शिराज केसर
हाल ही में भारत के जल संसाधन मंत्रालय ने नई ‘राष्ट्रीय जल-नीति 2012’ का मसौदा जल विशेषज्ञों और आम नागरिकों के लिए प्रस्तुत किया है। यूं तो ये मसौदा सभी लोगों के लिए सुझाव आमंत्रित करता है लेकिन इसके पीछे की वास्तविकता कुछ और ही है। कई रहस्यों पर पर्दा डालती हुई और शब्दों से खेलती हुई यह जल-नीति इस बात की तरफ साफतौर पर इशारा करती है कि सरकार अब जलापूर्ति की जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ रही है और यह काम बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों और वित्तीय संस्थाओं को सौंपना चाहती है।
जलनीति के इस मसौदे को अगर देखा जाय तो पहली नजर में मन खुश हो जाता है। जलनीति में पहली बार जल-संकट से निजात के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण को महत्ता दी गई है। ऐसा लगता है कि साफ पेयजल और स्वच्छता के साथ-साथ पारिस्थितिकीय जरूरतों को भी प्राथमिकता दी गई है। पर जब इस मसौदे को हम गहराई से परखते हैं, तो साफ हो जाता है कि किस तरह से इसमें लच्छेदार भाषा का इस्तेमाल करके शब्दों का एक खेल खेला गया है। मसौदे के सोने जैसे घड़े में जहर भरा हुआ है यानी ‘विष रस भरा कनक घट जैसे’। कई महत्वपूर्ण तथ्य मसौदे से नदारद हैं। पानी को एक मौलिक मानवाधिकार के रूप में कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया है जबकि इसके ठीक विपरीत संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने जब 2010 में ‘पेयजल के मानवाधिकार’ का प्रस्ताव पारित किया था तब भारत ने पुरजोर वकालत की थी। लेकिन इस मसौदे में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिल रहा है। और तो और पानी को एक बाजार की वस्तु बनाने के लिए कई तरह के सुझाव और तर्क दिए गए हैं। इतना ही नहीं जल-सेवाओं में सरकारी भूमिका को भी सीमित कर दिया गया है जबकि अगर हम बाकी दुनिया पर नजर डालें तो बाहर के देशों में जल-सेवाएं कंपनियों के हाथों से छीनकर वापस सरकारी क्षेत्र में लाई जा रही हैं। पर हमारी जल-नीति तो इन सेवाओं को पूरी तरह निजी क्षेत्र यानी कंपनियों को सौंपने पर आमादा है।
हालांकि कंपनियों को जल-सेवाएं सौंपना हमारे देश में कोई नई बात नहीं है लेकिन अफसोस तो यह है कि पानी जैसी बुनियादी जरूरत को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है और वो भी जल संकट से उबरने और जल संरक्षण के नाम पर।
जगजाहिर है कि कंपनियां शुद्ध लाभ के लिए आती हैं न कि किसी समाज सेवाभावना से। मसौदा तो खुद ही पानी की पूरी कीमत वसूलने की बात करता है, तो फिर हम कंपनियों से यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि उनमें कोई सेवाभाव होगा। अगर पानी की पूरी कीमत की बात आती है, तो इससे गरीब लोगों पर ज्यादा असर होगा। मसौदे में आम लोगों के पानी की बुनियादी जरूरतों के अधिकार को सुरक्षित किया जाना चाहिए था जबकि मसौदे में ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया है।
जल उपलब्धता के साथ ही अब बड़ा मुद्दा है जल गुणवत्ता और उसके संरक्षण का। हालांकि मसौदे में इस बात पर अलग से कुछ भी चर्चा नहीं की गई है कि जल गुणवत्ता के लिए क्या कदम उठाए जाएंगे। हां इतना जरूर है कि उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट के संशोधन और पानी के पुर्नउपयोग के लिए सरकार कुछ ‘इंसेंटिव’ देगी। यानी जो प्रदूषक हैं उनको सब्सिडी। इसका तो सीधा-सीधा मतलब यह निकलता है कि आप पानी प्रदूषण करने वाले कामों को सख्ती से रोकने के बजाय बढ़ावा दे रहे हैं। मसौदे का ‘पॉल्यूटर पेज’ का सिद्धांत भी इस बात की तरफ साफ इशारा करता है कि अपना मुनाफा ज्यादा से ज्यादा करने के लिए जितना चाहे पानी प्रदूषित करो, बस थोड़ा सा जुर्माना भरो और काम करते रहो। मसौदे में कहीं भी किसी भी ऐसे सख्त कानून या कदम की बात नहीं की गई है या ऐसे प्रयासों की बात नहीं की गई है कि अपशिष्ट और प्रदूषक पैदा ही न हों। ‘जीरो वेस्ट’ या ऐसी कोई भी तकनीक की तो कहीं बात ही नहीं की गई है। ये तो वही बात हुई कि चोर को घर की रखवाली करने के लिए कहा जाए। अगर इसी तरह की नीतियां पानी के बुनियादी अधिकार की रक्षा करने के लिए बनाई जा रही हैं, तो फिर अधिकारों की भक्षक नीतियां कैसी होंगी?
