Friday, September 23, 2011
Lighting up lives
Casual attitude towards disasters
An institution with a difference
Cost of development
Thursday, September 22, 2011
Punishment for food ad ulterers
Reworked land Bill on the anvil
The land acquisition bill, which is likely to be passed in the winter session of the Parliament, has certain landmark proposals and is biased towards farmers.
Rise and rise of prices
Anna, a mover and shaker
…and here commeth Second Gandhi
Wednesday, September 14, 2011
‘अन्ना हमारे’ के तेवर बरकरार : भ्रष्टाचार तेरा शुक्रिया बारंबार
अविनाश वाचस्पति
तू जो न होता तो इतनी सुर्खियों में ‘अन्ना हमारे’ न होते। शुक्रिया, तूने कराया हमें अन्ना का दीदार। इसलिए अन्ना की ओर से हम करते हैं तेरा आभार। समाज में सबकी जरूरत है। सब एक दूसरे पर अवलंबित हैं। एक के होने से दूसरा है और दूसरे के होने से तीसरा, यही क्रमिक कड़ी है। जिस प्रकार तेरे आगे-पीछे बिना खाए-नहाए पड़े थे ‘अन्ना हमारे’। वे हम सबके प्यारे हैं और हम अन्ना के दुलारे हैं। अगर तू ही न होता, वे किसके पीछे पड़े होते। इधर घपले-घोटाले खूब हुए हैं। खूब चर्चाएं हुई हैं। चैनल और अखबारों में तमाम सुर्खियां बनी हैं। काला धन तो लोकतंत्र का जोकतंत्र शुरू से ही चुनावों में खुलकर बना रहा है। इधर संचार क्रांति के आगमन के बाद 2 जी, 3 जी और 4 जी घोटाले रंग बिरंगी सुर्खियों में हैं। कामनवेल्थ हुए या हुई तो सबने खूब तरी पी और मलाई काटी, जिससे सीएम तक नहीं बच पाईं हैं।
जहां समस्याएं होती हैं, वहां संभावनाएं भी होती हैं और समाधान भी निकल ही आते हैं। समस्याएं न हों तो संभावनाएं कहां से आएंगी और किनका समाधान किया जाएगा। इधर धन उधार धन, अथाह धन अपार धन। सबका मन धन में लगा हुआ है। मंदिरजी भी अछूते न रहे। न बाबा रहे और न रहे स्वामी और साईं। सबके कारनामे सामने आए। सब धन में लिप्त पाए गए। धन के प्रभाव से कोई न बच सका। वो तो सिर्फ ‘अन्ना हमारे’ निराले हैं उनका ही बूता है कि धन की उनके आगे एक न चली। धन चाहे वो काला रहा हो या काले मन वाले का गोरा धन हो। उनकी नहीं चली तो तेरी कैसे बहती रे, भ्रष्टाचार तेरी नाव। बिना पानी के कैसे आगे बढ़ती। पानी में बढ़ना-डूबना भी हो सकता है।
समझ यही आता है कि दुनिया गोल है या सबने लुढ़क कर गोल कर दी है। इसलिए संसद ने ही गोल बनकर कौन सा गुनाह कर लिया। जहां से चलो वहीं लौट कर आ जाओ। चल रही है तो सिर्फ महंगाई की, अब सोने की चल रही है तो शेयरों की रूक गई। नतीजा, सेंसेक्स रोज ही डूबा-डूबा उदास सा रहने लगा है। यह भी‘अन्ना हमारे’ से डर का नतीजा है। सेंसेक्स में भी कभी किसी टटपूंजिया कंपनी के शेयर शेर हो जाते हैं कि विश्वास जम जाता है जबकि इनमें ही भीतर ही भीतर घपलों का अथाह समुद्र ठाठें मार रहा है।
