Friday, October 21, 2011
पहाडि़या के जीवन में हो रहा है बदलाव,आजिविका मिली घरमें
Thursday, October 20, 2011
हरियाली से खुशहाली की अनूठी पहल
Saturday, October 15, 2011
रावण के पुतले की ख्वाहिश और हमारे तिहाड़ी नेता
अविनाश वाचस्पति
सरकार को एक ई मेल मिलती है और कईयों की नींद उड़ जाती है जबकि उनमें से बहुतेरे ऐसे होते हैं जिन्हें नींद आती नहीं है पर वे भी यही अहसास कराते पाए जाते हैं कि उनकी नींद उड़ गई है। अब उड़कर कहां गई है, यह तो कोई नहीं जानता परंतु वे उस नींद को इस हालिया मिली ई मेल में तलाशने में लग गए हैं। ई मेल में खबर यह है कि इस बार पुतलों ने विद्रोह कर दिया है। जबकि इसमें विशेष यह है कि रावण के पुतलों ने नेताओं के मुखौटे पहनने से साफ मना कर दिया है। दशहरा नजदीक है और उससे नजदीक रामलीला हैं। इसलिए इस आशय का ई मेल कई रामलीला कमेटियों को मिला है। सरकार का रामलीला विभाग इस जानकारी को जुटाने में लग गया है कि पुतलों के नाम पर खाते खोलकर कौन यह कार्य कर रहा है या पृथ्वीलोक से इतर लोकों में भी इंटरनेट, फेसबुक इत्यादि की सुविधा मिलनी शुरू हो गई है। मेल में साफ चेतावनी दी गई कि अगर मेरे चेहरे पर कपिल, मनीष, राहुल, कनिमोझी, कलमाड़ी इत्यादि नेताओं के मुखौटे पहनाए गए, तो हम नहीं जलेंगे। नेताओं के इतने बुरे दिन आयेंगे, ऐसी कल्पना खुद इन पुतलों ने भी नहीं की होगी, इसलिए रावण की इन ई मेलों को काफी गंभीरता से लिया जा रहा है। देश भर में सर्वत्र रामलीला आयोजकों के बीच गहन चिंता व्याप्त हो गई है। जबकि राजधानी में आक्रोश जाहिर करने के लिए सामान्य तौर पर नेताओं के पुतले खूब फूंके जाते रहे हैं। परंतु हालिया बुरी स्थिति इस बार नेताओं के तिहाड़ में अड्डा जमाए जाने के कारण उत्पन्न हुई, लग रही है।
मेल में राहत की खबर यह है कि महंगाई, भ्रष्टाचार, बेईमानी के मुखौटे पहनाने पर छूट दी गई है। जिससे रावण दहन के अवसर पर पुतलों पर समाज में व्याप्त बुराईयों का दमन भी किया जा सके। मेल में यह भी उल्लेख है कि यदि महंगाई, भ्रष्टाचार, बेईमानी के पुतलों के चेहरों की कल्पना करने में सर्जकों का दिमाग चेतना शून्य जैसा महसूस कर रहा हो तो वे निस्संकोच हमें जानवरों और पक्षियों यथा कुत्ते, गधे, उल्लू, सियार, बंदर, बिल्ली, गिरगिट जैसे प्राणियों के मुखौटे पहना सकते हैं। इस पर हमें कतई एतराज नहीं होगा। अभी तो इस बात पर विचार किया जा रहा है कि जब इन सब बुराईयों का उद्गम नेताओं से ही होता है। फिर भी रावण के पुतलों ऐसे मुखौटे पहनने से इंकार करने में, कहीं नेताओं की मिलीभगत ही तो नहीं है। वैसे सरकार इस फर्जीवाड़े पर रोक लगाने के लिए कमर कस चुकी है। एक सलाह पर अमल करते हुए यह तय किया गया है कि पुतलों की या तो आंखें ही नहीं बनाई जायेंगी और अगर अंधे पुतलों से जनमानस में रोष की स्थिति पैदा होती दिखी, तो उस स्थिति से निपटने के लिए काले चश्मे तैयार रखे जाएंगे और सभी पुतलों को उन्हें तुरंत एक अध्यादेश जारी कर, कानून बनाकर पहना दिया जाएगा। जिससे बिना किसी विरोध के पुतलों पर चश्मा चढ़ाने का कार्य निर्विघ्न पूरा हो सके। जैसा सलूक आज तक नेता लोग अपने वोटरों की आंखों के साथ करते रहे हैं। सरकार के भीतर से यह खबर लीक न हो सके और न ही विकीलीक्स इसकी जानकारी पाकर चीख उठे, इसे नितांत गोपनीय रखने की व्यवस्था कर ली गई है। इसी के चलते यह व्यंग्य आपको अक्टूबर माह में पढ़ने को मिल रहा है। अब पुतलों को बुत समझने के लिए लद गए, समझ लीजै।
