Saturday, June 9, 2012

वक्त की पुकार है मिलकर चलो


पी वी राजगोपाल

हकीकत में तो ये कोई नहीं कहता है कि मिलकर काम करना बुरी बात है। हर कोई यही बात कर रहा है कि लोग आपस में जुड़े संस्थाएं आपस मेें जुड़े जिससे बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान निकाला जा सके। मैंने भी अपनी तरफ से संगठित होने के संबंण में अपने विचार रखे हैं और कुछ हद तक मैंने कार्यवाई को आधार मानकर संगठित होने के विचार को बढ़ावा देने की कोशिश की है, परंतु अन्य लोगों की तरह मुझे भी अपनी सीमाएं समझ में आई। क्यों हम मिलकर दरवाजा खोलते है फिर बंद कर देते हैं, इसके कई कारण है। आपसी विश्वास और भरोसा पैदा करना कोई आसान काम नहीं है। इसमें समय लगता है और हमारे पास दूसरों के साथ इस प्रकार मिलका काम करने का समय नहीं है। जिससे हममें आपसी विश्वास पैदा हो सके।
सम्मेलनों और सम्मानों में हमें एक-दूसरे को जानने का मौका मिलता है। परंतु इससे हमें दूसरे व्यक्ति पर विश्वास करने की वजह नहीं मिल पाती है। हमारे पास नेटवर्कों की कई मिसाले हैं जो सेमिनार और सम्मेलनों से आगे नहीं बढ़ पाते हैं। वर्तमान व्यवस्था को चुनौती देने हेतु किसी कार्यवाई के साथ जुड़ने के लिए ऐसे लोगोें की जरूरत पड़ती है जो एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं और साथ-साथ जोखिम उठाने की इच्छा रखते हो। जन संवाद यात्रा में मुझे कई व्यक्तियों और संगठनों से मिलने और उनके साथ मेलजोल बढ़ाने का मौका मिला है। कुछ मामलों में हम कई दिनों तक साथ-साथ समय बिताने, मुद्दों पर चर्चा करने, गलतफहतियों को दूर करने और सामूहिक कार्यवाही के लिए रिश्तों को मजबूत करने में सझम हुए हैं। इसमें इतना समय और उर्जा लगाना बेहद जरूरी था जिससे आपसी विश्वास बना सके जो आखिरकार 2012 में सयुक्त कार्यवाही के रूप में एक बड़ी शक्ति का रूप धारण करेगा। हजारों किलोमिटर की यात्रा में रिश्ते बनाने के ये सभी अभ्यास करते समय मैं इस बात पर चिंतन करता रहा कि आखिर साथ-साथ काम करना क्यों इतना मुश्किल है।
कुछ मामलों में यह एक प्रांतीय लड़ाई है। एक ही राज्य मे काम कर रहे लोग एक-दूसरे के बारे में शिकायत करते हैं वहीं वो अपने राज्य से बाहर के लोगों के साथ नेटवर्क बनाने और कार्यवाई करने के इच्छुक रहते हैं। सच में यह बड़ी खतरनाक प्रवृति है। इसमें से हर किसी का बने रहना इस बात पर पूरी तरह निर्भर करेगा कि हम अपने राज्य के लोगों के साथ कितना घनिष्ठ रिश्ता बनाकर काम कर सकते हैं। क्या तमिलनाडू में बचे रह सकते है? जहां तक मुझे पता है, इस बात की बहुत कम संभावना है कि वह उडि़सा या आंध्र प्रदेश की किसी नीति में कोई परिवर्तन कर सकेंगे यह तभी संभव होगा जब इन राज्यों के सामाजिक पात्र साथ-साथ काम करने के लिए एक टीम के रूप में कंधे से कंधा मिलाकर चलें। सैद्धांतिक रूप से सभी इस बात जानते हैं परंतु व्यवहारिक रूप से यह सामाजिक परिवर्तन लाने के काम का सबसे मुश्किल पहलू है। दूसरा कारण यहां इतनी प्रतिस्पर्धा हैः संसाधनों के कारण। यहां ऐसे कुछ लोग है जो अपने संसाधनों को बढ़ा सकते हैं कुछ ऐसे हैं जिनके कुशलता नहीं है। संस्थाओं को काफी समझदारी से अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करना पड़ता है। जो संस्थाएं मैं, मेरी संस्था, मेरा झंड़ा, मेरे विचार और मेरा पैसा की सोच से काम करते हैं वे संगठित होने की इस प्रक्रिया में कभी सहयोग नहीं कर सकते हैं। इसकी सबसे बड़ी चुनौती अवसरों, संपर्को और संसाधनों का इस तरह से उपयोग करना है। जिससे राजशक्ति तथा इसकी व्यवस्था को चुनौती देने की संभावनाएं पैदा हो सकें। सामाजिक आंदोलनों और स्वैच्छिक संस्थाओं में प्रतिस्पर्धा का एक बड़ा क्षेत्र मीडिया, पुरस्कार, मान्यता और सरकार में उनकी हैसियत इत्यादि से भी संबंधित हैं। इममें से हर कोई मीडिया में अपने नाम और झंडे को देखने में रुचि लेता है। मुझे नहीं लगता है कि इसमें कुछ गलत है लेकिन हमारे लिए यह बेहद जरूरी है कि हम इसी में न लगे रहें। लोगों को मीडिया को अपनी कमजोरी नहीं मानना चाहिए। मीडिया में हमारा नाम-झंडा आए या न आए हमें, पुरस्कार मिलें या न मिलें, हमारी कोई हैसियत बने या न बने, हमें तो एक मन से उन हाशिए पर पहंुच समुदाओं को न्याय और आजीविका के संसाधन दिलाने की दिशा में काम करना है जो राजनीति दलों का एक लंबे समय से इंतजार कर रहे हैं कि कब वे करोड़ो भारतीयों को न्याय दिलाएंगे। सामाजिक आंदोलन लोगों को संगठित करने आ गया है। जिससे राजशक्ति पर उन बातों के लिए दबाव डाला जा सके जिसका उन्होंने वादा किया था। जितना हम अपनी जिम्मेदारियों को समझेंगे उतना ही ज्यादा हम अपनी बचकानी हरकतों से दूर रहेंगे और अपनी जिम्मेदारियों को पूरी निष्ठा और गंभीरता से पूरा कर पाएंगे। अब समय आ गया है कि हम व्यापक हित में साथ-साथ काम करने की इस महान सोच को अपने जीवन में उतारें।

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