Friday, March 4, 2011

भोजन गारंटी से पल्ला झाड़ने की तैयारी

  • अजय प्रकाश


गरीबों तक अन्न पहंुचा पाने में असफल रही सरकारों को लगता है कि वह अब जनवितरण प्रणाली (पीडीएस) के उपभोक्ताओं को अन्न की जगह धन देकर भुखमरी और कुपोषण से निजात दिला पाने में सफल होंगी। इसके लिए सरकार ने फिलहाल पीडीएस के तहत अन्न देने की जगह पैसे का प्रयोग दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पॉयलट योजना के तौर पर शुरू कर दिया है।


पीडीएस के लिए जिम्मेदार केंद्रीय उपभोक्ता, खाद्य और जनवितरण मंत्रालय के विचार में इस योजना में जारी भ्रष्टाचार और कालाबाजारी से निजात पाना संभव नहीं है। उचित मुल्य की दुकानों पर अनाज के वितरण, गलत लोगों के पास कार्ड, दुकान पर पहुंचने से पहले ही बाजार में बेच दिया जाना और इससे भी बढ़कर खाद्य निगमों के गोदामों से ही गरीबों के लिए आवंटित अनाज का तस्करी कर दिया जाना आदि कुछ ऐसे मामले हैं जिसका कोई स्थाई समाधान केंद्र और राज्य सरकारें अबतक नहीं दे पा रही हैं। मगर सवाल है कि भ्रष्टाचार और अनियमितताओं से निपट न पाने का खामियाजा वह लोग क्यों भुगतें जो इसके लिए जिम्मेदार ही नहीं हैं। ऐसे में गरीबों की जेब में कुछ नोट रख भोजन गारंटी से पल्ला झाड़ने की इसे सरकारी साजिश न कहा जाये तो और क्या कहा जाये। अगर जनवितरण प्रणाली के तहत दिये जाने वाले अन्न को पैसे के रूप में तब्दील कर दिया गया तो कई खतरे होंगे, जो न सिर्फ गरीबों की तबाही को और बढ़ायेंगे बल्कि परिवारों को तोड़ेंगे और कलह का कारण बनेंगे। इस वर्ग के लाभार्थियों की बड़ी संख्या कर्जदार होती है। पैसा हाथ में आते ही कर्जदाता उनसे पैसा देने के लिए मजबूर करेंगे और पैसा नशा सेवन, दवा या रिश्तेदारियों में भी खर्च हो सकता है। दूसरी बात बढ़ती महंगाई के दौर में बाजार मुल्य पर खाद्यान्न खरीदना भुखमरी को ही बढ़ायेगा। तीसरी दिक्कत है बैंक के माध्यम से पैसा खाते में आयेगा। देहात से पैसा लेने आना, नौकरशाही का पैंतरा आदि के कारण वहां भी कमीशन खोरों का समानांतर ढांचा विकसित होगा। चौथा खतरा होगा मर्दों के हाथ में पैसे का आने का जबकि खाना बनाने और उसका प्रबंध करने की जिम्मेदारी आमतौर पर औरतों पर होती है। सबसे महत्वपूर्ण बात पंाचवी कि पैसा देने के बाद सरकारें खाद्य सुरक्षा की गारंटी से मंूह मोड़ लेंगी जो कि राज्य का प्राथमिक दायित्व है।

राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य ज्यां द्रेज की राय में सीसीटी का प्रयोग यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर(यूआइडी) यानी आधार योजना का ही हिस्सा है। पहले यूआइडी और अब अगली बेतुकी योजना सीसीटी को सरकार लागू करती है तो यह लाभ उन्हीं को मिलेगा जिनका यूआइडी कार्ड होगा। सीसीटी शब्द यूआइडी प्रमुख नंदन निलेकणी की पुस्तक ‘इमैंजिंग इंडिया’ से ही उधार है।’ सरकार ने यूआइडी प्रमुख नंदन निलेकणी के नेतृत्व में पीडीएस के तहत वितरित होने वाले मिट्टी तेल में व्याप्त भ्रष्टाचार के मद्देनजर टॉस्क फोर्स गठित कर ज्यां द्रेज के संदेह को और अधिक पुख्ता कर दिया है। अब नंदन निलेकणी की टीम बतायेगी कि जरूरत मंदो की यूआइडी कार्ड बनना ही पीडीएस में जारी भ्रष्टाचार को रोकने का जादुई विकल्प होगा। पीडीएस में अन्न देने की योजनाओं के बदले पैसे दिये जायें की मांग सबसे पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से उठी। नीतीश कुमार की मांग की भूमिका में बिहार में लड़कियों के लिए साइकिल योजना की 98 फीसदी सफल रहने का वह दावा रहा जिसमें सरकार ने साइकिल नहीं बल्कि 2 हजार रूपये का भुगतान किया था। नीतीश कुमार के मुताबिक, ‘अगर सीधे साइकिल दी गयी होती तो यह योजना ‘साइकिल स्कैम’ के नाम से ख्यात होती। हालांकि योजना आयोग के सदस्य प्रोफेसर अभिजित सेन ने बिहार सरकार की इस मांग पर कहते ‘इसकी क्या गारंटी है कि जो पैसा जायेगा उसके बदले शराब नहीं खरीदी जायेगी।’ बहरहाल, पॉयलट प्रोजेक्ट उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी और हरदोई जिले, हरियाणा में जझ्झर और पंजकुला, दिल्ली के उत्तर पश्चिमी और पूर्वी दिल्ली के एक-एक सर्कल में सरकार ने शुरू कर दिया है। यह प्रयोग सेवा नाम के एक गैर सरकारी संगठन की रिपोर्ट के आधार पर शुरू किया है। सेवा ने अक्टूबर 2009 में दिल्ली के तीन क्षेत्रों राजीव नगर, सुंदर नगर और रघुबीर नगर के 150 लोगों से किये सर्वे किया था जिसमें करीब 60 प्रतिशत लाभार्थियों ने राशन के बदले पैसे की मांग को लेकर सहमति जाहिर की थी। सवाल उठता है कि मात्र 150 लोगों के सर्वे के आधार पर दुनिया की सबसे बड़ी पीडीएस प्रणाली के तरीके को बदलना क्या उचित है।

मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल का दो टूक मानना है कि यह सिर्फ अन्न वितरण की ही योजना नहीं है बल्कि इसके जरिये किसानों के अनाजों का न्यूनतम मुल्य भी निर्धारित होता है। इसके बंद होते ही सरकार न्यूनतम मुल्य देने के बंधन से भी किनारा कस लेगी क्योंकि सरकार को फिर अन्न खरीद कर वितरित करने की मजबूरी नहीं रहेगी। मूलरूप से यह खाद्य निगमों के नीजिकरण और खाद्य सुरक्षा से पल्ला झाडने का बहाना है। इसका एक उदाहरण दुनिया की सबसे बड़ी झुग्गी-बस्तियों में एक धारावी का है जहां सरकार को मात्र 159 परिवार ही गरीबी रेखा से नीचे मिले हैं।

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