Tuesday, May 15, 2012

नक्सलवाद को समस्या और आंदोलन का नजरिया---


अनिल चमड़िया

नक्सलवाद और माओवाद को समस्या या आंदोलन के रूप में देखना किसी के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के प्रति नजरिये से जुड़ा हुआ है।इसे समझने के लिए पहले एक वास्तविक घटना का बयान यहां जरूरी लगता है।मनमोहन सिंह जब से देश के प्रधानमंत्री बनें है तब से वे इस बात को कई बार दोहरा चुके हैं कि नक्सलवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है।लेकिन साठ के दशक के अर्थशास्त्री मनमोहन सिह भी शिक्षण संस्थानों में डिग्री लेने वाले देश के दूसरे बुद्धिजीवियों की तरह पहले नक्सलवाद के प्रति सहानुभूति रखने वालों में रहे हैं। पंजाब के मशहूर नक्सलवादी नेता हाकाम सिंह की माने तो उन्होने यदि मनमोहन सिंह को बचाने की कोशिश न की होती तो वे उस समय नक्सलवादियों के समर्थक होने के आरोप में जेल में होते। पंजाब के नक्सलवादी नेता हाकाम सिंह के बारे में देश के कई बड़े संसदीय नेताओं महान क्रांतिकारी थे।दरअसल ये कहानी और लंबी है। लेकिन जिस संदर्भ में इसका उल्लेख किया गया है उसके लिए पर्याप्त है। मनमोहन सिंह इसके बाद 7 अप्रैल 1980 से 14 सितंबर 82 तक योजना आयोग के सदस्य सचिव थे तब उन्होने बिहार के ग्रामीण अंचलों में उभर रहे असंतोष का अनुभव करने के लिए एक अध्ययन टीम के साथ उन इलाकों का दौरा किया था। उनकी उस रिपोर्ट के हवाले से नक्सलवाद के विस्तार के कारणों पर प्रकाश डाला गया था। इस तरह दो स्तरों पर मनमोहन सिंह की नजरों में नक्सलवाद को खतरे के रूप में नहीं देखा जा रहा है।

किसी भी आंदोलन को आप कहां से देख रहे हैं। ये सवाल सबसे महत्वपूर्ण होता है। संसदीय राजनीति में ये अक्सर देखा जाता है कि जो पार्टी या नेता सत्ता से बाहर होता है उसके लिए विरोध के जो मुद्दे होते है वे मुद्दे सरकार में जाने के बाद उसके मुद्दे नहीं रह जाते हैं। वे भी सरकार चलाने वाली पार्टी की तरह का ही व्यवहार करने लगते हैं।पी वी नरसिम्हा राव ने तो साफतौर पर कहा था कि भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने पर विपक्ष की पार्टियां विपक्ष में रहते हुए चाहें जो करें लेकिन सत्ता में आकर वे उसका विरोध नहीं कर सकती है।आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव,चन्द्रबाबू नायडू, चन्द्रशेखर रेड्डी या हाल में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विपक्ष से सत्ता तक की यात्रा के दौरान नक्सलवाद के प्रति बदलते रूख को भी यहां देखा जा सकता है। लेकिन पहला सवाल है कि नक्सलवाद को सबसे बड़ा खतरा बताने के बावजूद उसका प्रभाव क्षेत्र कैसे बढ़ता चला गया है।तमाम तरह की दमनात्मक कार्रवाईयों के बावजूद और सैकड़ों कार्यकर्ताओं को मुठभेड़ के नाम पर मारने के वाबजूद उसके प्रभाव के विस्तार को रोका नहीं जा सका है। यहां एक दूसरे सवाल को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। जब नक्सलवाद के प्रभाव के विस्तार की बात की जाती है तो यह दावा कौन किस नजरिये से कर रहा है इसे समझना जरूरी होता है। सरकार देश में जिलों की तादाद बताकर नक्सलवाद के प्रभाव के जिलों की संख्या बताती है। लेकिन जब देश के कुल जिलों में नक्सलवाद के प्रभाव वाले जिलों की तादाद बताई जाएगी तो वह भारत के नक्शे पर बहुत बड़ा दिखेगा। उससे ज्यादा नक्सलवाद के बढ़ते प्रभावों को यदि राज्यवार पेश किया जाएगा तो वह और ज्यादा दिखेगा। क्योंकि कम संख्या से भाग देने पर में जो प्रतिशत निकलता है वह ज्यादा दिखाई देता है।लेकिन नक्सलवाद के प्रभावों का आकलन देश में कुल गावों की संख्या के आधार पर निकाला जाएगा तो उसका प्रभाव दो से तीन प्रतिशत गावों में ही दिखाई देगा। प्रचार की भाषा अपनी योजनाओं और रणनीतियों के अनुसार तय की जाती है। देश के लोगों के सामने जब तस्वीर इस तरह प्रस्तुत की जाएगी कि अस्सी प्रतिशत से ज्यादा राज्यों में ये समस्या है तो उसका संदेश भिन्न होगा। इसीलिए सरकारें जिस तरह से नक्सलवाद के प्रभाव के विस्तार का वर्णन करती है उसके पीछे उसके इरादे कुछ और होते हैं।इसीलिए वह इसे एक समस्या के रूप में प्रस्तुत करती है। समस्या के प्रभाव का विस्तार हो रहा है तो ये किसकी जिम्मेदारी है।रामजन्म भूमि और बाबरी मस्जिद की समस्या को तो आंदोलन कहा जा सकता है लेकिन नक्सलवाद को आंदोलन के रूप में स्वीकार करने में राजनीतिक परेशानी खड़ी हो जाती है।

