Wednesday, September 26, 2012

फिर एक बार पंजाब रास्ता दिखा सकता है


राजगोपाल पी वी 
           
पंजाब को नजदीक से समझने का यह पहला अवसर था। दलित दासता विरोधी आंदोलन के कार्यकर्ताओं के साथ दलित बस्तियों से गुजरने का यह अनुभव बहुत दिनों तक मन में बना रहेगा। हरित क्रांति की चर्चा में पंजाब के दलितों का मुद्दा दब गया है। दलित आंदोलन के बारे में आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से निरंतर सुनते हैं, लेकिन पंजाब से कम सुनते हैं। यह मान्यता बनी हुई है कि पंजाब खुशहाल है और यहां सब लोग किसान है तथा हरित क्रांति का लाभ सबको मिला। जब पंजाब यात्रा करेंगे, तभी सच्चाई की जानकारी होगी। निरंतर सुनने वाली कहानियों से भिन्न है असलियत। दलित समाज बिल्कुल भूमिहीन है और कई जगहों पर बंधुआ मजदूर की स्थिति में है, चूंकि हरित क्रांति करने वाले किसानों को मजदूरों की जरूरत है और दलित मजदूरों को पैसे की जरूरत है। इसलिए बहुत सारे मजदूर कर्ज के दबाव में बंधुआ बनकर किसानों के साथ लगे हुए हैं। कहीं-कहीं पूरा परिवार बंधुआ बनकर किसान के साथ लगे हुए हैं।
 बंधुआ मुक्ति तथा पुनर्वास के कानून के बावजूद पंजाब सरकार इस बात को स्वीकारना नहीं चाहेगी कि उनके प्रांत में कोई बंधुआ मजदूर है। गुलामी प्रथा को समाप्त करने के लिए लाए गए कानून पर्याप्त नहीं हैं, उसके लिए एक  मानसिकता चाहिए। जिस देश को गुलामी पसंद है, उस देश से गुलामी प्रथा या बंधुआ मजदूरी समाप्त करना कठिन है। कुछ हद तक भारत देश अपनी कमजोरियों को छिपाने में ज्यादा समय खर्च कर रहे हैं, न कि सुधारने में। हम सबको पता है कि देश भर में दलित समाज के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं हुआ है। हमें यह भी पता है कि भारत में आज भी बंधुआ मजदूरी की प्रथा कई प्रांतों में है। यहां दलितों के लिए उपलब्ध जमीन, बड़ों ने कब्जा कर लिया है। भूमि सुधार की हर प्रक्रिया को नकार दिया गया है, यहां बंधुआ मजदूरी को छिपाने की कोशिश की जा रही हैं। चूंकि हरित क्रांति के कारण जमीन का दाम काफी ऊंचाई पर है। इसलिए हरेक आदमी जमीन पकड़ना चाहता है, जिसके पास जमीन है। जिन मकानों में या  कालोनियों में दलित लोग रह रहे हैं, वह भी उनका नहीं है। इसलिए बैंक से सहयोग लेना, किसी को जमानत पर छुड़ाना, इन गरीबों के बस की बात नहीं है। 
रासायनिक पदार्थ के अति इस्तेमाल के कारण जमीन के साथ-साथ पानी का स्त्रोत भी जहरीला हो चुका है। खाने वाले हर पदार्थ में जहर घुला हुआ है। पैसे की दौड़ में अपने आपको खत्म करने की तैयारी हरित क्रांति ने ढूढ़ लिया है। जैसे-जैसे पैसे की दौड़ तेज होती जाएगी, वैसे-वैसे शोषण की प्रक्रिया भी तेज होगी। शोषण सिर्फ धरती का ही नहीं, इंसान का भी हो रहा है।
भूमि सुधार जैसे महत्वपूर्ण काम से छुटकारा पाने के लिए सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए कुछ योजनाएं बना ली है। सस्ते दाम में राशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, शादी और मरणी में विशेष सहायता जैसे अनगिनत योजनाएं सरकार ने बना ली है। दुर्भाग्यवश इन योजनाओं पर भी बड़े लोगों की नजर है। इसलिए बहुत सारे लोग अपने आपको गरीबी रेखा में डालना चाहते हैं, ताकि उन सुविधाओं को भी हासिल कर सकें। चूंकि सरकारी तंत्र में अधिक लोग निष्क्रिय और भ्रष्ट हैं। इसलिए राशन हो या पेंशन प्राप्त करना अत्यधिक कठिन है। आवेदन लेकर दफ्तरों में घूमने वालों की संख्या कम नहीं है। समस्याओं के जाल में गरीब लोग इस प्रकार फंसे हुए हैं कि उन्हें यह विश्वास नहीं हो पा रहा है कि कभी इन समस्याओं से मुक्ति होगी। पिछले कई वर्षों से दलित दासता विरोधी आंदोलन जैसे संगठन दलित समाज के बीच सक्रिय हैं, जिनके परिणाम स्वरूप कई बंधुआ मजदूरों की मुक्ति हुई, मजदूरी दर में वृद्धि हुई, कहीं-कहीं सरकारी कर्मचारी गरीबों के हित में काम करने को बाध्य हुए और कहीं पंचायत की जमीन पर मकान बनाने का अधिकार मिला।
 जनसंख्या की दृष्टि से 30 प्रतिशत होने के बावजूद उनके पास पंजाब में डेढ़ फीसदी से अधिक जमीन नहीं है। यह जानते हुए कि यह सरासर अन्याय है, इस व्यवस्था को बनाए हुए है। ये अस्वाभाविक है। समतामूलक समाज की रचना एक कोरे कल्पना के रूप में एक किनारे पड़ी हुई है। इसमें धूल लगने लगे हैं। धीरे-धीरे कूड़ा-कचड़ा बनने की गुंजाइश है। 
