अनिल चमड़िया
भूमि अधिग्रहण के लिए कानून बनाने की कवायद को दो नजरिये से देखा जा सकता है। पहला तो यह कि यह कानून क्या देश में भूमि सुधारों के कार्यक्रम की विदाई का घोषणा पत्र है ? कृषि आधारित अर्थ एवं समाज व्यवस्था में भूमि सुधार के कार्यक्रम राजनीतिक ऐजेंन्डे में सबसे उपर रहे हैं। जमींदारी उन्नमूलन से लेकर भूमिहीन किसानों को जमीन के बंटवारे की मांग पर 1990 के पहले तक राजनीति की जाती रही है। राष्ट्रपति के संसद और समाज को किए जाने वाले लगभग हर संबोधन में इनकी चर्चा होती थी। लेकिन राष्ट्रपति के संदेशों से भूमिहीनों को जमीन और भूमि सुधार के कार्यक्रम जैसे शब्द विलुप्त होते चले गए है। कृषि से पिंड छुड़ाने के कार्यक्रम बड़े जोर शोर से तैयार किए जाने के यह संकेत रहे हैं।राजनीतिक समझ और समझौते ने इस रूप में आकार लिया कि उद्योगिकीकरण पर जोर दिया जाए। जब उद्योगिकीकरण को विकास के पैमाने के तौर पर स्वीकार किया गया तब किसानों से ली जाने वाली जमीन के इर्द गिर्द यह मांग उठनी शुरू होने लगी कि मुआवजे की रकम बढ़ाई जाए। जमीन के मालिकों को मुआवजे की रकम मिलने के अनुभव बड़े पैमाने पर अच्छे नहीं रहे। छोटी जोतों के किसानों से जमीन के बदले जो मुआवजे की रकम दी गई उनमें से ज्यादातर बाद के दौर में दर दर भटकने लगे। किसी के पास पैसे का होना ही महत्वपूर्ण नहीं होता है बल्कि पैसे के बरतने का प्रशिक्षण होता है। इसके साथ तो यह भी जोड़ी जा सकती है कि पैसे जुटाने का भी प्रशिक्षण हो तो उद्योग धंधों के लिए पैसे का होना भी जरूरी नहीं होता है। जिन किसानों को पैसे मिलें उनका सांस्कृतिक परिवेश बदल दिया गया। यानी वे रहन सहन के नये आकर्षणों में बह गए। इसीलिए इन अनुभवों के बाद किसानों को मुआवजे के साथ जमीन के बदले जमीन की मांग उठी। लेकिन इस बीच कभी भी उनके बारे में ठोस बातचीत नहीं हुई कि जो जमीन अधिग्रहित की जा रही है उस पर मजदूरी करने वाले या उसके उत्पादन के इर्द गिर्द समाज का जो हिस्सा निर्भर है उसके भविष्य का क्या होगा। भूमि अधिग्रहण का मसला समाज के चले आ रहे ढांचे को तोड़ना और नये ढांचे की संरचना से जुड़ा होता है। बाजारवाद ने भूमि अधिग्रहण के लिए एक नई समस्या खड़ी की। बाजारवाद का कार्यक्रम निजीकरण का है । भूमि अधिग्रहित करने का लक्ष्य केवल औधोगिकीरण नहीं रह गया। बल्कि निजी घरानों के द्वारा उसका मनचाहा इस्तेमाल रह गया। जब सरकार सार्वजनिक हित के नाम पर जमीन अधिग्रहित करती है तो सरकार के साथ सामाजिक कल्याण का नारा जुड़ा होता है।लेकिन बाजारवाद ने इसे भी समाप्त कर दिया।
बाजारवाद के विस्तार की धूरी में जमीन ही है। अंग्रेजों के आगमन के पहले जमीन का निजी मालिकाना नहीं होता था। निजी मिल्कियत ने समाज की संरचना को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। इसके बाद बाजारवाद का वह दौर है जिसने भारतीय समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। क्योंकि सरकार का लक्षय निजी हितों के लिए ज्यादा से ज्यादा जमीन विकास के नाम पर लेना था और उसके लिए अंग्रेजों के समय बनें कानून का ही सहारा रहा है। सरकार के जमीन अधिग्रहण पर ग्रामीणों के साथ सबसे ज्यादा टकराव हुआ है और देश का कोई भी ऐसा राज्य नहीं है जहां भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन नहीं हो रहे हैं। इसी आंदोलन की पृष्ठभूमि में पश्चिम बंगाल में जहां भूमिहीनों के लिए जमीन की राजनीति पर पच्चीस वर्षों से टिकी वामपंथियों की सरकार तक चली गई। विभिन्न राज्य सरकारों ने भूमि अधिग्रहण की नई नीतियां बनाई लेकिन किसी नीति को भी अब तक कारगर नहीं माना गया है।
