- रीता तिवारी
सत्तर साल के चंद्र प्रकाश दहाल ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उनकी दुनिया रातों-रात इस तरह बदल जाएगी. पूर्वोत्तर का मेघालय कहे जाने वाले मेघालय के पूर्वी गारो पर्वतीय जिले के अपने गांव में दूध-दही और पकवानों के साथ पुराने साल को विदा करने वाले दहाल ने नए साल में खुशियों की उम्मीद लगा रखी थी. लेकिन नया साल उनके लिए अपार दुख लेकर आया. इस इलाके में गारो और राभा जनजातियों के बीच भड़की जातीय हिंसा ने इस उम्र में उनकी जीवन भर की पूंजी को लील लिया. पूंजी के नाम पर दहाल के पास तीन गाएं और चार बकरियां थीं. इनका दूध बेच कर उनका खर्च मजे में चल जाता था. लेकिन नए साल की पहली सुबह भड़की हिंसा और उसके बाद हुई आगजनी में उनका मकान तो जल कर राख हो ही गया, उसके साथ गाएं और बकरियां भी जल कर मर गईं. अब असम के ग्वालपाड़ा इलाके में बने एक अस्थायी शिविर में रह रहे दहाल को यह नहीं सूझ रहा है कि आगे जीवन कैसे चलेगा.
असम और मेघालय के सीमावर्ती जिलों में गारो और राभा जनजातियों में बर्चस्व की लड़ाई और इस पर अंकुश लगाने की मेघालय व असम सरकार की गुहार से चिंतित केंद्र सुरक्षा बलों की 19 कंपनियां उस इलाके में भेजी है. केंद्र में पूर्वोत्तर मामलों के संयुक्त सचिव शंभू सिंह की अगुवाई में गृह मंत्रालय की एक टीम भी उपद्रवग्रस्त इलाकों का दौरा कर चुकी है. मेघालय के मुख्यमंत्री मुकुल संगमा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिल कर मेघालय के हालात के बारे में बता चुके हैं. वहीं मेघालय के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं कि अब तक सौ से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया है. केंद्रीय टीम ने प्रभावित क्षेत्रों के दौरे के बाद कहा है कि जातीय झडपें सुनियोजित नजर आती हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दोनों राज्यों की सरकारों से 35 राहत शिविरों में शरण लिए लगभग 40 हजार लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को कहा है.असम में जातीय हिंसा की यह कोई पहली वारदात नहीं है. वहां पहले भी निचले असम और कारबी-आंग्लांग समेत विभिन्न इलाकों में जातीय हिंसा की घटनाएं होती रही हैं. इसी तरह राभा और गारो जनजातियों के बीच भी पहले कई बार हिंसक झड़पें हो चुकी हैं. लेकिन असली सवाल यह है कि आखिर इस बार की हिंसा की मूल वजह क्या है? बिना किसी ठोस वजह के इतने बड़े पैमाने पर हिंसा फैलने की बात न तो केंद्रीय गृह मंत्रालय के गले उतर रही और न ही असम-मेघालय सरकारों के. असम के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि इस मामले की साझा जांच की जरूरत है. दंगो के पीछे का सच सामने आए बिना भविष्य में ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाना संभव नहीं है.
मेघालय में दस शिविरों की सुरक्षा के लिए पहले केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के 500 जवान भेजे गए. बाद में वहां केन्द्रीय बलों की पांच अतिरिक्त कंपनियां भेजने का फैसला किया गया. गृह मंत्रालय के अधिकारी असम और मेघालय की सरकारों के लगातार संपर्क में हैं और उनसे सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए तत्काल कदम उठाने के लिए कहा गया है.मेघालय के मुख्य सचिव डब्ल्यू.एम.एस. पैरिएट कहते हैं, ‘मैंने असम के मुख्य सचिव से बात की है और उनको दोनों दंगाग्रस्त इलाकों में साझा पुलिस गश्त का प्रस्ताव दिया है.’ पैरिएट कहते हैं कि अगर असम सरकार हमारा प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है तो दोनों राज्यों (असम और मेघालय) की पुलिस संयुक्त गश्त के तौर-तरीके तय करेगी.
इस बीच, असम सम्मिलित महासभा और निखिल राभा जातीय परिषद नामक दो संगठनों ने असम-मेघालय सीमा पर गारो व राभा जनजातियों की बीच हुए इस जातीय संघर्ष की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो से कराने की मांग की है. राभा जातीय परिषद के महासचिव बाणीकांत राभा तहते हैं कि इस संघर्ष के बाद अब तक असम मेघायल की सरकारों ने इसके शिकार लोगों के हित में कोई ठोस कदम नहीं उटाया है. उनका आरोप है कि असम व मेघालय सीमा पर कुल 41 गांवों में बड़े पैमाने पर आगजनी व लूटपाट हुई है. इन संगठनों ने हिंसा में मरे लोगों के परिजनों को दस और गंभीर रूप से घायलों को तीन लाख रुपए की दर से मुआवजा देने की मांग की है. राभा कहते हैं कि सीमावर्ती इलाकों में परिस्थिति अब भी विस्फोटक बनी हुई है. लेकिन राज्य सरकार ने इस ओर से आंखें मूंद रखी है.
असम सम्मिलित महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष मजीउर रहमान भी यही आरोप दोहराते हैं. उन्होंने दोनों राज्यों की सरकारों से इस जातीय हिंसा में मरने वालों की सही तादाद और कुल नुकसान का आकलन कर उसे सार्वजनिक करने की मांग की है. इन संगठनों का आरोप है कि पूरे मामले में पुलिस की भूमिका मूक दर्शख से ज्यादा नहीं है. अगर उसने समय रहते कार्रवाई की होती तो हालात इतने नहीं बिगड़ते.
असम सम्मिलित महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष मजीउर रहमान भी यही आरोप दोहराते हैं. उन्होंने दोनों राज्यों की सरकारों से इस जातीय हिंसा में मरने वालों की सही तादाद और कुल नुकसान का आकलन कर उसे सार्वजनिक करने की मांग की है. इन संगठनों का आरोप है कि पूरे मामले में पुलिस की भूमिका मूक दर्शख से ज्यादा नहीं है. अगर उसने समय रहते कार्रवाई की होती तो हालात इतने नहीं बिगड़ते.
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