सदा सोने के रेट ही चढ़ने चाहिए जबकि किसी बेनामी सी कंपनी के रेट इतने बढ़ा दिए जाते हैं कि सोना अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है। जिससे यह साफ जाहिर है तेरा आशियाना वहां पर भी है। सिर्फ आफिसों,स्कूलों, निगम कार्यालयों, प्राधिकरण, सोसाइटियों में ही नहीं, हर खास-ओ-आम भी तेरे असर से अछूता नहीं रहा है, जिसकी जब जितनी चलती है, चला लेता है। जहां मौका लगता है, जनता भी पीस लेती है, नहीं तो पिसना तो मजबूरी है ही। दम जनता का निकल रहा है। अपना दम बचाने के लिए जब जनता ‘अन्ना हमारे’,‘अन्ना हमारे’ करती बाहर सड़कों पर उतर आई जिससे विजय की गूंज उठी शहनाई है। पर इसी पूरी प्रक्रिया में सरकार के कपड़े दर कपड़े उतरते जा रहे थे, और सरकार अपने को नंगा होता महसूस कर रही थी, वो तो शुक्र मनाइये कि अंत समय पर बुद्धि, बुत बनने से बच गई।
आसाराम बापू, जो कि भीड़ खींचने में सर्वोपरि हैं, वे भी इस भीड़ को देखकर हतप्रभ हैं। वे जहां सत्संग करते हैं, भीड़ सिर्फ वहीं होती हैं और ‘अन्ना हमारे’ की भ्रष्टाचार से अहिंसक जंग से प्रदेश, देश, विदेश, नुक्कड़, गली, चौराहे तक जनता से लबालब भर गए थे। यह सच है कि ‘अन्ना हमारे’ ने अनशन तोड़ दिया है, लेकिन देखना एक दिन तुम्हें भी इससे बुरी तरह तोड़ देंगे। जाहिर है कि जनता जब जाग जाती है तो किसी भी वैरायटी का बकरा हो, उसकी अम्मा खैर मना ही नहीं सकती है। बहरहाल, अब तेरी खैर नहीं है। जो हाल बकरे की अम्मा का कहानी में होता है, लग रहा है वही हाल तेरी अम्मा का हो लिया है। आज तो अपनों से ही डर लग रहा है। अपनों से ही आदमी अधिक संभल कर चल रहा है। सबसे अधिक धोखा भी वहीं मिल रहा है। इसीलिए तो समाज में तेरी फसल उपजाऊ है, तू ही सबसे ज्यादा कमाऊ और खाऊ है।
Monday, September 5, 2011
भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए सड़कों पर उतरी जनता
मुर्राह पर संकट
धान की भूंसी से रोशन हो रहा गांव
कुदरती खेती भी एक रास्ता है
कमजोरों की जमीन लूटने की घोषणा है प्रस्तावित कानून
अनिल चमड़िया
भूमि अधिग्रहण के लिए कानून बनाने की कवायद को दो नजरिये से देखा जा सकता है। पहला तो यह कि यह कानून क्या देश में भूमि सुधारों के कार्यक्रम की विदाई का घोषणा पत्र है ? कृषि आधारित अर्थ एवं समाज व्यवस्था में भूमि सुधार के कार्यक्रम राजनीतिक ऐजेंन्डे में सबसे उपर रहे हैं। जमींदारी उन्नमूलन से लेकर भूमिहीन किसानों को जमीन के बंटवारे की मांग पर 1990 के पहले तक राजनीति की जाती रही है। राष्ट्रपति के संसद और समाज को किए जाने वाले लगभग हर संबोधन में इनकी चर्चा होती थी। लेकिन राष्ट्रपति के संदेशों से भूमिहीनों को जमीन और भूमि सुधार के कार्यक्रम जैसे शब्द विलुप्त होते चले गए है। कृषि से पिंड छुड़ाने के कार्यक्रम बड़े जोर शोर से तैयार किए जाने के यह संकेत रहे हैं।राजनीतिक समझ और समझौते ने इस रूप में आकार लिया कि उद्योगिकीकरण पर जोर दिया जाए। जब उद्योगिकीकरण को विकास के पैमाने के तौर पर स्वीकार किया गया तब किसानों से ली जाने वाली जमीन के इर्द गिर्द यह मांग उठनी शुरू होने लगी कि मुआवजे की रकम बढ़ाई जाए। जमीन के मालिकों को मुआवजे की रकम मिलने के अनुभव बड़े पैमाने पर अच्छे नहीं रहे। छोटी जोतों के किसानों से जमीन के बदले जो मुआवजे की रकम दी गई उनमें से ज्यादातर बाद के दौर में दर दर भटकने लगे। किसी के पास पैसे का होना