Thursday, January 20, 2011

अपने लिए जीए तो क्या जीए

अपने लिए जीए तो क्या जीए
समाज में जिस तरह की अवनति दे रही है, हो सकता है सीधा लोकोपकार उसका हल ना हो, लेकिन हम जैसे लोग जो एक आराम की जिन्दगी जी रहे है, की किसी की बुरी हालत के लिए वे जिम्मेवार नहीं है लेकिन क्या
उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए, कि वे किसी परिवार की खुशी , किसी समाज की सशिक्त का हिस्सा हो सके है'।
इसी साल 'इंडियन फिल्न्थ्रापी फोरम' के मंच से मुम्बई में अपने व्याख्यान के दौरान रोहिणी निकेनी ने यह बात कही तो पूरा हाल तकियों से गुंज उठा वास्तव में समाज का एक समृद्ध तबका चाहता है क़ि वह समाज के उस वर्ग के लिए कुछ करे जो जिन्दगी की तेज रफ्तार दौड़ में वेहद पीछे छुट गए भारती के सुनील भारती मित्तल जहाँ पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडू, और उत्तरप्रदेश के तीस हजार बच्चो को अंग्रेजी पढ़ा रहे है तो वही एचसीएल के शिव नाडार ने हाल में ही ५८० करोड़ रूपए शिक्षा के लिए दान दिया है यहाँ हमारे संवाददाता आशीष कुमार 'अंशु' ऐसे कुछ लोगो से आपका परिचय करा रहे है, जिनके पास समाज को देने के लिए पैसा नहीं था तो उन्होंने अपना जीवन समाज की सेवा में समर्पित कर दिया ।
मानवता के नाम एक अस्पताल
'किसी को खोने में कितना दर्द होता है, मै जानता हू मैंने अपना पति खोया है, इलाज के अभाव में। इसलिए मै चाहती हू कि इस देश में इलाज ना मिलने की वजह से किसी को अपना कोई खोना ना पड़े।
सुभाषिनी मिस्त्री के कहें हुए शब्द आज सच सच साबित हुए है आज इस बात को चालीस साल होने को जा रहा है, जब १९७१में३५ वार्षीय कृषि मजदुर साधन मिस्त्री को इलाज के अभाव में अपनी जान गंवानी पड़ी थी चूकी उनकी
पतनी सुभाषिनी मिस्त्री के पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे इस बार जब कोलकाता में ठाकुर पुकुड़ से दो क़िलोमीटर की दुरी पर स्थित हंस पुकुड़ स्थित ह्यूमिनिटी अस्पताल में उनसे मुलाकात हुई तो वे पुराने दिनों को याद करके भावुक हो गई जैसे किसी ने एक बार फिर उस रंग हाथ रख दिया हो, जहा सबसे अधिक पीड़ा थी इस बातचीत में भाषा भी किसी प्रकार की समस्या नहीं बनी। बावजूद इसके की वे बंगला छोड़कर दुसरी कोई भाषा नहीं समझती लेकिन भाव की कोई भाषा नहीं होती सुभाषिनी मिस्त्री के अनुसार- 'अब मेरा सपना पूरा हो गया है इस अस्पताल से प्रतेक साल हजारो लोगो को निशुल्क इलाज मिलता है' उनसे बात करते हुए ही जाना क़ि वे मथुरा जाने की तैयारी कर रही है।
'अब कृषण शरण में ही मुक्ति मिलेगी' ।
सुभाषिनी मिस्त्री जिन्होंने स्कूल की शिक्षा नहीं ली लेकीन जीवन से उन्होंने बहुत कुछ सीख लिया पति की मृतु के बाद हंस पुकुड़ में अपना परिवार चलाने के लिए उन्होंने सब्जी की दुकान लगाई उन्होंने उस परिस्थिति में भी समाज के लिए एक अस्पताल का सपना देखा १९७१ में देखा हुआ सपना २१ सालो के बाद पूरा होता हुआ उस समय जन पड़ा जब १९९२ में उन्होंने अस्पताल के नाम पर एक बीघा जमीन खरीद ली १९९४ में इस अस्पाल की एक अस्थायी सी ब्यवस्था की गई यह अस्पताल मिस्त्री की ली हुई जमीन पर एक झोपड़ी डालकर प्रारम्भ हुआ आज के पास अपनी दो मंजिला ईमारत है और १०० लोगो के लिए बेद का इंतजाम है अस्पताल के पास अपना आपरेशन थियेटर है अब इस अस्पताल की चर्चा देश भर में है, लोग इसे जानने लगे है, इसलिए कुछ मददगार भी आगे आए अस्पताल का विस्वास अपने मरीजो को निशुल्क और अच्छा इलाज देने में है आज अस्पताल में प्रतिदिन ५० से ६० मरीज आते है रविवार के दिन यह संख्या १५० भी हो जाती है ऐसा नहीं है के इस अस्पताल में आसपास से मरीज आते है, कई बार बार ५०-१०० किलोमीटर की दुरी से भी मरीज एस गाव के अस्पताल में इलाज के लिए आये है।
