज्य सरकार की है. इस वजह से चीनी मिट्टी यूनिट की साख राज्य एवं केंद्र सरकार के विवाद के बीच में तीन साल से अटकी हुई है. इस बीच बोन चाइना और प्लास्टर आफ पेरिस ने चीनी मिट्टी के काम को बुरी तरह डूबा कर रख दिया है. क्योंकि चुनार में यह काम कोयले के फर्नेस से होते हैं जबकि खुर्जा में डीजल फर्नेस है. कोयले की कीमत पिछले कुछ वर्षों में काफी बड़ी है, जिससे लगत बड़ जाती है. इनका कच्चा माल मध्य प्रदेश, बंगाल, बिकानेर से आता है.
चीनी मिट्टी के काम को फिर से जीवित करने की चाहत रखने वाले लोग लघु उद्योग संस्थान नैनी और वाराणसी के बीच ही फंसे पड़े हैं. न ही कोई उनकी मदद करता है उ ही उन्हें कोई उपाय नज़र आता है. एक समय था जब यहां की कारीगरी, उनके फिनिसिंग दूर-दराज तक भारत की अदभूत कला के रूप में अपना पर्चम लहराए हुए थे. आज उसी कला का गला घोंटा जा रहा है. कुछ समय पहले सरकार ने इससे संबंधित शोध करवाया था, जिसमें साड़ी बाते साफ थी. क्लस्टर योजना के तहत चुनार में ट्रेनिंग दी गई, एक्सपर्ट की मीटिंग भी हुई. सब कुछ के बावजूद इस विलुप्त होती कला को बचाने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किया जा रहा है. मूल जरुरत के अनुसार सबसे पहले इन्हें डीजल फर्नेस की आवश्यकता है, जो इन्हें उपलब्ध नहीं कराया जा रहा है. इनके लिए न कोई पुरस्कार प्रोत्साहन है उ कोई स्कीम. जिसके तहत यह उद्योग फिर से जीवित हो उठे. इस उद्योग में ज्यादा परेशानी कच्चे माल, फर्नेस, बाजार, उचित जानकारी का आभाव, आर्थिक कमी है. इसके लिए तकनीक को बढाने, अपने नेटवर्क को फैलाने, कुछ स्वं सेवी संस्थानों को आगे आने के साथ ही सरकार की तरफ से नियमों में कुछ ढिलों की जरूरत है.

3 comments:

  1. जानकारीवर्द्धक पोस्ट, आभार सहित.

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    उन्नति के मार्ग में बाधक महारोग - क्या कहेंगे लोग ?

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