ही महत्वपूर्ण नहीं होता है बल्कि पैसे के बरतने का प्रशिक्षण होता है। इसके साथ तो यह भी जोड़ी जा सकती है कि पैसे जुटाने का भी प्रशिक्षण हो तो उद्योग धंधों के लिए पैसे का होना भी जरूरी नहीं होता है। जिन किसानों को पैसे मिलें उनका सांस्कृतिक परिवेश बदल दिया गया। यानी वे रहन सहन के नये आकर्षणों में बह गए। इसीलिए इन अनुभवों के बाद किसानों को मुआवजे के साथ जमीन के बदले जमीन की मांग उठी। लेकिन इस बीच कभी भी उनके बारे में ठोस बातचीत नहीं हुई कि जो जमीन अधिग्रहित की जा रही है उस पर मजदूरी करने वाले या उसके उत्पादन के इर्द गिर्द समाज का जो हिस्सा निर्भर है उसके भविष्य का क्या होगा। भूमि अधिग्रहण का मसला समाज के चले आ रहे ढांचे को तोड़ना और नये ढांचे की संरचना से जुड़ा होता है। बाजारवाद ने भूमि अधिग्रहण के लिए एक नई समस्या खड़ी की। बाजारवाद का कार्यक्रम निजीकरण का है । भूमि अधिग्रहित करने का लक्ष्य केवल औधोगिकीरण नहीं रह गया। बल्कि निजी घरानों के द्वारा उसका मनचाहा इस्तेमाल रह गया। जब सरकार सार्वजनिक हित के नाम पर जमीन अधिग्रहित करती है तो सरकार के साथ सामाजिक कल्याण का नारा जुड़ा होता है।लेकिन बाजारवाद ने इसे भी समाप्त कर दिया।
बाजारवाद के विस्तार की धूरी में जमीन ही है। अंग्रेजों के आगमन के पहले जमीन का निजी मालिकाना नहीं होता था। निजी मिल्कियत ने समाज की संरचना को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। इसके बाद बाजारवाद का वह दौर है जिसने भारतीय समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। क्योंकि सरकार का लक्षय निजी हितों के लिए ज्यादा से ज्यादा जमीन विकास के नाम पर लेना था और उसके लिए अंग्रेजों के समय बनें कानून का ही सहारा रहा है। सरकार के जमीन अधिग्रहण पर ग्रामीणों के साथ सबसे ज्यादा टकराव हुआ है और देश का कोई भी ऐसा राज्य नहीं है जहां भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन नहीं हो रहे हैं। इसी आंदोलन की पृष्ठभूमि में पश्चिम बंगाल में जहां भूमिहीनों के लिए जमीन की राजनीति पर पच्चीस वर्षों से टिकी वामपंथियों की सरकार तक चली गई। विभिन्न राज्य सरकारों ने भूमि अधिग्रहण की नई नीतियां बनाई लेकिन किसी नीति को भी अब तक कारगर नहीं माना गया है।
केन्द्र सरकार भूमि अधिग्रहण के लिए नये कानून की कोशिश में लगी रही है। लेकिन उससे पहले उसने 2205 में सेज कानून भी बना लिया है। संसद में बतौर ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने भूमि अघिग्रहण कानून में संशोधन का एक प्रस्ताव 6 दिसंबर 2007 को पेश किया था।उसे ग्रामीण विकास से जुड़ी संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया। यह प्रक्रिया कई रूपों में जारी रही लेकिन अब तक कोई स्वीकार योग्य कानून नहीं बन सका है। सरकार ने अब एक नया प्रस्ताव पेश किया है।इस प्रस्ताव को तैयार करने में यूपीए सरकार को सलाह देने वाली समिति की सक्रिय भूमिका रही है। इस समिति में वैसे सदस्य है जिन्हें गरीबों और बेसहाराओं का हितैषी माना जाता है। पहले के कानून में लोगों के हित में भूमि अधिग्रहण को आधार बनाया गया था । नये कानून में लोगों के हित की जगह पर लोगों के लिए और कंपनियों के लिए अधिग्रहण का आधार बनाया गया है।