सुभाषिनी याद करती है, जब पति उसे छोडकर गए थे उनकी उम्र मात्र २३ साल की थी चार बच्चे पीछे रह गये थे जो सबसे बड़ा था वह नौ साल का और सबसे छोटा तीन साल उस समय तक सुभाषिनी कोई काम नहीं करती थी पति की जब मौत हुई उस वक्त घर में कुल जमा नब्बे पैसे थे किस तरह भातेर पानी (माड़-चावल का पानी) के लिए उन्हें अपने पड़ोसियों के सामने हाथ पसारना पड़ता था कई बार उन्होंने अपने को घास उबल कर नमक पड़ता था कई बार उन्होंने बच्चो को घास उबाल कर नमक के साथ खिलाया है अपने बुरे दिनों में जब वे अपने अस्पताल का सपना किसी को बताती थी तो लोग उनपर हँसते थे आज सुभाषिनी मिस्त्री का वह सपना पूरा हो गया है वे खुस है।
श्रमिक का श्रमिको के लिए श्रमजीवी
नदिया जिले के छोटे से गाव नवदीप का रहने वाला रिक्शा चालक सन्यासी के पाव की हड्डी एक दुर्घटना में टूट गई घर में पैसे नही थे फिर सन्यासी को इलाज के लिए उसके कुछ साथी कोलकता हावड़ा स्थित श्रमजीवी अस्पताल में छोड़ गए इस विस्वास के साथ कि यहाँ सन्यासी के इलाज के आड़े पैसे की कमी नहीं आयेगी इस अस्पताल में न सिर्फ सन्यासी का इलाज हुआ बल्कि जब उसके पास अपने घर तक जाने के लिए पैसे नहीं थे। और घर से कोई लेने भी नहीं आया तो अस्पताल ने ही तक जाने का पैसा उसे कोई लेने भी नहीं आया तो अस्पताल ने ही घर जाने का पैसा उसे उपलब्ध कराया इतना ही नहीं, अस्पताल का एक साथी उसे घर तक छोड़ने भी गया क्या आप ऐसे किसी निजी अस्पताल की कल्पना कर सकते है, जंहा मरीज का स्वस्थ लौटना प्रबंधको की प्राथमिकता होती इलाज से पहले मरीज का जेब नहीं टटोला जाता इसलिए किसी मरीज को दाखिल करते समय कभी पैसा बीच में नहीं आता दुसरी बात, यहाँ इलाज कोलकाता के किसी भी निजी अस्पताल से कमतर नहीं है लेकिन पैसे दुसरे अस्पतालों की तुलना में कम लिए जाते है इस साल अस्पताल में ओंपीडी में तीस हजार से अधिक लोग आए डैलिसिस के लिए लगभग सतैसा सौ लोग आए, अस्पताल में लगभग आठ हजार लोगो को भर्ती किया गया श्रमजीवी अस्पताल से जुड़े फनिगोपाल कहते है, 'अस्पताल हमारे लिए पैसा बनाने की जगह नहीं है सेवा का माध्यम है इसलिए हमारे लिए साथ जो लोग काम करते है, उन्हें हम सजी स्थित फटे स्पष्ट क्र देते है' फनिगोपाल स्पष्ट शब्दों में कहते है अस्पताल से जुड़े साथियों को इतना पैसा ही मिलता है, जिससे वे अपना जीवन चला सके और मरीजो की सेवा कर सके खुशी की बात है कि इन शर्तो पर भी अस्पताल को नए-पुराने लोगो का भरपूर स्नेह मिल रहा है,।