जबकि आपको यह भी समझ लेना चाहिए कि तितारपुर दिल्ली में रावण के पुतलों का बाजार सज चुका है। 5 सितम्बर से पुतले बनाने का कार्य जोरों पर है। अब तक 5000 पुतले तैयार हो चुके हैं, जिन्हें गाजियाबाद, गुड़गांव, फरीदाबाद, सोनीपत, पानीपत, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में जलाने के लिए हमेशा की तरह ले जाया जाने लगा है। वैसे भी पुतलों को घर के अंदर या छत के ऊपर तो बनाया नहीं जा सकता और न ही इनको स्टेडियम के अंदर जलाया जाता है। यह सब नेक कार्य खुले में संपन्न होते हैं। आप तो यह भी नहीं जानते होंगे कि पुतले बनाने के लिए बांस असम और केरल से दिल्ली लाया जाता है। बांस भी सख्त और मुलायम किस्म का होता है। मुलायम बांस से 20 फुट तक के पुतले और सख्त बांस से 40 फुट और बड़े पुतले बनाए जाते हैं। इतने पुतले बन चुके हैं कि अभी से पुतलों के लिए जगह कम पड़ने लगी है। आप अगर तितारपुर से गुजरे होंगे तो आपने देखा होगा कि विभिन्न विशालकाय पुतले मेट्रो लाइन के नीचे और स्टेशन के नीचे डेरा डाले हुए हैं। पिछले 35 सालों से पुतले बनाने का यह कार्य यहां पर किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि इस बार बच्चे पुतले बनाना देखने के साथ, कच्चा सामान जैसे बांस, स्टील की तार, धोती, कागज, पेंट पटाखे खरीद कर साथ ले गए हैं और उन्होंने भी इस कला में अपने हाथ आजमाए हैं। आपको मौका मिले तो अपने पड़ोस के पुतलों को एक नए नजरिए से देखने की कोशिश अवश्य कीजिएगा।
Wednesday, October 12, 2011
Lessons in quality
Fast forward, now pause
Jolt from slumber
Monday, October 10, 2011
Land-locked Govt
Saturday, October 8, 2011
More Qs than answers
Sangita Jha/New Delhi
Rural development minister Jairam Ramesh takes credit for fast-tracking Land Acquisition and Rehabilitation and Resettlement (LARR) Bill, 2011. He is right as far as the draft bill was drafted
and introduced in the Parliament in a flat 55 days since he took charge of the ministry from his predecessor Vilasrao Deshmukh. However, the LARR Bill, 2011 appears to have a clear bias against planned urbanisation. For any township to be set up, which is critical part of planned urbanisation, a developer needs at least 100 acres of land, while the ideal is stated to be about 150 acres.
Ramesh takes credit for introducing one combined legislative proposal for acquisition of land and resettlement of the affected people. The LARR Bill, 2011 makes it mandatory that the acquisition of more than 50 acres of land in the urban areas would require giving
rehabilitation and resettlement to the affected people. Housing experts have claimed that the land cost which was so far about 30 per cent of the total project cost could go all the way to about 60 per cent after the LARR Bill, 2011 becomes a law. The additional cost has to be borne by the end user, that is the flat buyers. Though the representatives of the real-estate developers wanted to meet the minister, no such requests were accepted and when Ramesh was
asked if he had any aversion to the people from the realty sector he had claimed that they were free to submit their demands. Not only affordable housing but as the country gears up for expansion of airports and commissioning of new ones on the back of growing number of air-travelers, the government and private developers too are likely to be hit hard. Since, the airports as have been the case come up in the fringe areas of urban centres. Therefore, the government too would have to factor in higher cost of acquisition of land for new airports and expansion of the existing ones.
