Thursday, October 20, 2011

हरियाली से खुशहाली की अनूठी पहल


बाबा मायाराम
इन दिनों मध्यप्रदेश के बैतूल और हरदा जिले में भूख, कुपोषण और पर्यावरण सुधार के लिए हरियाली-खुशहाली की अनूठी मुहिम चलाई जा रही है। और इसे वनविभाग नहीं, आदिवासी चला रहे हैं। इसके तहत् खेत, बाड़ी, और जंगल की खाली जमीन पर फलदार और छायादार वृक्ष लगाए जा रहे हैं जिससे कुपोषण से निजात मिल सके, आमदनी बढ सके और रूखे-सूखे जंगल को फिर से हरा-भरा बनाया जा सके। पर्यावरण सुधारा जा सके और जैव विविधता का सवर्धन और संरक्षण किया जा सके।

बैतूल जिले के चिचौली और शाहपुर विकासखंड में आदिवासी इस मुहिम में जुटे हुए हैं। यह मुहिम 24 जुलाई से ’शुरू हुई है, जो 30 सितंबर तक चलेगी। इसके तहत् चीरापाटला गांव में 24 जुलाई को, भौंरा मे 5 अगस्त को और चूनाहजूरी में 20 अगस्त को सैकड़ों की तादाद में आदिवासी एकत्र हुए। आदिवासियों ने कावड़ में पौधे सजाकर पूरे बाजार में जुलूस निकाला। हर व्यक्ति के हाथ में दो फलदार पौधे थे। सामूहिक रूप से सैकड़ों पौधों का रोपण किया गया। यहां सकि्रय श्रमिक आदिवासी संगठन और समाजवादी जनपरिषद द्वारा इस सकारात्मक मुहिम को चलाया जा रहा है।

आदिवासियों के अधिकारों के लिए बरसों से सकि्रय सामाजिक कार्यकर्त्ता राजेन्द्र गढ़वाल कहते हैं कि पहले जंगलं आम, आंवला, बेर, अचार, महुआ, जामुन जैसे फलदार वृक्षों से भरा था। लेकिन अब यह फलदार व्क्ष खत्म हो गए हैं। फिर से जंगल को हरा-भरा करना जरूरी है जिससे आदिवासियों को भूख और कुपोषण से बचाया जा सके। उनकी आमदनी बधाई जा सके। इसके तहत अपने घरों के बाड़े में, खेत में, गांव की खाली जमीन पर व जंगल में पेड़ लगाए जा रहे हैं। सामूहिक रूप से आम, जाम, इमली, आंवला, बेर, जामुन, सीताफल, मुनगा, कटहल आदि पेड़ लगाए जा रहे हैं। बैतूल जिले में एक माह में 25 हजार पौधों का रोपण करने का लक्ष्य रखा गया है।

समाजवादी जनपरिषद की नेत्री‘’ामीम मोदी कहती है कि हम तो हर साल यह मुहिम चलाते हैं लेकिन वनविभाग का सहयोग नहीं मिलता बल्कि वे पेड़ों को ही उखाड़ देते हैं। उन्होंने चिचौली विकासखंड के पीपलबर्रा का गांव का उदाहरण दिया, जहां वनविभाग और वन सुरक्षा समिति के लोगों ने पेड़ो में आग लगा दी थी। उनका कहना है अब तक अरबों रूपयों की वानिकी परियोजनाएं भी असफल साबित हुई हैं। अगर लोगों की जरूरत के हिसाब से वृक्षारोपण किया जाए तो इसके सकारात्मक नतीजे आएंगे।

इसकी तैयारी आदिवासी गर्मी के मौसम से ही शुरू कर देते हैं। बीजों को एकत्र करना, उनकी साफ सफाई करना, भंडारण करना, पौधे तैयार करना और फिर जंगल में लगाना। कुछ गांवों के लोग जंगल या नदी किनारे लगे आम पेड़ के नीचे उगे छोटे पौधों का वितरण करते हैं। आम के पेड़ ही ज्यादा लगाए जा रहे हैं, क्योंकि उसके पौधे आसानी से उपलब्ध हो रहे हैं। इसके अलावा, चीकू और काजू के पौधों का रोपण भी किया जा रहा है।

आदिवासियों का जीवन मौदि्रक नहीं, अमौदि्रक है। वे प्रकृति से सबसे ज्यादा करीब से जुड़े हुए हैं। प्रकृति से उनका मां-बेटे का रिश्ता है। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी उनकी जरूरत है। वे पेड़- पहाड़ को देवता के समान मानते हैं। वे अपनी जिंदगी मे प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर हैं।

लेकिन जंगलों में फलदार पेड़ कम होने से उनकी आजीविका और जीवन पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। उन्हें भूख और अभाव में कठिन दिन गुजारने पड़ रहे हैं। ये फलदार पेड़ और कंद-मूल उनके भूख के साथी हैं।

इस मुहिम से जुड़े मनाराम, सुखदेव, संतोष, रोनू, और शंकर कहते हैं कि पहले जंगल से हमें कई तरह के फल-फूल और कंद-मूल मिलते थे। महुआ, तेंदू, अचार, मैनर, आंवला आदि कई चीजें मिलती थीं। और ये सब नि’ाुल्क उपलब्ध थी। लेकिन अब नहीं मिलती।

जंगलों में फलदार वृक्ष कम होने के कई कारण हैं। एक तो जंगल में सागौन और बांस लगाए जा रहे हैं। दूसरा जंगल में कुछ लोग लालचवश फलदार वृक्षों से कच्चे फल तोड़ लेते हैं। उन्हें पकने से पहले ही उन्हें झड़ा लेते हैं। टहनियां भी तोड़कर फेंक देते हैं जिससे तेजी से जंगलों में फलदार वृक्ष कम हो रहे हैं। इन पर रोक लगना ही चाहिए। साथ ही पौधे लगाकर फिर से जंगल को हरा-भरा करना भी जरूरी है।

कुछ वर्ष पहले बोरी अभयारण्य में भी आदिवासियों ने फलदार वृक्षों को बचाने की मुहिम चलाई थी। यह अलहदा बात है कि अब इन्हीं आदिवाशियों को जंगल में शेर पालने के नाम पर उजाड़ा जा रहा है। बहरहाल, इस नई पहल मे न केवल जंगल के पेड़ों को बचाया जा रहा है बल्कि नए पेड़ लगाए जा रहे हैं। इससे पर्यावरण का सुधार और जैव विविधता का संरक्षण और सवर्धन भी होगा। आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी। बहरहाल, यह सकारात्मक व जनोपयोगी पहल सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।

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