हरवीर सिंह/ दिल्ली
पिछली यूपीए सरकार किसानों के लिए जो ब्याज दरें तय कर गई थी उसमें कोई कटौती नहीं की गई। इस साल जब किसान संकट में हैं तो उम्मीद थी कि उनको ब्याज मुक्त कर्ज देने की पहल सरकार करेगी
केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के
नेतृत्व वाली एनडीए सरकार से देश के किसानों को जितनी ज्यादा उम्मीदें थी उतना ही
उन्हें निराश होना पड़ा। सरकार का एक साल पूरा हो गया और अब मोदी सरकार के पास
कृषि क्षेत्र और किसानों को संकट से निकालने के लिए चार साल बचे हैं। या यूं कहें
कि इस क्षेत्र को प्राथमिकता के एजेंडा में पीछे रखकर एक साल गंवा दिया गया। कृषि
उत्पादों के लिए पूरे देश को एक बाजार में तब्दील करने, कृषि उत्पादन लागत पर 50
फीसदी मुनाफा देने, हर खेत को पानी और गांवों को बेहतर ढांचागत सुविधाएं देकर और
उनको शहरों की बराबरी पर लाने के वादे अभी अधूरे हैं या यूं कहें कि इन मुद्दों पर
अभी कोई बड़ी पहल या नीतिगत खाका अभी दिख नहीं रहा है। लेकिन जिस तेजी के साथ
सरकार ने भूमि अधिग्रहण के लिए 2013 के कानून में बदलाव किये और तीन बार अध्यादेश
जारी किये उससे एक संदेश किसानों के बीच
जरूर गया है कि सरकार किसानों के हितों की बजाय कारपोरेट और उद्योग जगत के हितों
को लेकर ज्यादा चिंतित है। हालांकि प्रधानमंत्री से लेकर अन्य मंत्री और भाजपा इस
कदम को किसानों के हित में उठाया कदम बता रही है लेकिन किसान संगठनों और विपक्ष के
लगातार हमलों के चलते सरकार को किसान हितैषी छवि बनाने के लिए भारी मशक्कत करनी
पड़ रही है। वैसे भी मोदी के सबसे बड़े आर्थिक सलाहकार व नीति आयोग के उपाध्यक्ष
अरविंद पनगढ़िया को कृषि से बहुत उम्मीदें नहीं हैं। उनको नहीं लगता है कि कृषि
देश के विकास को तेज करने में बहुत बड़ा योगदान दे पायेगी। लेकिन वह यह भूल रहे
हैं कि इस सुधारवादी सरकार को सत्ता में लाने के लिए सबसे बड़ा योगदान उस आबादी का
ही है जो कृषि पर गुजर बसर करती है।
कई मामलों में यह साल किसानों के लिए संकट
का रहा है। पिछले साल मानसून सामान्य से कम रहा है और कई इलाके सूखे की चपेट में
रहे। नतीजा खाद्यान्न उत्पादन में पांच फीसदी गिरावट आई। यही नहीं कई दूसरी फसलों
का उत्पादन भी गिरा। उसके बाद रबी सीजन में बेमौसम की बारिश और दूसरी प्राकृतिक
आपदाओं ने किसानों को भारी संकट में डाला। 2004 के बाद पहली बार किसान आत्महत्याओँ
का मामला इतना ज्यादा चर्चा में रहा कि उसने
देश में किसानों की बदहाली को सामने ला दिया। सरकार स्वीकार कर रही है कि किसानों
की हालत खराब है। वित्त मंत्री अरूण जेटली कह रहे हैं कि अगला एक साल कृषि क्षेत्र
के चुनौतियों भरा है। भले ही पिछले वित्त वर्ष (2014-15) के लिए सकल घरेलू उत्पाद
(जीडीपी) की विकास दर 7.4 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया हो लेकिन इसमें कृषि और
सहयोगी क्षेत्र की विकास दर 1.1 फीसदी पर अटक गई। असल में अभी जिस तरह से कृषि
उत्पादन के आंकड़े संशोधित हो रहे हैं उससे लगता है कि पिछले साल कृषि विकास दर
सकारात्मक रहने की बजाय इस क्षेत्र में गिरावट के संशोधित आंकडे सामने आने तय हैं।
सवाल यह है कि कोई बड़ी पहल क्यों नहीं की
गई। प्रधानमंत्री सिंचाई योजना पिछले बजट में घोषित की गई थी लेकिन हर खेत को पानी
देने के लिए जो बजटीय प्रावधान किये गये हैं वह तो इतने बड़े उद्देश्य के लिए मजाक
बन कर रह गये हैं। इसी तरह किसानों को बेहतर दाम देने का जो वादा किया गया था और
किसान आयोग के अध्यक्ष रहे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक प्रोफेसर एम.एस. स्वामीनाथन की
रिपोर्ट के आधार पर लागत पर 50 फीसदी मुनाफा देने के वादे को पूरी तरह भुला दिया
गया। पिछले साल के खरीफ और रबी सीजन की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी)