इसमें संसदीय चुनावों का फार्मुला लागू किया गया है।भूमि अधिग्रहण के लिए निजी कंपनियों को 70 प्रतिशत जमीन की व्यवस्था करनी होगी बाकी की जमीन के लिए सरकार जमीन मालिकों को बाध्य करेगी। इसका मतलब है कि अल्पमत को जमीन नहीं देने का फैसला लेने का अधिकार नहीं होगा। जबकि देश में अब तक के जमीन अधिग्रहण और जमीन के अधिग्रहण के बाद जमीन के मालिकों की जो स्थिति देखी गई है उसके मद्देनजर किसी भी कीमत पर जमीन नहीं देने के फैसले किए गए है। जमीन का खरीद दर से छह गुना ज्यादा मुआवजा देने का पक्ष लिया गया है। जमीन पर निर्भर मजदूरों के बारे में भी यह उल्लेख किया गया है कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी की दर से प्रति माह के लिए दस दिनों की उतनी मजदूरी जाएगी जो कि उन्हें तैतीस वर्षो में प्राप्त होती । दरअसल भूमि अधिग्रहण के कानून का प्रस्ताव जमीन मालिकों को पैसे देने की तरफ ही झुका है। जबकि अब तक के भूमि अधिग्रहण से जो समस्याएं खड़ी हुई है वे जमीन मालिकों को ज्यादा से ज्यादा पैसे नहीं मिलने से नहीं जुड़ी है। ग्रेटर नोएडा में जिन किसानों की सरकार ने निजी कंपनियों के लिए सार्वजनिक हित के नाम पर जमीन का अधिग्रहण किया था जमीन उन किसानों ने विकसित जमीन में भी अपनी हिस्सेदारी की मांग की। भूमि अधिग्रहण के अब तक के अनुभवों ने सरकार के इरादे पर सवाल खड़ा किया है। सरकार के सार्वजनिक हित की पोल खोलकर उसे अविश्वसनीय करार दिया है। सरकार का इरादा कृषि की जगह उद्योग और सेवा क्षेत्र का विस्तार करना है पहले तो इसकी सीमा स्पष्ट होनी चाहिए।कृषि की कीमत पर दूसरे क्षेत्र के विकास का पूरे समाज पर कितना प्रभाव पड़ रहा है वह साफ होना चाहिए। कृषि ज्यादा रोजगार पैदा कर सकती है या दूसरे क्षेत्रों के विस्तार से कितने रोजगार पैदा हो सकते हैं, इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। सरकार ने इस प्रस्तावित कानून में कहा है कि सौ एकड़ से ज्यादा कृषि जमीन के अधिग्रहण की स्थिति में उसके सामाजिक प्रभाव का अध्ययन किया जाएगा।भूमि अधिग्रहण कानून से जुड़े मसले को इस तरह से भी देखा जा सकता है । पहला तो यह कि जो जमीन का मालिक है वही उस जमीन को आधार बनाकर किए जाने वाले विकास का नेतृत्व क्यां नहीं कर सकता है। उद्योग करने वाली एक जाति (समूह) समाज में है वही उद्योग धंधे क्यों करें। बड़े उद्योग धंधे की जगह छोटे छोटे उद्योग धंधों की कड़ियां क्यों नहीं विकसित की जा सकती है ताकि कृषि की तरह ज्यादा से ज्यादा रोजगार के अवसर विकसित हो सकें।आखिर जमीन का मालिक केवल पैसे लेकर क्या करेगा ? कृषि उपज का संकट खड़ा करके भूमि अधिग्रहण किस हद तक किया जा सकता है।सरकार ने इस कानून में अपने लिए यानी सैनिक अड्डे, परमाणु उर्जा , डैम और दूसरी परियोजनाओं के लिए तो सरकार को लोगों से इजाजत लेने की जरूरत भी इस प्रस्तावित कानून में खत्म कर दी गई है।प्रस्तावित बिल समाज के कमजोर वर्गों की इच्छा और आवाज को कोई महत्व नहीं देना चाहता है।