दो स्तरों पर नक्सलवाद को देखा जा सकता है। विचार के स्तर पर समाज को बदलने वाली राजनीतिक धारा है। दूसरा उसे मानने वाले संगठनों और सदस्यों के व्यवहार।

नक्सलवाद के प्रभाव के विस्तार को रोकने के लिए सरकार पहले इसे आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक समस्या के रूप में देखती थी। ये मान्यता रही है कि जिन इलाकों में पिछड़ापन है और समाज का जो हिस्सा बेहद पिछड़ा है उसके बीच में इनका प्रभाव होता है।तब सरकार इनके लिए कई तरह के विकास के कार्यक्रम की योजना बनाना चाहती है। लेकिन देश के कई हिस्सों में तमाम तरह की योजनाओं को लागू करने का दावा करने के बाद भी नक्सलवाद के प्रभाव को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका है। नक्सलवाद का नेतृत्व करने वाली पार्टियों के नाम जरूर बदलते रहे हैं। तब सरकार भूमि सुघार कानून को लागू करने पर भी जोर देती थी। लेकिन जब से अमेरिकी परस्त भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों को लागू किया गया है तब से भूमि सुधार के कार्यक्रमों को लागू करने की औपचारिक घोषणा तक खत्म कर दी गई है। संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषणों में उसकी चर्चा तक नहीं होती है।पिछले चुनाव के दौरान तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भूमि रखने की अधिकतम सीमा बढ़ाने का भी वादा किया था। स्थितियां है कि 76 प्रतिशत लोग रोजाना बीस रूपये से कम पर गुजारा कर रहे हैं। जिन इलाकों में सरकार नई नीतियों के तहत नये नये उद्योग विकसित करना चाहती है वहां तो भूखमरी की खबरें आई हैं।जब नक्सलवाद ने जन्म लिया तब कि स्थिति पर नजर डाली जा सकती है। जनवरी 1970 में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा जारी एक बुलेटिन की सूचना के अनुसार 1967-68 में दो करोड़ 6 लाख लोग महज चौतीस पैसे रोजाना पर जिन्दा रहते थे। 4 करोड़ तेरह लाख लोग 81 पैसे और 8 करोड़ 26 लाख लोग एक रूपया तीन पैसे यानी बीस करोड़ 64 लाख लोग रोजाना एक रूपया उससे कम पर रोजाना जिन्दा रहने के लिए विवश थे।योजना आयोग के अध्ययन में पाया गया कि 1963 में कुल जनसंख्या का साठ प्रतिशत हिस्सा 22 रूपये प्रति माह से कम पर जीवन निर्वाह करता है। जबकि एक व्यक्ति को जितना भोजन मिलता चाहिए इसकी जानकारी रखने वाले लोगों का मानना था कि यदि स्वास्थ का थोड़ा बहुत भी ध्यान रखें तो कम से कम केवल भोजन पर खर्च करने के लिए लोगों के पास महीने में 23 रूपये तो जरूर होने चाहिए।यानी उस समय महज खाने के लायक भी लोगों तक पूरे पैसे नहीं होते थे।तब योजनाकारों ने अनुमान लगाया हर तीसरा आदमी 2000 तक गरीबी की रेखा की सीमा से नीचे अपना जीवन गुजार रहा होगा।दूसरा यह था कि सन 2000 में जो भी व्यक्ति 25 रूपये महीने कमाएगा वह आराम से खाना खा सकेगा।