में तीन से चार फीसदी की बढ़ोतरी की गई और कई फसलों के एमएसपी को फ्रीज कर दिया
गया। यही नहीं खाद्यान्नों की सरकारी खरीद पर बोनस देने से राज्यों को रोक दिया
गया। यानी जो राज्य किसानों को अधिक दाम देना चाहते हैं वह भी ऐसा नहीं कर सके।
दिलचस्प बात यह है कि ऐसे दो राज्य मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ भाजपा की सरकारों के
तहत हैं। यह कदम दर्शाता है कि किसानों की वित्तीय स्थिति को लेकर सरकार गंभीर
नहीं है।
वहीं उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में
जहां से भाजपा को संख्या के हिसाब से सबसे अधिक लोक सभा सीटें मिली है वहां के
किसानों की सबसे बड़ी समस्या गन्ना मूल्य का भुगतान नहीं होना है। पिछले दो साल से
किसान इस संकट को झेल रहे हैं। इसके चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे कृषि में
संपन्न इलाके से पहली बार किसान आत्महत्या के मामले सामने आ रहे हैं। लेकिन इसका
कोई हल अभी तक सरकार नहीं निकाल सकी है। जबकि अब यह समस्या उत्तर प्रदेश के अलावा
महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में भी खड़ी हो चुकी है। चौंकाने
वाली बात यह है कि राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे
नये इलाकों से आत्महत्या के मामले जिस तरह से सामने आये हैं उसके चलते उनके बीच
निराशा की पैदा होती स्थिति सामने आ रही है।
बात यहीं नहीं रुकी अंतरराष्ट्रीय बाजार
में कृषि उत्पादों की कीमतों में भारी कमी का खामियाजा देश के किसानों को भुगतना
पड़ रहा है। इसमें केवल गन्ना किसान ही नहीं बल्कि कपास, रबड़, तिलहन, बासमती और
कई अन्य फसलों के उत्पादक किसान शामिल हैं। हालांकि सरकार को इसके चलते खाद्य
महंगाई पर काबू पाने में बड़ी कामयाबी मिली है और राजनीतिक मोर्चे पर वह उसके लिए
फायदेमंद भी है। यही नहीं इसके लिए उसने एक कदम आगे बढ़कर प्राइस स्टेबलिटी फंड भी
बनाया है। लेकिन इस हालत से संकट झेल रहे किसानों के लिए इंकम सिक्यूरिटी के लिए
कोई फंड बनाने की पहल नहीं दिखी है।
सरकार ने प्राकृतिक आपदा के चलते फसल
नुकसान के मुआवजे की राशि में बढ़ोतरी का कदम जरूर उठाया है। इसे 50 फीसदी बढ़ा
दिया है। लेकिन इस पर दो हैक्टेयर की सीमा भी लागू कर दी। वहीं मुआवजा आकलन और
आवंटन की प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं किया गया है। इसके साथ ही प्राकृतिक आपदा
के लगातार बढ़ते मामलों के चलते कृषि बीमा को बेहतर करने के लिए कोई पहल अभी तक
नहीं की गई है।
सरकार कृषि सब्सिडी में कटौती जरूर करना
चाहती है और यही वजह है कि उर्वरक सब्सिडी को डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांस्फर (डीबीटी)
के तहत लाने की कवायद चल रही है। लेकिन जो बटाईदार किसान जमीन ठेके पर लेकर खेती
करते हैं उनको लेकर क्या रुख रहेगा इसे अभी साफ नहीं किया गया है। साथ ही मिट्टी
की जांच के लिए सॉयल हैल्थ कार्ड बांटने का काम शुरू किया गया है। लेकिन जिस बड़े
पैमाने पर इसकी लांचिंग की गई उस तरह के नतीजे मिलेंगे इसकी गुंजाइश कम है क्योंकि
इसके लिए जरूरी उर्वरक उत्पाद उपलब्ध ही नहीं है। यही नहीं पहली बाद देश में
यूरिया का संकट किसानों को झेलना पड़ा जो सरकार की कमजोर प्रबंधन रणनीति के चलते
पैदा हुआ और रबी सीजन में किसानों को ब्लैक में अधिक पैसे देकर यूरिया खरीदना
पड़ा।
एक बड़ा सवाल सस्ते कर्ज का भी है। पिछली
यूपीए सरकार किसानों के लिए जो ब्याज दरें तय कर गई थी उसमें कोई कटौती नहीं की
गई। इस साल जब किसान संकट में हैं तो उम्मीद थी कि उनको ब्याज मुक्त कर्ज देने की
पहल सरकार करेगी लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो सका है। साथ ही कृषि कर्ज की प्रक्रिया
को आसान बनाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है।
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