पंजाब की यात्रा के दौरान ग्रामीणों ने बार-बार इस बात को कहा कि हमसे सब कार्ड वापस ले लीजिए हमें मनरेगा कार्ड, राशन कार्ड, बी.पी.एल. कार्ड से मतलब नहीं है, हमें सिर्फ एक एकड़ जमीन दे दीजिए। संपूर्ण परिवार के श्रम और जमीन को मिलाकर हम अपने जीवन को खुशहाल बना लेंगे। लोगों में जो राजनीतिक चेतना आई है, उसके परिणाम स्वरूप लोग अपने वोट को जमीन के एजेंण्डा में बदलना चाहते हैं। ग्रामीणों ने कहा कि अब तक अपना वोट एक बोतल शराब और चंद रुपयों में बेच देते थे, अब हम लोग एक एकड़ जमीन के बदले ही अपना वोट देंगे।
 स्वतंत्र भारत में एक मात्र समानता मिली है, वह है वोट। इसे अपने जीवन बदलने की दृष्टि से अब तक इस्तेमाल नहीं किया, अब करेंगे। एक नया नारा गांव-गांव में सुनाई पड़ रहा है। ‘पहले जमीन पीछे वोट, नहीं जमीन तो नहीं वोट’। अगर इस राजनीतिक चेतना का सही इस्तेमाल हुआ तो भूमि सुधार का एजेण्डा भारतीय पटल पर आ सकता है।
दलित और वंचितों की मुक्ति के साथ-साथ पंजाब के किसानों के बारे में बात करना जरूरी है। हो सकता है कि भूमि वितरण के मुद्दे को लेकर हम किसान के साथ नहीं है। कई अन्य मुद्दे हैं जिसमें हम किसान के साथ हैं। हरित क्रांति के नाम पर या खेती को उद्योग बनाने के दौर में किसान कर्जदार हो गए हैं। पूरे देश को खिलाने वाले किसान आत्महत्या करने को बाध्य हो गए हैं। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार छह हजार से अधिक किसान कर्ज से मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या कर चुके हैं। अपने उत्पादन का मूल्य स्वयं निर्धारित न कर पाने के कारण किसानों की यह दुर्गति हुई है। दुर्भाग्यवश हर किसान आंदोलन मूल्य वृद्धि पर बात करता है, लेकिन मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया पर बात नहीं करता है। 
हरित क्रांति के दौर में तमाम जमीन, पानी, भोजन जहरीला हो गया। उसका परिणाम किसान भुगत रहे हैं। भूमि अधिग्रहण की विषमता मुख्य रूप से किसान ही झेल रहे हैं। इस विषमता से लड़ने के लिए किसान और मजदूर का एक होना जरूरी है। इसलिए इस मौके पर किसान आंदोलन में लगे साथियों को यह समझना और समझाना जरूरी है कि मजदूरों को जल्द से जल्द किसान बनाने से जमीन बचाने की लड़ाई में और ज्यादा से ज्यादा लोग जुड़ेंगे। जैसे कम्पनी के लोग सभी बड़े लोगों को अपना शेयर होल्डर बनाकर यह महसूस कराते हें कि मुनाफे का हिस्सा तुम्हें भी मिलेगा। उसी प्रकार मजदूरों को खेती में शेयर होल्डर बनाने का समय आ गया है। जहां-जहां मजदूर और किसानों ने मिलकर जमीन बचाने की लड़ाई लड़ी, वहां-वहां सफलता मिली है।
पंजाब के हर गांव में जातीय आधार पर गुरूद्वारा या धर्मशाला बना हुआ है।
 अपने-अपने अस्तित्व की तलाश में लोग इकट्ठे हो रहे हैं, जातीय आधार पर इससे संगठनात्मक शक्ति तो बढ़ी है और अपने सम्मान का एजेण्डा मजबूत हुआ है। अब समय आ गया है कि संगठनात्मक शक्ति के आधार पर आर्थिक व्यवस्था पर चर्चा शुरू करें। विनोबा भावे ने यह कोशिश की कि जमीन का मसला समाज के साथ मिल बैठकर हल करें, उसमें सफलता भी मिली, लेकिन सरकार के सहयोग के अभाव में यह प्रयोग समाप्त हो गया। प्रयोग को समाप्त करने में कई ताकतों ने सरकार का साथ दिया। क्योंकि जमीन पर ग्राम समाज का अधिकार जमीन के बाजारीकरण को रोक रहा था। इसलिए आज भी सरकार के सक्रिय सहयोग की भूमिका के बिना समस्या का हल करना संभव नहीं है। 
वर्तमान प्रधानमंत्री तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष दोनों से पंजाब को उम्मीद है, इसलिए उनकी जिम्मेदारी बनती है कि इस प्रांत से गरीबी उन्मूलन का कार्य प्रारंभ करें। इस बात को भूलना नहीं है कि 2015 तक गरीबी मिटाने का वायदा हमने दुनिया से की है। कई बार कई वायदे झूठे साबित हुए हैं। सत्यमेव जयते का नारा लगाने वाला भारत इस बार वायदा झूठा होने से बचे। गरीबी उन्मूलन के लिए गरीब लोग संगठित और तैयार उसी प्रकार बैठे हैं जैसे मरीज आपरेशन टेबल पर तैयार लेटा हैं। अब समाज के बड़े लोगों को, सामाजिक संगठनों को तथा देश को चलाने वाले पार्टियों को यह करके दिखाना है कि ईमानदार संयुक्त प्रयास से भी मरीज बच भी सकते हैं और स्वस्थ हो सकते हैं। 

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