सरकार अब नक्सलवाद को केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में पेश करने में लगी है। केन्द्र में जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार थी तब ये कोशिश शुरू की गई थी कि सरकारी दस्तावेजों से नक्सलवाद को आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्या भले माना जाए लेकिन व्यवहार में इसे केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में पेश किया जाए। भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा विकेन्द्रीकरण की नहीं है। वह केन्द्रीयकृत सत्ता में यकीन करती है और पुलिसिया रौब दांव को जरूरी मानती है। वह आर एस एस जैसे फांसीवादी संगठनों का चुनावी मुखौटा है। जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनी तब भी भाजपा शासित नीतियों को ही लागू किया गया।कांग्रेस की राजनीति उसके सामने खड़ी राजनीतिक पार्टी को देखकर तय होती है। दरअसल सोचने का तरीका अब तक ये रहा है कि सत्ता में जो पार्टी जा रही है वह अपने कार्यक्रमों को लागू करने पर जोर देगी। लेकिन स्थितियां अब बदल चुकी है। पार्टियां सत्ता चलाने जरूर जाती है लेकिन सत्ता उन्हें चलाती है। किसी भी पार्टी में अब इतनी ताकत नहीं बची है कि वह अपनी उन घोषित नीतियों को लागू कर सकें जो सत्ता की नीतियों के विपरीत हो। सत्ता पर जिस वर्ग का वर्चस्व है वह सत्ता को अपने तरीके से चलाता है।पार्टियां उसका अनुसरण करती है। इसकी सबसे अच्छी मिसाल छत्तीस गढ़ में देखने को मिल सकती है जब कांग्रेस विधायक के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के सहयोग से सल्वा जुडुम चलाया गया। पहले बिहार के गावों में निजी सेना का जो स्वरूप था वह बदल गया है।पहले निजी सेनाओं में पुलिस बल,सरकारी अधिकारियों और विभिन्न पार्टियों के नेताओं की भूमिका बतायी जाती थी। लेकिन अब पार्टियों के नेता नहीं पूरी पार्टी और उनकी सरकारें उसके समर्थन में खड़ी दिखाई देने लगी है। पहले निजी सेनाओं के लिए हाथियार मुहैया कराए जाते थे लेकिन अब नक्सलवादियों के खिलाफ लड़ने के लिए सेना तैयार की जा रही है। सेना में नक्सलवाद के प्रभाव वाले इलाकों के युवाओं को खासतौर से शामिल करने का अभियान चलाया जाता है।महाराष्ट्र में तो सरकार ने आदिवासियों की बटालियन खड़ी करने का फैसला किया है। पहले सरकार की काउंटर इंसर्जेसी में सरकार की रणनीति ये होती थी कि गैरजातीय सेना को लगाया जाए। जैसे पंजाब में गैर सिख पृष्ठभूमि के सैनिकों को भेजा जाता था तो उत्तर पूर्व में सिख और दूसरी पृष्ठभूमि के सैनिकों की बटालियनें लगायी जाती थी। अब ये रणनीति बदल गई हैं।

एक बदलाव और आया है कि कानून एवं व्यवस्था विषय को केन्द्र ने ज्यादा से ज्यादा अपने हाथों में ले लिया है।केन्द्र सरकार ने पहले कानून एवं व्यवस्था के रूप में नक्सलवादियों से लड़ने के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार की। वह इस तरह से तैयार की गई कि केन्द्र ने पुलिस बलों को ज्यादा से ज्यादा हथियारों से लैश करने के लिए करोड़ों की हर वर्ष राशि दी। राज्यों यानी प्रदेशों को लगा कि ये उनके वित्तीय समस्या का समाधान है। नतीजा ये निकला कि प्रदेश की नक्सलवादियों के बारे में जो समझ हो लेकिन उन्हें केन्द्र की योजनाओं को लागू करना पड़ता है।