ऐसा लगता है कि इस राष्ट्रीय जल-नीति के मसौदे पर हाल ही में आई एक रिपोर्ट, ‘नेशनल वॉटर रिसोर्सेस फ्रेमवर्क स्टडी रू रोडमैप्स फॉर रिफॉर्म्स,’ का प्रभाव दिखाई देता है। इस रिपोर्ट के कई हिस्से हमारी राष्ट्रीय जल-नीति के मसौदे में दिखाई दे रहे हैं। इस रिपोर्ट को भारतीय योजना आयोग ने ‘2030 वाटर रिसोर्सेस ग्रुप (डब्ल्यूआरजी)’ से तैयार करवाया था। इस रिपोर्ट के प्रोजेक्ट को फाइनेंस ‘इंटरनेशनल फाइनेंस कार्पोरेशन’ ने किया। जबकि योजना आयोग के कई समूह जल प्रबंधन के विभिन्न आयामों पर रिपोर्ट तैयार कर रहे थे। इसके बावजूद भी विश्वबैंक के समूह की मदद से यह रिपोर्ट बनवाई गई। ‘इंटरनेशनल फाइनेंस कार्पोरेशन’ विश्वबैंक के ग्रुप का ही एक हिस्सा है, जो विकासशील देशों में निजी क्षेत्र की भागीदारी को मजबूत करने के लिए निवेश और सलाह देता है। डब्ल्यूआरजी यानी ‘2030 वाटर रिसोर्सेस ग्रुप’ इसी आईएफसी का ही एक हिस्सा और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप है। आप को यह जानकर और भी हैरानी होगी कि इस डब्ल्यूआरजी को वित्त पोषित करने वाली बहुत-सी वित्तीय संस्थाएं और बैंक हैं। साथ ही डब्ल्यूआरजी के रणनीतिक साझीदार में मैक्केन्जी एण्ड कंपनी, कोकाकोला, पेप्सी, कारगिल, यूनीलीवर, नेस्ले, सैबमिलर जैसी मल्टीनेशनल शामिल हैं, तो अब आप ही समझ लीजिए जिनकी रणनीति तय करने वाले ऐसे महान साझीदार हों तो वहां से निकले हुए मसौदे किसके लाभ और अधिकार को पोषित कर रहे हैं। आम आदमी के या इन बड़ी कंपनियों के?
कैसे प्रभावित हो रही है जल-नीति
आने वाले समय में दुनिया में पानी का बंटवारा कैसे होगा इसको बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से तय और प्रभावित करने की कोशिश की है डब्ल्यूआरजी ने। हालांकि सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दक्षिण अफ्रीका, मैक्सिको, जॉर्डन, चीन और मंगोलिया जैसे देशों में भी इसने जल-नीति को बड़े ही कूटनीतिक तरीकों से प्रभावित करने की कवायद की है। देशों के जल और पर्यावरण मंत्रालयों के सरकारी अधिकारियों को डब्ल्यूआरजी मोहरा बनाती है। भारत में इसका निशाना कर्नाटक और महाराष्ट्र के राज्यों के साथ-साथ राष्ट्रीय योजना आयोग भी है। ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय जल-नीतियों पर अपना प्रभाव छोड़ने का रास्ता बड़ी ही सफलता से तैयार कर लिया है। डब्ल्यूआरजी ने इस रास्ते पर चलने के लिए बड़ी ही चालाकी से कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) और ‘काउंसिल ऑन एनर्जी, एंवायरन्मेंट एण्ड वॉटर (सीइइडब्ल्यू)’ के साथ साझीदारी की ताकि कर्नाटक में जल-नीति को प्रभावित किया जा सके। और अब इसकी गिद्ध दृष्टि केंद्र पर भी लगी हुई है। डब्ल्यूआरजी ने जिन-जिन देशों को अपना निशाना बनाया है वहां विशेष तौर पर यह कृषि-नीतियों खासकर फसलों के चयन और खेती में जल वितरण को प्रभावित करने में ज्यादा रुचि दिखाई है। इसकी वजह है डब्ल्यूआरजी के सदस्य और रणनीतिक साझीदार जो कृषि और खाद्य संबंधी व्यवसायों से ही जुड़े हुए हैं और शायद इसी से प्रेरित होकर हमारी जल-नीति के मसौदे में बार-बार ‘वॉटर एफिसिएन्ट’, ‘प्रोडेक्टिविटी ओरिएन्टेड’ कृषि जैसे शब्दों पर जोर दिया गया है।
कुल मिलाकर अगर हम देखें तो राष्ट्रीय जल-नीति का यह मसौदा सतही तौर पर जिन संकटों से उबारने की हमें बात करता है, वस्तुतरू आम लोगों को एक गहरी खाई में धकेलने की कोशिश है। कंपनियां ज्यादा मुनाफे के लिए आम आदमी का पानी छीन लेंगी। अभी तो हमने किसानों की आत्महत्याओं की खबरें देखीं और सुनी हैं लेकिन इन हालातों में वो दिन दूर नहीं जब हम पानी न मिलने की वजह से आत्महत्याओं का मंजर देखेंगे।
मल्टीनेशनल कंपनियां अब शायद अपने पारंपरिक उद्योगों में उतना मुनाफा और व्यवसाय नहीं देख रही हैं इसीलिए जल संसाधनों के वितरण में अपने लिए एक अहम बाजार देख रही हैं।
यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नीति का यह मसौदा जल-संकट से निपटने की बात तो करता है, पर देश में मौजूद बड़ी जलदृजमात को नजरअंदाज करता है जो प्रभावकारी जल प्रबंधन और जल संरक्षण के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनके पास वो जमीनी और व्यावहारिक ज्ञान है जिससे वो सच्चा बदलाव ला सकते हैं।
बात पानी के प्रयोग से संबंधित नियमों की है जो जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। ऐसे में नियमों को बहुत ही सावधानी से आम लोगों के साथ सलाह-मशविरा करके तय किया जाना चाहिए। प्रकृति की अमूल्य धरोहर जल-जंगल का समाज ही वारिस है न कि बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल और विश्वबैंक पोषित ग्रुप या संस्थाएं। यह सिर्फ एक मसौदे का सवाल नहीं बल्कि अरबों लोगों के जीवन का सवाल है।
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