While briefing media about final version of the LARR Bill, 2011, Ramesh referred to his long meetings with social activist Medha Patkar. But he had no answers when asked if any of the demands of Patkar had been incorporated in the final version of the Land Bill. In fact Patkar in her meetings with Ramesh had sought ceilings on the extent of land acquisition for projects under public-private partnership. She had given the example of the new airport at
where land in excess was acquired, with a large chunk of them being used for developing commercial complexes having no relations to the requirements of an airport. The industries had petitioned that the clause in the land bill to have prior consent of 80 per cent of the affected people for acquisition of land would be quite cumbersome and could even put a brake on the pace of industrialisation. However, the clause remains for all purposes except for when the government acquires land for defence, strategic and national importance. So, all big projects of power, highways and others would have to adhere to the norms of prior consent of 80 per cent of the affected people. Industry bodies have complained that it could be a time consuming exercise.
Ramesh has explained that social impact assessment would be the basis of getting the consent of at least 80 per cent of the affected people at the Gram Sabha level and respective bodies in the urban areas. Since, social impact assessment would also cover the livelihhoods' losers, absence of any database is likely to be a big hindrance. As most often the farmers employ casual labourers, who mostly happened to be migratory population from the poorer states, officials have a tough
task at hand to execute this clause in its proper spirit. Also, the sharecroppers are engaged by landowners on verbal agreement, a fact, which cannot be ignored.
The rural development minister had heard quite extensively demands of farmers, including those from the Bhatta-Parsaul in the Greater Noida and Tappal in the
However, the LARR Bill, 2011 failed to address the demands of the farmers, with Ramesh saying that there could be no end to such issues. The Land Bill makes it very clear that there could be no change in land use once the land is acquired. However, if the acquired land is not utilised for next 10 years it would not be returned to the farmers but would go to the land bank of the state government, which is an idea clearly inspired by that of Gujrat. However, the minister is not
clear if the land is again allocated from the bank for a project and its land use is changed at that point of time, as then it will be upto the discretions of the state government to do so.
In the course of drafting of the Land Bill there was a proposal to address the concerns of food security, as experts regularly pointed out to shrinking land base for the agricultural use. Initially, the draft bill proposed a blanket ban on acquisition of multi-cropped
agricultural land but later on after the states of Haryana, Punjab,
Now that the LARR Bill, 2011 has been referred to the standing committee there would be more representations to the law makers to make necessary amends which might not have been addressed when Ramesh was in a tearing hurry to introduce the legislative proposal in the
Parliament.
भारत में लिंगानुपात
बताते चलें कि लिंगानुपात में प्रति एक हजार पुरुष पर महिलाओं की संख्या को गिना जाता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, केरल में सर्वाधिक तरफ 0-6 वर्ष के बच्चों के लिंगानुपात में 13 अंकों की कमी आई है। यह बेहद ही चिंताजनक है। क्योंकि बच्चे ही देश के भविष्य हंै। अगर इसी तरह बच्चों के लिंगानुपात में लगातार गिरावट आती रही तो आने वाले दिन में राष्ट्रीय लिंगानुपात में भी कमी आएगी।
Friday, October 7, 2011
मुसलमानों में कम हो रही हैं बेटियां
फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तानी मुसलमानों में भी लड़कों के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है. इसकी वजह से लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मां की कोख में मौत की नींद सुला दिया जाता है. मुस्लिम समुदाय में कुल लिंग अनुपात- 950 :1000 और बच्चों का लिंग अनुपात- 936 :1000 है, जो हिन्दू समुदाय के लिंग अनुपात- 925:1000 और बच्चों का लिंग अनुपात- 933:1000 से बेहतर कहा जा सकता है. हालांकि इस मामले में ईसाई समुदाय देश में अव्वल है- इस समुदाय कुल लिंग अनुपात- 1009 :1000 और बच्चों का लिंग अनुपात- 964:1000 है. औसत राष्ट्रीय लिंगानुपात 933:1000 है.
जम्मू कश्मीर में लिंगानुपात तेज़ी से घटा है. साल 2001 में सात साल के कम उम्र के हर एक हज़ार लड़कों के अनुपात में 941 लड़कियां थीं, अब ये संख्या 859 हो गई है. कन्या भ्रूण हत्या पर चिंता ज़ाहिर करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूख़ अब्दुल्ला ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर कन्या भ्रूण हत्या पर तुरंत रोक नहीं लगी तो भारत में पुरूष समलैंगिक हो जाएंगे.
