संपादक की कलम से
अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से जवाब की मांग और उनकी जवाबदेही को लेकर धीरे-धीरे समाज में जागरूकता आ रही है। बिहार में मुख्मंत्री नीतीश कुमार ने घोषणा कर दी है कि मुख्मंत्री समेत सभी मंत्री, अफसरशाह, विधायक और सभी सरकारी बाबू-कर्मचारी सभी भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए अपने परिसम्पत्तियों का ब्यौरा दे। भ्रष्ट अधिकारियो और कर्मचारियों की सपति की घोषण करे,भ्रष्ट अधिकारियो को उनके अपराध के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद उनके सपति का उपयोग स्कूल खोलने के लिए किया जा सकता है।
इस तरह की नीतिया केंद्र और दूसरी राज्य सरकारे क्यों नही अपना सकती है, जब घोटालो पर बड़े घोटाले एक के बाद एक करदे सामने राज्य आ रहे है। क्या यह सही समय नही है, जब सरकार को गंभीरता के साथ कुछ अच्छे शासन के तरीको के साथ समय आना चाहिए। हम विस्वास करते है, समय आ गया है और चुने हुए जन प्रतिनिधियों को इन सवालों का जवाब देना चाहिए और उन्हें और अधिक जवाबदेह बनना चाहिए। इन सबके बाद वे आम आदमी का पैसा इस्तमाल करते है, ना सिर्फ भ्रष्टाचार के अर्थो में बल्कि मोटा वेतन जो उन्हें खुद के लिए कानून बनाकर लिया है। वह पैसा भी जनता की जेब से ही आता है।
शासन विकाश पर 'नेशनल सोशल वाच' की रिपोर्ट सही समय पर आई है। सोशल वाच ने अपने अध्यन में विशुद्ध रूप सांसदों को सदन में उनके प्रदर्शन के आधार पर स्थान दिया है। यह भारतीय संसद इतिहास में पहली बार हुआ है। यहाँ शासन और विकास के संबंध मी चौकाने वाले आकंडे थे। रिपोर्ट को ध्यान से देखने पर सांसदों का प्रदर्शन कितना खराब था और यह भी देखने योग था कि किस तरह उनके धन मी अप्रत्याशित विर्धी हुई है।
रिपोर्ट बताती है कि संसद के दोनो सदनो ने कुल समय का पाचवा हिसा भी विधायी कार्यो पर खर्च नही किया है, विधायी बह्सो मे शामिल होने वाले सांसदों की संख्या कम होती जा रही है, किस तरह संसद मे पैसे वाले सांसदों की संख्या बढती जा रही है, दूसरी तरफ सांसदों की सपती मे भी आश्चर्यजनक तरीके से ब्रिधी हो रही है। एक मामले मे तो पाच सालो यह ब्रिधी ३०२३% की रही।
रेपोर्ट मे इस बात को रेखांकित किया गया है कि २५% लोकसभा सदस्य उदोग, व्यापार, बिल्डर श्रेणी के होते है, जबकी देश की जनसख्या मे इनका प्रतिनिधित्व ना के बराबर है।
कोई आश्चर्य नही यादी आजादी के छह दशको बाद भी देश के सामने विकाश के क्षेत्र
मे गंभीर चुनौतीया मौजूद है। सामाजिक विकाश, स्वास्थ, शिक्षा जैसे मनको पर हम बेहद पिछ्डे है।
यदि हम सरकारी अधिकारियो के उदासीनता को हटा दे। फिर भी क्या हुआ। वे गरीब लोगो के हितकारी योज्नाओ का प्रचार नही करेगे क्योकी इससे उनके काम मे ब्रिधी होगी।
उपर की सारी बाते तो सरकार और तत्र से संबंधित है। ऐसा बहुत कुछ है जो इस तंत्र से बाहर भी किया जा सकता है। लगता है कि देश मे एक शुरुआत हुई है। कई व्यावसायिक घरानो ने रास्ता दिखाने का काम किया है, जीससे हम उम्मीद कर सकते है कि गरीबो का भविष्य उतना बुरा नही है जितना हम समझते है। इस अंक मे हमने ना सिर्फ बिहार के फल का जिक्र किया है बल्की औदोगिक घरानो का भी वर्णन किया है, जिन्होने अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करणे मे अहम योगदान दिया है। सरकार, समाज और निजी संस्थाये यदि मिलकर काम करे तो भारत के नवनिर्माण मे एक एसी गति आ सक्ती है जो गरीबी, पिछ्दापन, अशीक्षा जैसे शब्दो को बीते समय की बात बना देगी।
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