केन्द्र सरकार भूमि अधिग्रहण के लिए नये कानून की कोशिश में लगी रही है। लेकिन उससे पहले उसने 2205 में सेज कानून भी बना लिया है। संसद में बतौर ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने भूमि अघिग्रहण कानून में संशोधन का एक प्रस्ताव 6 दिसंबर 2007 को पेश किया था।उसे ग्रामीण विकास से जुड़ी संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया। यह प्रक्रिया कई रूपों में जारी रही लेकिन अब तक कोई स्वीकार योग्य कानून नहीं बन सका है। सरकार ने अब एक नया प्रस्ताव पेश किया है।इस प्रस्ताव को तैयार करने में यूपीए सरकार को सलाह देने वाली समिति की सक्रिय भूमिका रही है। इस समिति में वैसे सदस्य है जिन्हें गरीबों और बेसहाराओं का हितैषी माना जाता है। पहले के कानून में लोगों के हित में भूमि अधिग्रहण को आधार बनाया गया था । नये कानून में लोगों के हित की जगह पर लोगों के लिए और कंपनियों के लिए अधिग्रहण का आधार बनाया गया है।इसमें संसदीय चुनावों का फार्मुला लागू किया गया है।भूमि अधिग्रहण के लिए निजी कंपनियों को 70 प्रतिशत जमीन की व्यवस्था करनी होगी बाकी की जमीन के लिए सरकार जमीन मालिकों को बाध्य करेगी। इसका मतलब है कि अल्पमत को जमीन नहीं देने का फैसला लेने का अधिकार नहीं होगा। जबकि देश में अब तक के जमीन अधिग्रहण और जमीन के अधिग्रहण के बाद जमीन के मालिकों की जो स्थिति देखी गई है उसके मद्देनजर किसी भी कीमत पर जमीन नहीं देने के फैसले किए गए है। जमीन का खरीद दर से छह गुना ज्यादा मुआवजा देने का पक्ष लिया गया है। जमीन पर निर्भर मजदूरों के बारे में भी यह उल्लेख किया गया है कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी की दर से प्रति माह के लिए दस दिनों की उतनी मजदूरी जाएगी जो कि उन्हें तैतीस वर्षो में प्राप्त होती । दरअसल भूमि अधिग्रहण के कानून का प्रस्ताव जमीन मालिकों को पैसे देने की तरफ ही झुका है। जबकि अब तक के भूमि अधिग्रहण से जो समस्याएं खड़ी हुई है वे जमीन मालिकों को ज्यादा से ज्यादा पैसे नहीं मिलने से नहीं जुड़ी है। ग्रेटर नोएडा में जिन किसानों की सरकार ने निजी कंपनियों के लिए सार्वजनिक हित के नाम पर जमीन का अधिग्रहण किया था जमीन उन किसानों ने विकसित जमीन में भी अपनी हिस्सेदारी की मांग की। भूमि अधिग्रहण के अब तक के अनुभवों ने सरकार के इरादे पर सवाल खड़ा किया है। सरकार के सार्वजनिक हित की पोल खोलकर उसे अविश्वसनीय करार दिया है। सरकार का इरादा कृषि की जगह उद्योग और सेवा क्षेत्र का विस्तार करना है पहले तो इसकी सीमा स्पष्ट होनी चाहिए।कृषि की कीमत पर दूसरे क्षेत्र के विकास का पूरे समाज पर कितना प्रभाव पड़ रहा है वह साफ होना चाहिए। कृषि ज्यादा रोजगार पैदा कर सकती है या दूसरे क्षेत्रों के विस्तार से कितने रोजगार पैदा हो सकते हैं, इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। सरकार ने इस प्रस्तावित कानून में कहा है कि सौ एकड़ से ज्यादा कृषि जमीन के अधिग्रहण की स्थिति में उसके सामाजिक प्रभाव का अध्ययन किया जाएगा।भूमि अधिग्रहण कानून से जुड़े मसले को इस तरह से भी देखा जा सकता है । पहला तो यह कि जो जमीन का मालिक है वही उस जमीन को आधार बनाकर किए जाने वाले विकास का नेतृत्व क्यां नहीं कर सकता है। उद्योग करने वाली एक जाति (समूह) समाज में है वही उद्योग धंधे क्यों करें। बड़े उद्योग धंधे की जगह छोटे छोटे उद्योग धंधों की कड़ियां क्यों नहीं विकसित की जा सकती है ताकि कृषि की तरह ज्यादा से ज्यादा रोजगार के अवसर विकसित हो सकें।आखिर जमीन का मालिक केवल पैसे लेकर क्या करेगा ? कृषि उपज का संकट खड़ा करके भूमि अधिग्रहण किस हद तक किया जा सकता है।सरकार ने इस कानून में अपने लिए यानी सैनिक अड्डे, परमाणु उर्जा , डैम और दूसरी परियोजनाओं के लिए तो सरकार को लोगों से इजाजत लेने की जरूरत भी इस प्रस्तावित कानून में खत्म कर दी गई है।प्रस्तावित बिल समाज के कमजोर वर्गों की इच्छा और आवाज को कोई महत्व नहीं देना चाहता है।
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