मीनाक्षी अरोड़ा और सिराज केसर
दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) हिमाचल प्रदेश पॉवर कार्पोरेशन लिमिटेड (एचपीपीसीएल) के साथ मिलकर अपनी पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए ददाहू कस्बे के पास गिरि नदी पर एक बांध बनाने की कोशिश में जुटा है। यह कस्बा हिमाचल के सिरमौर जिले में है। गिरि नदी पर बन रहे रेणुका बांध के तुगलकी फरमान के तहत ददाहू (सिरमौर, हिमाचल) के 37 गांवों के कम से कम 6000 लोग विस्थापित होंगे, 1600 हेक्टेअर जमीन बांध में जलमग्न हो जायेगी, जिनमें ज्यादातर अति उपजाऊ जमीनें या घने जैवविविधता वाले जंगल हैं। गिरि नदी यमुना नदी की सहायक नदी है। इस स्थान पर 148 मीटर ऊंचे बांध बनने का मतलब है काफी घरों, खेतों- जंगलों और रेणुका वन्यजीव अभ्यारण्य के भी एक हिस्से को डूब जाने का खतरा।
148 मीटर ऊंचे बांध की वजह से लगभग 24 किमी. लंबा कृत्रिम जलाशय बनेगा और उसमें डूब जायेंगे 18 लाख पेड़। रेणुका बांध निर्माण में गलतबयानी के कई नमूने उजागर हुए हैं। रेणुका बांध संघर्ष समिति के पूरनचंद कहते हैं कि किसी भी तरह गिन लीजिए 15 लाख पेड़ से ज्यादा ही बैठेगा। हुआ वही। एचपीपीसीएल ने डूब क्षेत्र में पेड़ों की गिनती करने के लिए शुरू में जिन ठेकेदारों को रखा था उन्होंने लगभग 18 लाख पेड़ बताए। एचपीपीसीएल के नौकरशाहों को लगा कि इतने ज्यादा पेड़ों की गिनती बांध परियोजना को ‘फॉरेस्ट क्लीयरेंस’ मिलने में दिक्कत पैदा करेगा। यह जानकारी आम जन तक पहुँचे इसके पहले एचपीपीसीएल को कुछ नये आंकड़े लाने थे। उन्होंने ‘टेस्ट चेक’ करवाए। उस हिसाब से भी 12 लाख 65 हजार पेड़ की गिनती बनती थी। इस आंकड़े से भी बांध परियोजना को ‘फॉरेस्ट क्लीयरेंस’ मिलने में बाधा थी। ऐसे में एचपीपीसीएल के नौकरशाह नई चाल चल रहे हैं। डूब क्षेत्र में आने वाले किसानों की जमीनों पर खड़े पेड़, चारागाहों की जमीनों पर खड़े पेड़, ग्रामसभा और सरकारी जमीनों पर खड़े पेड़ों की गिनती कम करने की फिराक में लगे हुए हैं। ले-देकर फिर बचा केवल रिजर्व फॉरेस्ट का एरिया और वन्य जीव अभ्यारण्य का क्षेत्र और उन पर फैले 1 लाख 51 हजार 439 पेड़। अब नये आंकड़ों को निकालने के लिए पेड़ों की फिर से गिनती हो रही है। जोड़-तोड़कर एचपीपीसीएल बांध परियोजना पर फॉरेस्ट क्लीयरेंस लेने की कोशिश में लगा हुआ है।
ऐसे में एचपीपीसीएल की एक और नई साजिश देखने में आ रही है कि वह लोगों को जल्दी से जल्दी मुआवजा देना चाहता है ताकि लोगों के लालच को उभारा जा सके। जिन गांवों में एचपीपीसीएल के अनुसार पेड़ों की गिनती पूरी हो चुकी है उनको जल्दी से जल्दी मुआवजा देने की कोशिश की जा रही है। क्योंकि ऐसे में गांव वालों को यह लगता है कि अब मुआवजा मिल ही चुका है, तो ये पेड़ सरकारी हो चुके हैं। इन पेड़ों को नौकरशाहों के मुह लगे ठेकेदार काटें इससे पहले ही वे खुद काट लेते हैं। ये ऐसी सुनियोजित साजिश है जिसमें पेड़ गांव के लोग खुद ही काट रहे हैं और एचपीपीसीएल के बांध परियोजना में बाधा जंगल और पेड़ों की गिनती अपने आप कम होती जा रही है।
