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Thursday, April 7, 2011

बनारस की गलियों में बनती साड़ियां


&सुषमा सिंह

मुगल काल से ही विख्यात] असली सोने और चांदी के तारों से बनी बनारसी साड़ियां] आज नए अंदाज के साथ सबकी पहुंच में हैं।

बनारस की गलियों से गुजरते हुए हम यह सोच भी नहीं सकते की यही कहीं एक छोटे से दरवाजे से घूसते ही हमें वह जगह मिल जाएगी जहां उन बनारसी साड़ियों पर काम होता है जो मुगल काल में ही विख्यात हो चुकी थी] जिसकी पूरी दुनिया में अलग पहचान है। मदनपुरा] ललापुरा] बजरड़ीहा लोहता जैसे क्षेत्रों में साड़ियों के बनाने का काम होता है। मशीन तो एक ही होते हैं बस फर्क सूत का होता है। बनारसी साड़ी के अलग धागे होते हैं जिन्हें पूर्व काल में चाइना से और अब बंगलुर से मगाया जाता है। इन साड़ियों को मशीनों से नहीं हाथों से तराशा जाता है।

बनारसी साड़ियों को कई ढ़ग से तैयार किया जाता है। जैसे जंगला] तनचोइ] वासकत] टीसू] बुटीदार आदि और इनमें चार प्रकार के वस्तुओं का प्रयोग करते हैं। शुद्ध सिल्क] ओरगेंजा या जरी सिल्क] जियोरगेते और शातिर। विभिन्न प्रकार के बेल] बुटी] बुटा और लताओं की डिजाइनें बनाई जाती है। साथ ही सोने और चांदी के तारों से मोतियों की बुनावट करते हैं। यह बात अलग है कि पहले यह तार असली होते थे जिसके कारण इन्हें गरीब नहीं खरीद पाते थे अब यह सभी के पहुंच में है क्योंकि अब साधारण तारों का इस्तेमाल किया जाता है।

जामदानी बनारसी साड़ियों में कई तरह के फूलों की बुटियां सूती धागों पर बनती है तो जामवार साड़ी की डिजाइन कश्मीरी सॉल से प्रेरित है जिसमें सोने] चांदी और सिल्क के धागों का प्रयोग होता है। एक अन्य प्रकार बुटिक साड़ियों का है] जो बेलों की आकृतियों से सजाई जाती है। ये डिजाइन ग्राफ पेपर पर तैयार की जाती है और साड़ी पर उतारे जाने से पहले इसका पंच कार्ड बनाया जाता है। एक डिजाइन तैयार करने और बनाने से पहले लगभग 100 बार पंच कार्ड बन जाते हैं। ताकि बुनकर सही रंग और पैटर्न समझ सके। ये आकृति विभिन्न प्रकार के तारों पर बनती हैं। बच्चे की उम्र 10 साल के होते ही पीढ़ी दर पीढ़ी यह कला उन्हें सीखा दी जाती है।

एक साड़ी को तैयार करने में लगभग 5600 धागों की तारे] जो 45 इंच चौड़ी हो और 24 से 26 मीटर लंबी हो लगती है। 3 लोग 15 दिनों तक काम करते है। डिजाइन के अनुसार समय ज्यादा या कम लगता है। यहां ज्यादातर मजदूर गोरखपुर और आजमगढ़ से आते हैं। अकेले लोहता क्षेत्र में 2500 साड़ी बनाने के लूम चलते हैं। बनारसी साड़ियों की कीमत की बात करें तो शुरूआत 1500 से और अंत ५०]000 तक भी है। औसत दाम 3 से 15 हजार है। सभी वस्तुओं की तरह इनके बिकने का भी एक खास मौसम होता है त्यौहारों पर। अप्रैल से जुलाई तक काम ठंडा रहता है।

जुलाई 2007 में ही बनारसी साड़ी को जीआई टैग मिल गया था इसके बावजूद भी जिस प्रकार से हो हल्ला मचा उस रफ्तार से काम नहीं हुआ। इस पर आजादी के पहले से स्थापित फराह साड़ी के मालिक अब्दुल से हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि वैसे तो हम दक्षिण भारत] गुजरात] बाम्बे आदि जगहों पर माल भेजते हैंA चेन्नई की एक पार्टी के माध्यम से श्रीलंका और सिंगापुर भी माल जाता है लेकिन अभी इसका व्यापार और बढ़ाने की जरूरत है। उनके अनुसार उन्हें इस व्यपार में कभी कोई परेशानी नहीं हुई। वहीं मदनपुरा साड़ी डिलर एसोसिएसन के अध्यक्ष उमादू रहमान है इसमें लगभग 50 लोगों की सदस्यता है लेकिन सोचने वाली बात यह है कि आज तक इनके लिए कोई ऑफिस ही नहीं है जिसके इन्तजाम का प्रयास जारी है। पहले यह काम हो जाए उसके बाद ही इस व्यापार का कुछ और बेड़ा पार हो पाएगा। दूसरी तरफ बुनकर जमाल ने बताया कि दक्षिण वाले अगर इन साड़ियों को खरीदना बंद कर दे तो इसकी खपत बहुत कम हो जाएगी। हम एक सप्ताह में एक साड़ी तैयार कर पाते हैं। जिसकी मजदूरी ७&8 सौ ही मिलती है। तानी का काम करने में दो दिन लगता है। जिसकी मजदूरी नहीं दी जाती है। औसतन उन्हें 100 रुपये मिल जाते हैं । कहीं&कहीं तो 65 रुपये तक भी देते हैं। इस काम में हजारों की तादाद में मजदूर लगे हुए हैं।

सिर्फ इनका ही नहीं हर जगह मार मजदूरी पर ही पड़ती है जबकि यह जग जाहिर है कि इनके बिना काम नहीं हो सकता। सबसे ज्यादा मेहनत यही करते हैं। देखना यह है कि इनकी दशा कब ठीक होगी।