Tuesday, May 3, 2011

साख का कारवां

अन्ना का आंदोलन : मंजिल अभी दूर है

उमेश चतुर्वेदी

दिल्ली के जंतर-मंतर पर तमाम तरह की वाजिब-गैर वाजिब मांगों, अनाचार-अत्याचार के विरोध आदि को लेकर ना जाने कितने धरने-प्रदर्शन हुए होंगे। लेकिन पांच अप्रैल को शुरू हुए महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के रालेगण सिद्धि के संत अन्ना हजारे का अनशन और धरना बाकी धरनों से अलग था। मौजूदा दौर में राजनीति और सिनेमा- दो ही ऐसी विधाएं हैं, जिनमें सक्रिय लोगों की जनता के बीच पूछ और परख ज्यादा रही है। राजनीति को लाख गाली दी जाए, राजनेता चाहे जितने भी बदनाम हों, लेकिन सिनेमा संस्कृति के अलावा उनकी ही कौम है, जिसे जनता पूछती-परखती है। इन अर्थों में अन्ना कहीं नहीं टिकते। ना तो राजनीति से उनका सीधे-सीधे साबका है, न ही सिनेमा जैसी प्रदर्शनकारी कला या क्रिकेट जैसे गगनचुंबी लोकप्रियता वाले खेल से वे जुटे हुए हैं। लेकिन पांच अप्रैल को संसद और राष्ट्रपति भवन से महज दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित जंतर-मंतर पर वे धरने पर बैठे तो यही माना जा रहा था कि उनके भी धरने की तासीर कुछ वैसी ही होगी, जैसी दूसरे धरनों की होती रही है। लेकिन जैसे-जैसे तारीख बढ़ती गई, मासूम मुस्कान वाले अन्ना की छवि महाराष्ट्र की सीमाओं को पार करके देश व्यापी होती गई और चौथे दिन जब राजधानी में उनके इर्द-गिर्द भीड़ जुटी तो सत्ता तंत्र का चौंकना स्वाभाविक था। हैरत की बात तो सबसे ज्यादा यह थी कि अन्ना के धरने में उन प्रदर्शनकारी कलाओं के लोग भी जुटते गए, जो खुद भीड़ बटोरू रहे हैं। फिल्म से लेकर भारतीय कारपोरेट जगत के साथ राजनीति की कौम भी उनके साथ आने लगी।

हालात कुछ वैसे ही थे, जैसे 1977 में जेपी की रामलीला मैदान की रैली से पहले थे। आपातकाल के बाद रामलीला मैदान की रैली में लाखों लोगों के जुटने की उम्मीद खुद जयप्रकाश नारायण को भी नहीं थी। लेकिन 11 बजते-बजते गांधी शांति प्रतिष्ठान में ठहरे जेपी को यह खबर मिली की राजधानी दिल्ली आ रहे हर रास्ते पर भीड़ ही भीड़ है और उस भीड़ के उद्देश्य रामलीला मैदान पहुंचना है तो सहसा उन्हें भरोसा ही नहीं हुआ। रामलीला मैदान पहुंचे जेपी ने जब लोगों को आसपास की इमारतों पर चढ़े देखा तो पहली बार लगा कि इंदिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ लोगों में काफी गुस्सा है। तब जाकर पहली बार जेपी को लगा कि इंदिरा गांधी की सर्वशक्तिमान सरकार को बदला जा सकता है। जंतरमंतर पर अपने अनशन के बारे में लोगों के इतने भारी समर्थन की उम्मीद खुद अन्ना हजारे को भी नहीं थी। खुद भी वे इसे स्वीकार कर चुके हैं। लेकिन आठ अप्रैल को जब जंतर-मंतर पर ही पचास हजार लोग पहुंच गए तो अन्ना को भरोसा हो गया कि अब सरकार को झुकना ही पड़ेगा और सरकार को झुकना पड़ा।

अन्ना के अनशन और उसे लोगों से मिले समर्थन ने कई सारी स्थापनाएं की हैं तो कई हैरत अंगेज सवाल उठाने के मौके दिए हैं। 2009 के आम चुनावों से ही भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों के बीच आवाज उठा रही है। स्विस बैंक में जमा 72 लाख करोड़ की रकम वापस लाने का दावा हो या फिर काले धन का मसला, भारतीय जनता पार्टी उठाती रही है। लेकिन ना तो उसे चुनावी मैदान में समर्थन मिला और न ही उसके धरने-प्रदर्शनों में लोग जुटे। लेकिन अन्ना की आवाज पढ़े-लिखे से लेकर अनपढ़ तक सब जगह सुनी गई। यह सवाल लोगों को आज मथ रहा है। अपनी मोटी बुद्धि को यही समझ में आता है कि चूंकि अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की अपनी साख बनाई है। महाराष्ट्र में उनके आंदोलन के चलते कई मंत्रियों को अपना मंत्री पद गंवाना पड़ा। एक बार विलासराव देशमुख सरकार गिरते-गिरते बची। आज के दौर में भ्रष्टाचार के मामले उठाने या उन्हें टालने के पीछे शुद्ध भ्रष्टाचार विरोधी मकसद काम नहीं करते, बल्कि दूसरे मकसद काम करते हैं। कई बार भ्रष्टाचारियों को ब्लैकमेल भी किया जाता है, राजनीतिक पार्टियों की तो आदत ही हो गई है सुविधानुसार भ्रष्टाचार का विरोध करना। चूंकि भारतीय जनता पार्टी के एक कद्दावर नेता बी एस येदुयुरप्पा खुद भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी चाहे जानबूझकर या फिर अनजाने में उन्हें नहीं हटा रही है, इससे भ्रष्टाचार को लेकर भारतीय जनता पार्टी की लड़ाई को जनता गंभीरता से नहीं ले रही है। लेकिन अन्ना का साख के अलावा चूंकि कुछ भी दांव पर नहीं है और उनके अनशन और धरने का दूसरा कोई और मकसद भी नहीं है, लिहाजा उनकी आवाज पर लोगों ने भरोसा किया है।