एचपीपीसीएल को इस बांध परियोजना के लिए अभी कई वैधानिक मंजूरियों की जरूरत है। इसके बावजूद भूमि अधिग्रहण की धारा 17(4) के तहत जमीन अधिग्रहण की जा रही है। यह धारा सभी तरह की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए तत्काल जमीन अधिग्रहण का रास्ता साफ करती है। देश में 18 से ज्यादा ऐसे कानून हैं जिनसे सरकारें जमीन अधिग्रहण करती हैं। हजारों बांध परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण करके लाखों हेक्टेयर जंगल हम डूबो चुके हैं। मजेदार बात यह है कि आजादी के 64 साल बाद भी ‘वन या जंगल क्या होता है’ इसकी कोई परिभाषा नहीं बनाई जा सकी है। कोई क्षेत्र वन क्षेत्र क्यों होता है और वन क्षेत्र कैसे घोषित किया जाता है। इसका पर्यावरण और वन मंत्रालय के पास कोई जवाब नहीं है। अभी हाल ही में एक आरटीआई में मांगी गई सूचना के जवाब में पर्यावरण मंत्रालय के ‘ग्रीन इंडिया मिशन’ के संयुक्त सचिव बृजमोहन सिंह राठौर का कहना है कि हम अब भी वनों की परिभाषा पर काम कर रहे हैं और एक बार यह परिभाषा तय हो जाने के बाद बता दिया जाएगा। पर्यावरण और वन मंत्रालय के आधिकारिक दस्तावेज बताते हैं कि भारतीय वन कानून 1927 वनों को परिभाषित नहीं करता और जंगलों क कानूनी सीमा अधिसूचनाओं की प्रक्रिया पर निर्भर करती है। जरूरतों के लिए सर्वोच्च न्यायालय के 1996 के फैसले के आधार पर वनों को परिभाषित किया जाता है। इस फैसले में कहा गया था कि शब्दकोश में दी गई परिभाषा या किसी सरकारी दस्तावेज में वनों के नाम से दर्ज भूमि के रिकार्ड के आधार पर किसी इलाके को वन माना जा सकता है। हास्यास्पद बात यह है कि वनों की कोई मान्य परिभाषा न होने के बावजूद देश में वानिकी मिशन (ग्रीन इंडिया मिशन) को मंजूरी दी गई है। यह मिशन जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना की आठ परियोजनाओं में से एक है। ‘ग्रीन इंडिया मिशन’ पर 450 करोड़ रुपए खर्च करके एक करोड़ हेक्टेयर भूमि को 2020 तक वनों से आच्छादित करने की बात करता है।
पेड़ों के लिए लम्बी लड़ाई लड़ रहे जेपी डबराल कहते हैं कि इंसानी लालच के चलते हमारी पेड़ों की अमूल्य धरोहर हमसे छीनती जा रही है। चंद पैसों के लिए हम पर्यावरण को बेच रहे हैं। किसी भी परियोजना में प्रतिपूरक वनीकरण एक मजाक जैसा ही है। रेणुका बांध की वजह से कट रहे 15 लाख पेड़ के प्रतिपूरण में 15 हजार पेड़ भी लगा लें तो बड़ी बात होगी। गिरि के डाऊनस्ट्रीम में पड़ने वाले कई कस्बों में पानी का संकट हो जाएगा। उद्योगपति सुबोध अभि जो जन एकता समिति से जुड़े हैं, कहते हैं कि अब तो यह बात साफ हो गयी है कि बांधों में गाद के साथ-साथ ही ऑर्गेनिक मटीरियल भी जमा हो जाते हैं और वे मीथेन गैस पैदा कर रहे हैं। बांध जितने पुराने होते हैं, मीथेन उत्सर्जन की मात्रा बढ़ती जाती है। पर्यावरण मंत्रालय इसको भी पर्यावरण मूल्यांकन में शामिल करने की बात तो करती है। पर करती नहीं।
दिल्ली - लालच
दिल्ली के इतिहास में एक रोचक प्रसंग दिल्ली के सुल्तान तुगलक के काल का है, जब उसने 1326 में दिल्ली से राजधानी उठाकर दौलताबाद (देवगिरी, अहमदनगर, महाराष्ट्र ) ले जाने का प्रयास किया था। दिल्ली से 700 मील दूर दौलताबाद लोग जाने को तैयार नहीं थे, जो नहीं जाना चाहते उन्हें डंडे के जोर पर ले जाने का फरमान हुआ। हां दौलताबाद राजधानी तो बना नहीं पर इस तुगलकी फरमान से हजारों लोग रास्ते में मर गए और दिल्ली काफी वक्त के लिए उजाड़ हो गई थी।