इस अस्पताल की शुरुआत इंडो जापान स्टील फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों के हाथो ८० के दशक के शुरुआती वर्षो में हुई यह वह समय था, जब मजदूर सगठन को मजदूर अपने जीवन की हर मुश्किल और बड़ी से बड़ी समस्या का हल मानते थे एक दिलचस्प बात और, उस दौर में इस अस्पताल का उदघाटन किसी भी बड़े राजनेता या सामाजिक कार्यकर्ता से करवाया जा सकता था लेकीन श्रमजीवी अस्पताल से जुड़े लोगो नए फैक्ट्री के अपने सबसे पुराने साथी मुरारी उपाध्याय से इस अस्पताल का उदघाटन करवाया उन दिनों उपाध्याय फैक्ट्री में बतौर गेट मैं कम करते थे इस अस्पताल में बाई पास सर्जरी जैसा आपरेशन अच्छे डाक्टरों के हातो मात्र बीस- पच्चीस हजार रुपए में आज भी सभव है आने वाले समय में इस अस्पताल के साथ एक मेडिकल कॉलेज से निकले डाक्टर भी अस्पताल की तरह देश में मिसाल बने
विदर्भ के किसानो को मिले साथी
यवतमाल में विजय कुमार पाटिल का नाम बहुत जाना पहचाना नही है मीडिया की सुर्खियों में भी वे नही है फिर आप सोच रहे होगे कि उनका जिक्र यहाँ क्यों आया ? बताते है, थोडा सब्र कीजिये विजय की उम्र होगी यही करीब तीस बत्तीस साल के आस पास तीन साल पहले टीस (टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस) की तरफ से ब्लाक प्लेसमेंट के लिए एक महीने के लिए विदर्भ आए और एक महीना गुजरने के बाद भी वापस नही गए विजय और उनके आठ साथी इस वक्त जो काम यवतमाल में कर रहे है, हो सकता है, वह कम आपको साधारण ही लगे लेकीन उनका यह काम तारीफ के काबिल जरुर है चूकी उनका यह कम सरकार से किसे प्रकार के फंड के लोभ में नही है ना ही उन्हें अपने कम के बदले सरकारी- गैर सरकारी पुरस्कार पाना है कोल्हापुर के रहने वाले विजय अपने दोस्त अल्वीन डिसूजा के साथ ही यवतमाल आए थे टीस की तरफ से दोनों नए साथ-साथ यहाँ रहने का फैसला किया प्लेसमेंट का समय बीत जाने के बाद भी चूकी खालिस समाज सेवा से घर तो नही चलता। ब्यक्ति की कुछ जरूरते होती है। शुरुआत के छह महीने विजय और आल्वीन दोनों के लिए मुश्किल भरे थे। बाद में आल्वीन मुंबई चले गए। इधर विजय के पास बचे हुए पैसे भी धीरे- धीरे खत्म हो रहे थे। इसी बीच टीस की तरफ से उन्हें फेलोशिप मिल गई और यवतमाल में उनका रहना आसन हो गया। फेलोशिप में मिलने वाले पैसे वैसे बहुत कम थे लेकिन विजय की जरूरते उसमे भी कम थी। उन्हें लगा इतने पैसे में कुछ और साथियों को वे अपने साथ जोड़ सकते है, जो किसानो के पक्ष में कुछ करना चाहते है। इस तरह अकेले ही चले विजय का काफिला बढ़ता गया, और लोग साथ आते गये जिससे कारवा बनता गया।
आज विजय के साथ पंकज महाले,रुपेश मारबते, अम्बादास कुशलकर, अर्चना दवारे, कीर्ती देशपान्डे, संगीता वसाले, शवेता ठकरे, जैसे साथी है। यह सभी साथी एक साथ किसी टेलेंट हंट से चुने हुए साथी नहीं है, यह सभी एक एक करके आए। आज भी इस टीम से जो वापस जाना चाहे या कोई इमानदारी से किसानो के हक के लिए लड़ना चाहे, इन दोनों के लिए विजय एंड कंपनी जिसका अर्थ होता है 'कास्तकार', के दरवाजे खुले हुए है।
कास्तकार किसी एनजीओ या ट्रस्ट का नाम नहीं है। यह सिर्फ एक मंच है, जिसका इस्तेमाल सिर्फ कास्तकार मंडल के सदस्यों अपने कम को सुबिधाजंक तरिको से आगे बढ़ाने के लिए किया है। चूकि इस मंडली के सदस्य ब्यक्ति पूजा की जगह कम की पूजा में यकीन रखते है।