उदारीकरण का सबसे बड़ा संकट माना जा रहा है कि उसने लोगों – खासकर नई पीढ़ी को सुविधाभोगी और संघर्ष की मानसिकता से उदासीन बनाया है। नई पीढ़ी पर दूसरा बड़ा आरोप कैरियरिस्ट होने का भी है। एक हद तक यह सच भी है। लेकिन अन्ना के आंदोलन और उसमें अलीगढ़, बनारस, इलाहाबाद के युवाओं की शिरकत, खाए-पिए घरों के नौजवान-नवयुवतियों की भागीदारी ने साबित कर दिया है कि अगर साख वाला नेतृत्व जीवन के मूलभूत सवालों को उठाए तो आज की पीढ़ी भी संघर्ष कर सकती है। उसे संघर्ष से कोई रोक नहीं सकता और उसके नतीजे बेहतर ही होंगे। अन्ना के साथ लोग इसलिए भी जुड़ते गए, क्योंकि भारतीय जिंदगी में भ्रष्टाचार ने संस्थानिक रवैया अख्तियार कर रखा है। पानी- बिजली के कनेक्शन से लेकर बिल भरना हो या बैंक से लोन लेना हो, घर खरीदना हो या घर बेचना हो, अस्पताल में दाखिला लेना हो या फिर स्कूल में ..भ्रष्टाचार और घूस का बोलबाला है। शायद ही कोई भारतीय होगा, जिसे घूसखोर कर्मचारियों-अधिकारियों से पल्ला न पड़ा हो। आज की महंगाई के पीछे दूसरे कारणों के अलावा भ्रष्टाचार का भी हाथ है। लोग हर तरफ त्रस्त हैं। विनोबा भावे का एक निबंध है – तरूणों से। उसमें उन्होंने लिखा है कि पूरे राष्ट्र में सुराख ही सुराख है। साठ के दशक में उन्होंने देश की दशा का जो चित्र खींचा था, उसमें आज भी बदलाव नहीं आया है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन व्यवस्था नहीं बदलती, सिर्फ उसे चलाने वाले बदल जाते हैं। भाषा और वार्ता जैसी हिंदी समाचार एजेंसियों के संस्थापक स्वर्गीय शरद द्विवेदी कहा करते थे कि मौजूदा व्यवस्था यानी सत्ता अपने चलाने वालों को कांग्रेसी बना देती है। दूसरे शब्दों में कहें तो वे भी भ्रष्टाचार की संस्थानिकता को स्वीकार करते थे। बहरहाल यही वजह रही कि लोग अन्ना के साथ जुटते चले गए और कारवां बनता गया। कारवां इतना ताकतवर बना कि उसके सामने सर्वशक्तिमान समझने वाली भारत सरकार को भी झुकना पड़ा।

अन्ना के आंदोलन को आगे बढ़ाने में निश्चित तौर पर फेसबुक, ट्विटर जैसे न्यू मीडिया के साथ ह मिस्र के तहरीर चौक के धरने और ट्यूनिशिया जैसे देशों के आंदोलनों से भी बल मिला। न्यू मीडिया ने अन्ना की आवाज को कम से कम इसे इस्तेमाल करने वाले लोगों के बीच दूर-दूर तक पहुंचा दिया और उनके साथ लोगों को खड़ा करने के लिए प्रेरित किया। चूंकि अन्ना ने लोगों से कह रखा था कि किसी भी तरह से किसी के साथ बदतमीजी ना हो, सार्वजनिक या निजी संपत्ति को भी नुकसान न पहुंचाया जाय, इसका भी असर पड़ा। यानी अन्ना यह साबित करने में सफल रहे कि उनके विरोध का तरीका नकारात्मक नहीं, बल्कि सकारात्मक है। सकारात्मक विरोध की बात लोगों की समझ में आई और उनका समर्थन लोगों को मिला। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि सरकार के झुकने भर से आंदोलन का लक्ष्य हासिल कर लिया गया। जन लोकपाल बिल बनाना और पारित होना, लोगों को जितना आसान लग रहा है, उतना आसान है भी नहीं। सत्ता की जो प्रवृत्ति रही है, वह लोगों के सामने जल्दी हथियार नहीं डालती, भले ही वह फौरी तौर पर हथियार डालती प्रतीत हो। वह जनता के उन लक्ष्यों को भ्रष्ट करने की हमेशा कोशिश करती है, जिससे उसकी सर्वशक्तिमान छवि को आंच पहुंचती हो। इसलिए अन्ना को अभी और आगे जाना है। उनके साथ अगर जनता खड़ी रही तो निश्चित तौर पर वे आगे जाएंगे। लेकिन उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि उनकी एक भी चूक भ्रष्टाचार के बूते फल रहे राजनीतिक और सत्ताधारी तंत्र को इस आंदोलन को बिखरने का बड़ा मौका मुहैया करा देगी। लेकिन पकी उम्र के अन्ना से यह उम्मीद भी बेमानी नहीं है कि सत्ता के इस चक्रव्यूह को वे जनता रूपी रथ के पहिए से अपने सहज विवेक के सहारे काटने में कामयाब रहेंगे।

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