पूरी दुनिया में देखा गया कि किस तरह से भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने के लिए सरकारों ने विकास और सुरक्षा के नारे को एक साथ जोड दिया। विकास का जहां नारा रोटी कपड़ा और मकान था वहां वह बिजली सड़क और पानी में परिवर्तित कर दिया गया।यह एक बुनियादी बदलाव रहा है। रोटी कपड़ा और मकान की जरूरत हर किसी के लिए जमीन मुहैया कराने के सवाल से जुड़ा था। बिजली , सड़क और पानी वाला विकास का नारा नई नीतियों को स्वीकार करने की स्थितियां तैयार करने के लिए दिया गया। एक ऐसा वातावरण बनाया गया कि लोग सरकार की नीतियों का समर्थन करने के पक्ष में खड़े हो जाए। सरकार के विकास के नारे के साथ ही विकास के लिए सुरक्षा के नारे का भी समर्थन करने लगे।देश के कुल राज्यों में से पचहत्तर प्रतिशत राज्यो में नक्सलवाद का प्रभाव गिनाने के पीछे यही योजना रही है। जबकि बिहार के जहानाबाद में नक्सलवाद के चरम प्रभाव वाले दिनों में रह चुके एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि उस समय भी उन्हें सरकारी विकास की योजनाओं को लागू करने में नक्सलवादियों की तरफ से कोई रूकावट नहीं दिखी। सुरक्षा के नाम पर सरकार ने मनमाने विकास को रोकने वाले तमाम तरह के आंदोलनों को कुचलने के लिए एक वातावरण तैयार किया । आज सरकार इस मायने में सफल साबित हुई है कि नक्सलवाद के नाम पर किसी को मुठभेड़ में मार दिया जाता है तो लोग उससे जुड़े कानूनी सवाल भी उठाने से कतरा जाते हैं। सैकड़ों की तादाद में नक्सली के नाम पर लोग मार दिए जाते हैं। किसी भी जागरूक और लड़ाकू राजनीतिक कार्यकर्ता को नक्सलवादी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है। डा. विनायक सेन को छत्तीसगढ़ में दो वर्षों तक बेवजह जेल में रखा गया।सुप्रीम कोर्ट की जमानत पर छुटे।

यदि देखा जाए तो नक्सलादियों को जिन इलाकों में सरकार सबसे ज्यादा सक्रिय बताती है वे कौन से इलाके हैं। क्या वे वैसे इलाके नहीं है जहां कि देश की आखिरी पंक्ति में खड़ी जमात रहती है। जहां वह रहती है उसके घर के नीचे खनिज सम्पदा है। प्राकृतिक संसाधनों से वह भरपूर हैं। जंगल है। पानी है।लोगों को जीने के अधिकार से वंचित करके रखा गया है। सरकार उन्हें बंदूकधारी बता रही है। पूरे देश में ऐसी क्यों स्थिति है कि सबसे कमजोर समझी जाने वाले आदिवासी समुदायों की जमीन और दूसरे संसाधनों पर सभी तरह की विचारधारा की रंग वाली पार्टियों की सरकारें टूट पड़ी है। अमेरिका के राष्ट्रपति बुश ने इराक और अफगानिस्तान पर हमला करते वक्त कहा कि जो उसके साथ नहीं है वह आतंकवादियों के साथ है। दरअसल यही नारा छत्तीसगढ़ जैसे राज्यो में भी दोहराया गया और अब पूरे देश में दोहराया जा रहा है। नक्सलवादी राजनीति से किसी का विरोध हो सकता है लेकिन वे आतंकवादी तो नहीं कहें जा सकते हैं।जिन संगठनों का एक राजनीतिक आधार होता है यदि वे बंदूक से भी लड़ते है तो उन्हें आतंकवादी संगठन नहीं कहा जा सकता है।हमास के बारे में भी एक अमेरिकी विश्लेषक की यही राय रही है। नक्सलवादी गतिविधियों को अब माओवादी के रूप में ही प्रचारित किया जाता है। माओवादी विचारधारा के बूते ही चीन की मौजूदा सत्ता बनी है। वह दुनिया के ताकतवर देशों में एक है। यदि तमाम लड़ने वालों को माओवादी कहकर सरकार ये समझती है कि वह अपनी मनचाही नीतियों को लागू करना चाहेगी तो माओवाद का विस्तार ही होगा।माओवादी या नक्सलवादी गतिविधियों को एक राजनीतिक नजरिये से देखा जाना चाहिए। जिन लोगों के हक हकूक छिने गए हैं या जो अपने अधिकारों से वंचित है उन्हें वंचित बनाए रखने की ये कोशिश ठीक नहीं है।मनमोहन सिंह की सरकार भले ही उन्हें सबसे बड़े खतरे के रूप में चित्रित करें लेकिन उनके यह चित्रित करने में माओवाद का विस्तार हुआ है। उसे सैनिक बल बूते रोकने की कोशिश का अर्थ ये तो नहीं हो जाएगा कि जो मौजूदा स्थितियां है वह खत्म हो जाएगी। मकसद लड़ने से रोकना है या फिर लड़ाईयों के जो कारण है उन्हें खत्म करना है।इसका जवाब ही नक्सलवाद और माओवाद को समस्या और आंदोलन के रूप में देखने का नजरिया देता है। नक्सलवाद को मीडिया की प्रचार की सामग्री के आधार पर समझना गलत होगा।मीडिया और नक्सलवाद पर शोध करें तो प्रचार सामग्री का सच सामने होगा। देश के हालात और आर्थिक राजनीतिक वर्स्चव की समझदारी ही नक्सलवाद या किसी भी आंदोलन या समस्या को समझने में मददगार हो सकती है।

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