दिल्ली अपने तुगलकी फरमान के उसी रास्ते पर चल रही है। दिल्ली से 250 किमी दूर रेणुका बांध दिल्ली में पानी की कमी को पूरा करने के लिए बनाया जा रहा है। पर लगता तो ऐसा है कि दिल्ली की प्यास शायद ही बुझाई जा सकती है। दिल्ली राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों का इस्तेमाल करके आसपास के इलाकों और प्रदेशों का पानी छीनकर प्यास बुझाने में लगी हुई है। भाखड़ा नांगल बांध, टिहरी बांध के बाद अब रेणुका बांध पर नजरें गड़ाए हुए हैं इसके साथ ही यमुना से पानी का और ज्यादा हिस्सा, उत्तराखंड में किसाऊ और लखावर-व्यासी बांध से भी पानी पाने की भी उम्मीद किए हुए है। दिल्ली मुख्यतः ‘दौलताबाद’ यानी लम्बी दूरियों से आयात किये जाने वाले पानी पर निर्भर है। इसके बावजूद दिल्ली में लाइसेंस प्राप्त पानी के बॉटलिंग प्लांट, दिल्ली जल बोर्ड एवं रेलवे के प्लांट सहित, गोल्फ कोर्स, वाटर पार्क आदि बहुत सारी टाली जा सकने वाली जल आधारित गैर जरूरी गतिविधियों की अनुमति जारी है। ऐसे में दिल्ली लम्बी दूरी से पानी लाने को कैसे जायज ठहरा सकती है, जबकि ऐसे गैर-जरूरी पानी की खपत वाली गतिविधियों के जारी रहने की अनुमति है? भारत के सभी शहरों में दिल्ली में प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति सबसे ज्यादा है। यहां जल आपूर्ति 200 लीटर प्रति व्यक्ति से ज्यादा है जबकि अगर अन्य शहरों पर नजर डालें तो बंगलुरु (74),चेन्नई (87). कोलकाता (130) और मुंबई (191) है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेजों में भी यह बात स्वीकार की गई है कि दिल्ली में प्रति व्यक्ति जलापूर्ति पेरिस से भी ज्यादा है। हांलाकि दिल्ली में पानी के वितरण की असमानताएं इन संख्याओं में दिखाई नहीं देती। सच तो यह है कि दिल्ली को जितना ज्यादा पानी मिलता है। यह उतना ही बेपरवाही से इसका इस्तेमाल भी करता है। दिल्ली जल बोर्ड के निजीकरण के लिए जोर देते समय दिल्ली जल आपूर्ति और सीवेज परियोजना )निरस्त( के तहत विश्व बैंक ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि दिल्ली का 40 प्रतिशत पानी पुराने और टूटे-फूटे पाइपों की वजह से बर्बाद हो जाता है। यानी दिल्ली लगभग 720 एमजीडी पानी की आपूर्ति करता है और नुकसान 288 एमजीडी का होता है। यह नुकसान ही रेणुका परियोजना से की जाने वाली जल आपूर्ति से ज्यादा है। तो इसका मतलब यह हुआ कि रेणुका बांध सिर्फ इसलिए बनाया जा रहा है कि पानी बर्बाद करने वाले इस बेपरवाह शहर के लीकेज और नुकसान की भरपाई की जा सके।
पर जब विनाशकाले विपरीत बुद्धि हो तो ...?
रेणुका परियोजना से प्रभावित होने वाले 37 गांवों के लोग विस्थापन पुनर्वास और मुआवजे जैसे मुद्दे उठा रहे हैं पहले तो उन्हें परियोजना से जुड़े अधिकारियों के वादों पर यकीन था कि उन्हें अच्छे से अच्छा पुनर्वास और मुआवजा दिया जाएगा। बाद में जब उन्होंने देखा कि जमीन के बदले में कोई जमीन नहीं थी बस उनके नुकसान के लिए मात्र कुछ रुपयों की पेशकश की गई थी। अंत में जमीन की जो कीमत पेश की गई उससे तो लोगों का भ्रम पूरी तरह टूट गया। सिरमौर जिले में जहां एक बीघा जमीन का दाम 8-12 लाख के बीच था वहीं उन्हें पचास हजार से डेढ़ लाख प्रति बीघा की पेशकश की गई थी। यानी इतना थोड़ा पैसा कि वह अपनी जमीन खोकर उस पैसे से कहीं और जमीन खरीदने की स्थिति में नहीं थे। कुल मिलाकर देश में चल रही बाकी और परियोजना की तरह इन्हें भी बेघर और भुखमरी के जीवन में ढकेल दिया जाएगा। स्थानीय निवासियों ने अब रेणुका बांध का विरोध करने का पूरी तरह मन बना लिया है। अब उन्होंने इस परियोजना के आधार पर भी उंगलिया उठानी शुरू कर दी है। उनका कहना है कि अगर दिल्ली गिरि नदी का पानी इस्तेमाल करना ही चाहता है तो उसमें डैम बनाने की क्या जरूरत है यही पानी तो यमुना में बहकर दिल्ली तक जाता ही है। पर जब विनाशकाले विपरीत बुद्धि हो तो....?
- लेखक द्वय इंडिया वाटर पोर्टल हिन्दी से जुड़े हुए हैं।
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