-राजेन्द्र बंधु
महाराष्ट्र में सावित्रीबाई फुले ने जब लड़कियों का पहला स्कूल खोला तो लोगों ने उसका घोर विरोध किया था। विरोध इतना तीव्र था कि जब वे लड़कियों पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थीं तो उन पर कीचड़ फेंका जाता था। इससे जाहिर है कि पारंपरिक समाज कभी भी लड़कियों की आजादी और विकास के पक्ष में नहीं रहा है। उन्हें शिक्षा, सम्पत्ति, रोजगार जैसे मामलों में उन्हें शुरू से ही वंचित रखा गया है। घर-परिवार से लेकर समाज और राजनीति तक बेटियों को विकास के अवसरों से वंचित रखने की परंपरा समाज में सदियों से चली आ रही है। इस जटिल परिस्थिति में जब परंपराओं को चुनौती देने के लिए लड़कियां आगे आती है तो एक नए सामाजिक बदलाव की संभावना उजागर होती है। मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र की देवास शहर की लड़कियों पिछले दिन इसी तरह के कुछ साहसिक कदम उठाए।
चार महीने पहले देवास की ही मोनिका ने दहेज मांगने वाले दूल्हे को बैरंग वापस लौटा दिया। दूल्हा जज के पद पर था और दहेज न दिए जाने के कारण लड़ाई पर आतुर हो गया था। यह मोनिका का साहस था कि उसने घर की दहलीज से बारात वापस लौटा दी और पुलिस में उसकी शिकायत दर्ज करवाई। नतीजतन लालची दूल्हे को जज का पद गंवाना पड़ा।
देवास में इस वर्ष फरवरी-मार्च माह में घटित तीन अन्य घटनाओं में यहां की लड़कियों ने अपने परिजनो के अंतिम संस्कार में शामिल होकर सदियों पुरानी पंरपराओं को तोड़ने का साहस दिखाया। यहां की तीन बहादूर लड़कियां मोनाली, सोनाली और नैनो ने 21 फरवरी को अपने पिता स्व. कृष्णकान्त के दुखद निधन पर अंतिम यात्रा में शामिल होकर अंतिम संस्कार की वे सभी रस्में पूरी की जो सिर्फ बेटों के लिए ही सुरक्षित मानी जाती हैं। स्पष्ट है कि स्व. कृष्णकांत का कोई बेटा नहीं है। सोनाली कहती है ‘‘हमें कभी ऐसा लगा ही नहीं कि परिवार में लड़का होना भी जरूरी है। समाज में लड़के-लड़कियों को अब एक समान समझा जाना चाहिए। लड़कियां किसी भी दृष्टि से कमजोर नहीं है और वे वह सभी काम कर सकती है जो अब तक सिर्फ लड़कों द्वारा किए जाते रहे हैं।’’ सोनाली और नैनो इन्दौर के एक कॉलेज से बिजनेस एटमिनिस्ट्रेशन में स्नातक की पढ़ाई कर रही है वहीं मोनाली नौवी कक्षा की छात्रा है।
इसी तरह 6 मार्च को देवास की अंकिता, ऋचा और आकांक्षा ने अपने पिता स्व. राजीव शुक्ला के निधन पर अंतिम यात्रा में शामिल होकर मुखाग्नि दी। अंकिता इंजीनियरिंग और ऋचा चार्टड एकांउटंट की पढ़ाई कर रही है वहीं आकांक्षा हाईस्कूल में अध्ययनरत् है। 13 मार्च को देवास की सुधा, शारदा, तारा और प्रेमकुंअर अपनी 97 वर्षीय मां की शव यात्रा में शामिल हुई। उल्लेखनीय यह है कि ये चारों बेटियां विवाहित है। बेटियों को पराया धन समझने वाले पारंपरिक समाज में विवाहित बेटियों द्वारा मां का अंतिम संस्कार किया जाना एक बदलावकारी घटना है।
मध्यप्रदेश के देवास शहर में घटित ये घटनाएं किसी संस्कार को पूरा करने तक सीमित नहीं है, बल्कि ये समाज को एक नया रास्ता भी दिखा रही है। स्पष्ट है कि पिछले कुछ सालों में देश के अन्य राज्यों की तरह मध्यप्रदेश में भी महिलाओं की आबादी में चिंताजनक कमी आई है। नई जनगणना के आंकड़ों में अनुमान लगाया जा रहा है कि प्रदेश में 1000 पुरूषों पर महिलाओं की संख्या 913 रह गई है। जबकि वर्ष 2001 में यह संख्या 936 थीं। प्रदेश में चम्बल एवं बुंदेलखण्ड क्षेत्र में तो यह आकाड़ा और भी कम है। कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराध के चलते