अरब देशों में पहले लोग अपनी बेटियों को ज़िदा दफ़ना देते थे, लेकिन अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद ने इस घृणित प्रथा को ख़त्म करवा दिया. उन्होंने मुसलमानों से अपनी बेटियों की अच्छी तरह से परवरिश करने को कहा. लेकिन बेहद अफ़सोस की बात है कि आज हम अपने नबी की बताये रास्ते से भटक गए हैं.
एक हदीस के मुताबिक़ पैगंबर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया : "जिस की तीन बेटियां या तीन बहनें, या दो बेटियां या दो बहनें हैं, जिन्हें उस ने अच्छी तरह रखा और उन के बारे में अल्लाह तआला से डरता रहा, तो वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा." (सहीह इब्ने हिब्बान 2/190 हदीस संख्या : 446)
एक अन्य हदीस के मुताबिक़ "एक व्यक्ति अल्लाह के पैगंबर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आया और कहा कि ऐ अल्लाह के नबी! मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे अधिक हक़दार कौन है ? आप ने कहा: तेरी मां, उसने कहा कि फिर कौन ? आप ने फ़रमाया : तुम्हारी मां, उस ने कहा कि फिर कौन ? आप ने फ़रमाया: तुम्हारी मां, उस ने कहा कि फिर कौन? आप ने कहा : तुम्हारे पिता, फिर तुम्हारे क़रीबी रिश्तेदार।" (सहीह बुखारी हदीस संख्या : 5626, सहीह मुस्लिम हदीस नं.: 2548)
इस्लाम ने महिला को एक मां, एक बेटी और एक बहन के रूप में आदर और सम्मान प्रदान किया. अल्लाह तआला ने इसका ज़िक्र करते हुए क़ुरआन में फ़रमाया है : "उन में से जब किसी को लड़की होने की सूचना दी जाए तो उस का चेहरा काला हो जाता है और दिल ही दिल में घुटने लगता है. इस बुरी ख़बर के कारण लोगों से छुपा- छुपा फिरता है. सोचता है कि क्या इस को अपमानता के साथ लिए हुए ही रहे या इसे मिट्टी में दबा दे. आह! क्या ही बुरे फ़ैसले करते हैं." (सूरतुन-नह्ल : 58-59)
‘और जब (अर्थात् परलोक में हिसाब-किताब, फ़ैसला और बदला मिलने के दिन) ज़िन्दा गाड़ी गई बच्ची से (ईश्वर द्वारा) पूछा जाएगा, कि वह किस जुर्म में क़त्ल की गई थी’ (81:8,9)
मुसलमानों में बढ़ती दहेज प्रथा ने भी कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा दिया है. यूनिसेफ़ के सहयोग से जनवादी महिला समिति द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दहेज के बढ़ रहे मामलों के कारण मध्य प्रदेश में 60 फ़ीसदी, गुजरात में 50 फ़ीसदी और आंध्र प्रदेश में 40 फ़ीसदी लड़कियों ने माना कि दहेज के बिना उनकी शादी होना मुश्किल हो गया है. दहेज को लेकर मुसलमान एकमत नहीं हैं. जहां कुछ मुसलमान दहेज को ग़ैर इस्लामी क़रार देते हैं, वहीं कुछ मुसलमान दहेज को जायज़ मानते हैं. हालत यह है कि बेटे के लिए दुल्हन तलाशने वाले मुस्लिम वाल्देन लड़की के गुणों से ज़्यादा दहेज को तरजीह (प्राथमिकता) दे रहे हैं. हालांकि 'इस्लाम' में दहेज की प्रथा नहीं है. एक तरफ जहां बहुसंख्यक तबक़ा दहेज के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रहा है, वहीं शरीयत के अलमबरदार मुस्लिम समाज में पांव पसारती दहेज प्रथा के मुद्दे पर आंखें मूंदे बैठे हैं.
दहेज की वजह से मुस्लिम लड़कियों को उनके पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी अलग रखा जा रहा है. इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि उनके विवाह और दहेज में काफ़ी रक़म ख़र्च की गई है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता. ख़ास बात यह भी है कि लड़की के मेहर की रक़म तय करते वक़्त सैकड़ों साल पुरानी रिवायतों का वास्ता दिया जाता है, जबकि दहेज लेने के लिए शरीयत को 'ताक़' पर रखकर बेशर्मी से मुंह खोला जाता है.