Thursday, October 25, 2012

पूंजीवाद से ग्राम स्वराज की कल्पना अधूरी

सच्चिदानंद सिंहा

वैश्विकरण ग्राम स्वराज का विपरित व्यवस्था है। वह वक्त आने वाला है, जब हम फिर गांव की ओर लौटेंगे। आज से 50-60 साल बाद ये सारी व्यवस्था खत्म होने वाली है। तभी गांधी के ग्राम स्वराज की कल्पना साकार होगी


गांधी के ग्राम स्वराज की कल्पना आर्थिक उदारीकरण के कारण मुल्क की मिट्टी में दफन हो गई। ग्राम स्वराज की कल्पना थी कि गांव के लोगों का जीवन स्थानीय संसाधन पर निर्भर हो। कुटीर उद्योग, बुनियादी शिक्षा आदि इसके मूल तत्व हैं। सर्वोदय, स्वावलंबन, समतामूलक समाज का निर्माण इसका मूल उद्देश्य है। गांव के लोग अपने गांव के विकास के लिए फैसले ले सके। ऐसी शिक्षा मिले, जिसमें बच्चे मिट्टी, लकड़ी के साथ जीना सीखे। उत्पादन, विनिमय, नियोजन सभी स्वतंत्र हो। गांव की समस्याओं पर गांव में ही चर्चा हो। ग्राम स्वराज की कल्पना साकार हो, तो ग्राम गणराज्य होगा। तभी स्वतंत्र इकाई बनेगी।
आजादी के पहले गांधी ने जिस ग्राम स्वराज की कल्पना की थी, उसका सबसे पहला प्रयोग उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में किया था। गांधीजी के मन में रस्किन की किताब ‘अनटू दिस लास्ट’ पढ़ने के बाद ग्राम स्वराज की कल्पना जन्म ली थी। इसे जमीन पर उतारने के लिए उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में फिनिक्स फाॅर्म और टाॅल्सटाय फाॅर्म नामक दो फाॅर्म स्थपित किया। इसमें उन्होंने सामुदायिक खेती, काॅमन किचन, अखबार का प्रकाशन सहजीवन आदि शामिल किया। इकोलाॅजी को ध्यान में रखकर शौचालय बनवाया। पारसी, क्रिश्चियन, मुसलमान, हिंदू समेत कई धर्मों के लोग साथ रहते थे और एक ही किचन में सबके लिए खाना बनता था। सत्याग्रहियों का परिवार इसी फाॅर्म में रहता था। जब गांधी देश लौटे, तो ग्राम स्वराज की कल्पना को आजादी के आंदोलन के साथ जोड़ा। 1946 में उन्होंने नेहरू को पत्र लिख कर भारत के परिदृश्य की ओर इशारा करते हुए ग्राम स्वराज पर  सोचने को कहा। 
आज सब कुछ केंद्रीकृत हो गई है। मनरेगा से काम होता। गांव की जरूरत के अनुसार योजना नहीं बन रही है। इंदिरा आवास भी केंद्रीकृत है। गांव के लिए बन रही केंद्रीय योजनाओं में विसंगतियां हैं। पर्यावरण को नजरअंदाज कर दिया जाता है। कंक्रीट पर आधारित विकास से इकोलाॅजी नष्ट हो रही है। ईंट से खेतीवाली जमीन खराब हो रही है। प्लास्टिक व ईंट नष्ट नहीं होते हैं। गांव का इकोलाॅजी नष्ट हो रही है। फूस का घर मिट्टी में मिल कर जैविक प्रक्रिया करते थे। जमीन उपजाऊ होती थी। आज यह सब बर्बाद हो रहा है। आज जिस पंचायती राज व्यवस्था को लोग ग्राम स्वराज की संज्ञा दे देते हैं, वह वास्तव में ग्राम स्वराज नहीं है। यहां भी ऊपर से निर्णय होते हैं। एक पंचायत में अमूमन 5-6 हजार की आबादी होती है और 3-4 किलोमीटर का दायरा होता है। ग्राम सभा के कोरम के लिए 20 प्रतिशत उपस्थिति चाहिए। यानी 5 हजार की आबादी में एक हजार की उपस्थिति होगी, तभी ग्राम सभा में निर्णय हो पाएगा, जो संभव नहीं है। 
पंचायती राज व्यवस्था नौकरशाही में बदल गई है। ग्रामसभा की परिकल्पना को एसेंबली ने भी मान्यता दी थी। लेकिन उद््देश्य की पूर्ति नहीं हो रही है। ग्राम के साथ सेवक जोड़ कर बना दिया गया ‘ग्राम सेवक’। वही तय करता है कि गांव में कैसे और किन योजनाओं की राशि बंटेंगी। पैसा जनता का और तय करता है नौकरशाह। पंचायत में भी भ्रष्टाचार ने जड़ जमा लिया है। वृ(ा व विधवा को पेंशन नहीं मिल रही है। हां, इधर कुछ परिवर्तन जरूर हुए हैं। जमींदारी प्रथा में दमन था, वह खत्म हुआ है। अब दलितों व गरीबों को भी सताना आसान नहीं रहा। लेकिन समता के स्तर पर सार्थक परिवर्तन नहीं हुए हैं। विषमता बढ़ी है। गैरबराबरी बढ़ी है। मशीनीकरण के कारण खाई बढ़ी है। अमीर और अमीर हुआ है, गरीब और गरीब। युवा गांव में रहना नहीं चाहते हैं। जमीन बेच कर लोग शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। बाजार ने गांव को अपने आगोश में ले लिया है। मेरे गांव का उदाहरण ले लीजिए। इस गांव में 20-30 मोटरगाडि़यां हैं। एक छोटे से गांव में 40-50 बाइक हैं। गांव के लोग खेती से भाग रहे हैं। बड़े जोत वाले किसान भी चाहते हैं कि सरकारी नौकरी हो जाए। शहर में एक-दो प्लाॅट जमीन और मकान हो जाए, ताकि आराम से जिंदगी कट जाए। गांव का एक व्यक्ति है, जिसने 4 बिगहा जमीन 48 लाख में बेच कर शहर में जमीन खरीदी। मकान बनवाया और हरेक महीने 7-8 हजार रुपये किराया का जुगाड़ कर लिया।  
जो जमीन पर काम करने वाले लोग हैं, उनके बीच सिलिंग एक्ट बनाकर जमीन बांट देनी चाहिए। आज गांव में ज्यादा जमीन रखने की दिलचस्पी घटी है। भूमिहीन भी शहर में ही रहना चाहते हैं। जापान और ताइवान की तरह मुआवजा देकर भूमिहीनों में जमीन बांटी जानी चाहिए। जब सरकार भूमि अधिग्रहण के लिए पैसे दे रही है, तो इन्हें भी दें। 
(लेखक समाजवादी चिन्तक हैं)

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