अब प्रदेश के मालवा क्षेत्र में भी बालिकाओं की संख्या कम हो रही है। देवास जिले में स्त्री-पुरूष अनुपात में जिस गति से गिरावट आ रही है, वह हमारी विकास नीति और विकास की अवधारणा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। क्योंकि सर्वाधिक विकसित माने जाने वाले कस्बों व गांवों में महिलाओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है। जिले के मध्य नर्मदा क्षेत्र में स्थित खातेगांव नामक कस्बे की आर्थिक वृद्धि दर जिले के अन्य सभी कस्बों से सर्वाधिक है। इस क्षेत्र की आर्थिक सम्पन्नता का आंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां के 167 गांवो के बीच के स्थित कृषि उपज मण्डी द्वारा हर वर्ष दो करोड़ से ज्यादा की फसल क्रय की जाती है। यहां के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को भी तरक्की का पैमाना माना गया है। किन्तु तरक्की की इस तस्वीर का दूसरा पहलू अत्यन्त निराशाजनक है। इस क्षेत्र में महिलाओं की संख्या पूरे प्रदेश के औसत से कम है। सन् 1981 के जनगणना आंकाड़ों के मुताबिक देवास जिले के खातेगांव नामक कस्बे में 1000 पुरूषों पर 890 महिलाएं थीं, जो सन् 1991 में घटकर 879 हो गई और अब यह संख्या 870 तक सिमट गई हैं। महिलाओं की घटती तादाद की यदि यही गति कायम रही तो आने वाले समय में उनकी तादाद 850 तक हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
समाज में दिखाई देने वाले तमाम संकेतको और तथ्यों से यह बात साफ है कि समाज ने बेटियों को विकास की परिभाषा से ही अलग रखा गया है। ताजा जनगणना के अनुसार अब देश में प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या मात्र 927 के घटर 914 रह गई है। यानी अब बेटियों के पैदा होने का अधिकार भी छीना जा रहा है। शिक्षा के मामले में देश में जहां लड़कों की साक्षरता दर 73 प्रतिशत है वहीं लड़कियों की साक्षरता मात्र 48 प्रतिशत तक सिमटी हुई है। देश में साक्षरता और शिक्षा के ज्यादातर प्रयास लड़कों या पुरूषों पर ही केन्द्रित रहे हैं। शिक्षा के मामले में लड़कियों को पीछे रखे जाने की पंरपरा कोई नई नहीं है। आजाद भारत में साठ के दशक से पहले लड़कियों के गणित और विज्ञान की शिक्षा भी जरूरी नहीं मानी गई थीं। उस समय लड़कियां को गणित और विज्ञान विषयों के साथ कॉलेजों में प्रवेश तक नहीं दिया जाता है। सन् 1964-66 में नेशनल कमीशन ऑन एजुकेशन की रिपोर्ट की अनुशंसा के बाद ही गणित और विज्ञान की शिक्षा के दरबाजे लड़कियों के लिए खोले गए। किन्तु यह जरूरी नहीं कि सरकारी प्रावधानों के पारित हो जाने के विकास के अवसर सुनिश्चित हो जाए। यह बात इस तथ्य से भी साबित की जा सकती है कि सन् 2010 में बारहवी कक्षा में 75 प्रतिशत लड़कों की तुलना में 85 प्रतिशत से ज्यादा लड़कियां उत्तीर्ण हुई थीं। किन्तु यूपीएससी की परीक्षा में चयनित 857 प्रत्याशियों में से महिलाओं की संख्या सिर्फ 195 थी। यानी शिक्षा के अवसर भी यदि लड़कियों को दिए गए है तो वे पुरूष प्रधान समाज की दायरे में और पुरूष प्रधान समाज के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए!
इससे यह बात साफ है कि चांद और मंगल पर पहुंचने वाला समाज अभी भी बेटियों को बोझ मान रहा है। देवास की बेटियों ने लड़कियो को कमतर और कमजोर समझने वाली मान्यताओं को तोड़ने का साहस दिखाया है। उन्होंने यह साबित किया है कि विरासत सिर्फ लड़कों से ही नहीं चलती, बेटियों की भी उसमें बराबरी की हिस्सेदारी है।
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