कास्तकार के साथियों से परिचय के बाद, अब यह जानते है कि यह मंडली काम क्या करती है? 'कास्तकार' से जुड़े साथी किसानो के पक्ष में खड़े होते है, उनके हक के लिए लड़ते है और उन्हें जागरूक करने की कोशिश करते है। पहले शहर से दूर वाले गावो में रहने वाले किसानो को मंडी भाव पता नहीं होने के कारण बिचौलिए गलत भाव बताकर सस्ता सौदा ले आते थे और उसे स्थानीय मंडियों में उचे भाव पर बेचते थे। आज कास्तकार के साथी प्रतिदिन सुबह शाम लगभग हजार किसानो के मोबइल पर इन्टरनेट के माध्यम से अनाज से लेकर सब्जी तक के ताजे मंडी भाव भेजते है। इस तरह गाव के किसान बाजार भाव से परिचित हो जाते है। किसी दिन इन्टरनेट कनेक्शन में गडबडी की वजह से किसानो को यह अपडेट नही मिलता तो कास्तकार के साथियों के मोबाईल पर किसानो के फोन काल्स की झंडी लग जाती है। भेजते है। इस तरह गाव के किसान बाजार भाव से परिचित हो जाते है। किसी दिन इन्टरनेट कनेक्शन में गडबडी की वजह से किसानो को यह अपडेट नही मिलता तो कास्तकार के साथियों के मोबाईल पर किसानो के फोन काल्स की झंडी लग जाती है। किसानो के लिए हितकारी कोई योजना हो या सूचना, सरकारी स्तर पर आई हो या गैर सरकारी स्तर पर। कास्तकार के साथियों को मिलती है तो वे फौरन उस सूचना को पोस्टर बध करके उसकी दो-
कार किसी एनजीओ या ट्रस्ट का नाम नहीं है। यह सिर्फ एक मंच है, जिसका इस्तेमाल सिर्फ कास्तकार मंडल के सदस्यों ने अपने काम को सुबिधाजंक तरिको से आगे बढ़ाने के लिए किया है। चूकि इस मंडली के सदस्य ब्यक्ति पूजा की जगह काम की पूजा में यकीन रखते है।
कास्तकार के साथियों से परिचय के बाद, अब यह जानते है कि यह मंडली काम क्या करती है? 'कास्तकार' से जुड़े साथी किसानो के पक्ष में खड़े होते है, उनके हक के लिए लड़ते है और उन्हें जागरूक करने की कोशिश करते है। पहले शहर से दूर वाले गावो में रहने वाले किसानो को मंडी भाव पता नहीं होने के कारण बिचौलिए गलत भाव बताकर सस्ता सौदा ले आते थे और उसे स्थानीय मंडियों में उचे भाव पर बेचते थे। आज कास्तकार के साथी प्रतिदिन सुबह शाम लगभग हजार किसानो के मोबइल पर इन्टरनेट के माध्यम से अनाज से लेकर सब्जी तक के ताजे मंडी भाव भेजते है। इस तरह गाव के किसान बाजार भाव से परिचित हो जाते है। किसी दिन इन्टरनेट कनेक्शन में गडबडी की वजह से किसानो को यह अपडेट नही मिलता तो कास्तकार के साथियों के मोबाईल पर किसानो के फोन काल्स की झंडी लग जाती है। भेजते है। इस तरह गाव के किसान बाजार भाव से परिचित हो जाते है। किसी दिन इन्टरनेट कनेक्शन में गडबडी की वजह से किसानो को यह अपडेट नही मिलता तो कास्तकार के साथियों के मोबाईल पर किसानो के फोन काल्स की झंडी लग जाती है। किसानो के लिए हितकारी कोई योजना हो या सूचना, सरकारी स्तर पर आई हो या गैर सरकारी स्तर पर। कास्तकार के साथियों को मिलती है तो वे फौरन उस सूचना को पोस्टर बध करके उसकी दो-ढाई सौ कापी कराके गाव-गाव में जाकर चिपका आते है। कई बार बात दो ढाई सौ पोस्टर से नहीं बनती नजर आती तो वे हजार दो हजार पर्चे छपवा लेते है । समय-समय पर अलग-अलग गाव के किसानो के साथ अलग-अलग विषयों पर गोष्ठी करते है। जिससे कोशिश यही होती है की उस विषय से सम्बन्धित सभी समस्याओं का निदान उस गोष्ठी में ही हो जाए। यदि किसी सवाल में किसी प्रकार का संशय शेष रह जाता है तो कास्तकार के साथी उस विषय के विशेषग्य से मिलकर उस सवाल का निराकरण करते है। यह सच है की कास्तकार कुछ जुनूनी साथियों का एक छोटा प्रयास है लेकिन इस तरह के छोटे छोटे प्रयास जिले में किसी मुहीम की तरह शुरू हो जाय तो किसानो की आत्महत्याओं पर राजनीति नही होगी बल्कि लगाम लगेगी ।

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