Thursday, August 9, 2012

विकास के नाम पर उजड़ते लोग


बीरेन्द्र कुमार चैधरी/ ग्वालियर

मध्य प्रदेश के तमाम आदिवासियों का आरोप है कि ‘म.प्र. भूमि सुधार अधिनियम-1969’ को सही से न लागू करने का परिणाम है कि उनकी जमीनों पर बाहर से आए लोग कब्जा कर रहे हैं

पनी छोटी-मोटी जरूरतों की पूर्ति के लिए वन एवं वन्य उत्पाद पर निर्भर रहने वाले आदिवासी आज बढ़ते पुंजीवाद और बाजारवाद का शिकार हो रहे हैं। स्वभाव से भोले-भाले इन आदिवासियों की जमीन पैसे वाले लोग, सरकारी महकमे के अधिकारियों व भू-राजस्व विभाग के कर्मचारियों की मिली भगत से हड़प रहे हैं। इन्हें न केवल इनके पारंपरिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है बल्कि गैरकानूनी तरीके से इनकी जमीन भी छीनी जा रही है। इस विषय में श्योपुर के एकता गांव के सरपंच गंगाराम आदिवासी कहते हैं- हमारा कोई सहारा नहीं, हमारी जमीन पैसे वाले जोत रहे हैं। वन अधिकारी पूरे जिले के आदिवासियों के वन अधिकार के फार्म को खारिज कर देते हैं। कारण कुछ भी स्पष्ट नहीं बताते। सच तो ये है कि पटवारी से लेकर ऊपर के अधिकारी की मिलीभगत से ऐसा होता है।
हाल में मुझे एकता परिषद द्वारा संचालित ‘जन सत्याग्रह’ का हिस्सा बनने का अवसर मिला। इस यात्रा के दौरान मैंने वंचित आदिवासियों के दर्द को करीब से समझा। इसी यात्रा में विजयपुर विधानसभा क्षेत्र के विधायक रामनिवास रावत को सुनने का मौका मिला। उनका आरोप है कि सभी सरकारी ;शासकीयद्ध जमीन जिसे आदिवासी जोत रहे हैं , मगर उसका पट्टा किसी और के पास है, जो यहां के स्थानीय निवासी भी नहीं हैं। रावत का मानना है, ऐसे पट्टों को तत्काल रद्द किया जाय, तभी समस्या से निजात पाया जा सकता है। श्योपुर के आदिवासियों के भोलेपन के चलते उनका दुख-दर्द सुनने को कोई भी अधिकारी तैयार नहीं है और पैसे वाले सेठ किसी न किसी बहाने उनकी जमीन छीन रहे हैं।
इसी यात्रा के दौरान आवास को लेकर जो आंकड़े सामने आए, उसे जानकर आप दंग रह जायेंगे। सहरिया आदिवासियों का 12000 परिवारों के पास रहने के लिए घर नहीं है। मध्य प्रदेश के आदिवासियों का आरोप है कि ‘मप्र भूमि सुधार अधिनियम-1969’ को सही से न लागू करने का परिणाम है कि उनकी जमीनों पर बाहर से आए लोग कब्जा कर रहे हैं। जमीन के मामले में केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियां भी विराधाभाषी हैं। यह भी दुःखद है कि वर्तमान में 100 से अधिक आदिवासी सांसद होने के बावजूद, भूमि सुधार को लेकर कोई आवाज नहीं उठती।
यूं तो आदिवासियों के वन-अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार ने ‘वन-अधिकार अधिनियम-2006’ पारित कर दिया है लेकिन इस अधिनियम का लाभ जिसे मिलना चाहिए वे उससे वंचित हैं।
रणथंभोर अभ्यारण्य ;राजस्थानद्ध से सटे छाना गांव के सरपंच मो. हनीफ बताते हैं - ‘जंगली जानवर हमारी फसलों को उजार देते हैं और वन-अधिकारी उलटे हमलोगों को ही तंग करते हैं। यहां न तो शिक्षा की उचित व्यवस्था है और न स्तरीय बुनियादी सुविधाएं। वन-अधिकारी हमें यहां से चले जाने के लिए नोटिस तक दे चुके हैं, पर हम जाएं तो जाएं कहां?’ मो. हनीफ का ये दर्द सिर्फ उनका नहीं बल्कि उड़ीसा, प.बंगाल, बिहार, उ.प्र. आदि राज्यों में पड़ने वाले अभ्यारण्यों के आस-पास के लोगों का भी दर्द है। इन्हें भी वन-अधिकारी विस्थापन की नोटिस तो वर्षों पहले थमा चुके हैं पर इनके पुनर्वास की योजना उनके पास नहीं है। जबकि पूर्व के बने अधिनियम सभी सुविधाओं के साथ पुनर्वास की बात करता है। छान गांव के एक अन्य निवासी रामसेवक का आरोप है कि वन-अधिकारी उनकी जान को जानवरों की जान से कहींे कम आंकते हैं।
यात्रा के बढ़ते चरण के साथ हम भी बढ़ रहे थे व लोगों की समस्या से रू-ब-रू होते जा रहे थे। एसा लग रहा था कि मै देश के अंदर ही किसी दूसरे देश में आ गया हूंॅजहां लोगों के पास समस्याएं तो हैं और सरकारी महकमा उसे खत्म करने की जगह बढ़ाना बेहतर समझते। कहीं चारागाह की समस्या तो कहीं विस्थापन का नोटिश, कहीं आवासहीन लोग तो कहीं जीवन की बुनियादी सुविधाओं का बाट जोहता मानव। पर इन तमाम समस्याओं के बीच ये जन-सत्याग्रह, ऐसा लग रहा था कि मानो यह आशा की किरण हो।
यात्रा के साथ जब हम सुकार गांव पहुंचे तो ग्रामिणों से मिलकर पता चला कि उनके मन में राजस्थान सरकार के प्रति कितना गुस्सा है। अपने जीवन के आठ दशक पार कर चुके रामजीलाल भंवर बोले- ‘हम तो पढ़े लिखे हैं नहीं, अपने जमाने में स्कूल का मुंॅह भी नहीं देखा। आज गांव में स्कूल तो है और बच्चे पढ़ने भी जाते हैं पर जिसे पढ़ई कहते हैं वह नहीं है। यही नहीं यहां बिजली पानी समेत आजीविका की समस्याएं है जिस पर सरकार को तत्काल ध्यान देना होगा। और उसमें भी पानी पर सबसे पहले। 100 से अधिक परिवार वाले इस गांव में कम से कम 5नल लगने चाहिए। अभी गांव वाले स्कूल के सामने वाली टंकी से लोग अपना प्यास बुझाते हैं जहां हमेशा लोगों का तांता लगा रहता है।’ और जब मैं पूरा गांव घूमा तो रामजीलाल की बातों मे सच्चाई दिखी। गांव के सरपंच रामधन का आरोप है कि न तो सरकारी महकमा गांव की सुध लेते नविधायक और न ही सांसद। वहीं जब हम निवाई पहुंचे तो वहां के ग्रामिणों व किसानों की तीन समस्या मूल रूप से लागों ने बताया। इन समस्याओं को विस्तार से किसान सेवा समिति के अध्यक्ष मदनलालजी सूरमा ने बताया। पहली समस्या गांव के चारागाह की भूमि पर बाहुबलियों का अवैध कब्जा, दूसरा दलितों, आदिवासियों के लिए आवास और आजीविका की समस्या और तीसरा जो सबसे महत्त्वपूर्ण है वह है- विसनपुर के विस्थापितों को निवाई के चारागाह की जमीन दे दी गई और वे लोग इसे बेचकर कहीं चले गए मगर यहां के ग्रामिणों के हिस्से झंझट छोड़ गए। गांव वाल इन तीनो समस्या का समाधान चाहते हैं।
वहीं निवाई में ही एक अन्य जगह ग्रामदानी सभा से जुड़े गांवों की समस्या से अवगत हुआ जो विकराल रूप लेता जा रहा है। ग्रामदानी व्यवस्था के अनुसार पूरी जमीन पर सामाजिक स्वमित्व की अवधारणा थी जिसका देख-रेख ग्रामदानी बोर्ड करती थी। पर जब से राजस्थान सरकार ने ग्रामदानी बोर्ड को खत्म किया है यह विवाद का विषय बन गया है। इलाके के चनैरिया, नैनकी ढाली, लाखावास आदि दर्जन भर से अधिक गांवों के लोग इससे परेशान हैं। जब वे भू-राजस्व अधिकारी के पास जाते हैं वे संबंधित कागज मांगते हैं जो उनके पास नहीं है और जब वे सरपंच के पास जाते हैं तो वे ग्रमदानी बोर्ड का हवाला देकर अपना पल्ला झार लेते हैं। सबसे खास बात तो ये है कि इनमें से कुछ ग्रामीण तो ऐसे भी हैं जिनके पास 100बीघे से भी अधिक जमीन का मालिक होने के बावजूद भूमिहीनों के समान हैं। कारण उनकी जमीनों पर उनका ही कब्जा नहीं है। डिडावता के मोहनलाल वर्मा इसका एक उदाहरण है जिनके पास कहने को तो 213बीघा जमीन है पर उस पर उनका कब्जा आज नहीं है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण आपको यहां मिल जाएंगे।
एक तरफ समस्या है तो दूसरी तरफ समाधान की तलाश और इनके बीच पीसती आम जनता। अब देखना होगा कि सरकार समय रहते इसका समाधान खोजती है या नहीं। पूरी यात्रा के दौरान जमीन से जुड़ी समस्या ही देखने को मिली मगर हमारी। लोगों को भू-अधिकार से वंचित कर विशेष आर्थिक क्षेत्र बना रही है। यदि वक्त रहते जनता की मंशा को न समझा गया तो हो न हो हमारा देश भी एक दिन विकास की पटरी से न उतर जाय।

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