Monday, December 5, 2011

जल, जंगल और जमीन का जनादेश


यात्रा मार्ग से ........
पी.वी. राजगोपाल
आंध्रप्रदेश में कई परेशानियां है लेकिन इस बात को अनदेखा नही किया जा सकता है कि यहां की कई खुबियां भी हैं। अगर आप कहीं बाजार से गुजर जाएं तो आपकी नजर किसी फल वाले दुकान में जरूर पडे़गा । जितनी सुन्दरता से केले के पूरे गुच्छे को आकर्षक ढ़ंग से बांध कर रखतें है वह अन्य राज्यों के तुलना में भिन्न है । आंध्रप्रदेश मुर्तियों का भी राज्य है इतने सारे मूर्तियों को दुसरे को प्रांतों में आप नही देखेगें। सभी नेताओं की मूर्तियां बड़े तादात में हर शहर में दिखाई पडे़गा । कहीं कहीं तो ऐसा लगेगा जैसे कहीं मूर्तियों की बगीचा बना दिया हो । वैसे तमिलनाडु और केरल में फलैक्स का ज्यादा प्रचलन है तमिलनाडु में तो इस हद तक की हर व्यक्ति शादी मे,ं जन्म दिन में और मुंडन कार्यक्रम में भी अपना अपना फलैक्स बनाकर बाजार में लगाते हैं । आंध्रप्रदेश के दलित आंदोलनों में कारण करीब करीब हर शहर में अम्बेडर भवन है, और अम्बेडर जी की मूर्तियां है । मूर्तियां अकसर प्रेरणा के स्रोत बनते हैं लेकिन अगर उसकी रख रखाव ठीक से ना हो तो मूर्तियों के साथ असम्मान जैसा दिखाई पड़ता है । देश भर में कई जगह गांधी जी की मूर्ति का सही रख रखाव नही होने के कारण बहुत खराब हालत में दिखाई पड़ा । मूर्तियों की स्थापना और रख रखाव को लेकर एक अच्छी समझ बननी चाहिए । किसी भी शहर में किसी भी समूह के माध्यम से मूर्तियां लगायी जाय ? इसकी रख रखाव की जिम्मेवारी भी उन्ही पर निर्धारित होना चाहिए । जैसे राष्ट््रीय झंडा केे लिए कुछ नियम निर्धारित है वैसे ही कुछ निर्धारण मूर्तियों के लिए भी होना है ।
तमिलनाडु और केरल के तुलना में हमारे सभाओं में पुलिस और खुफिया विभाग की उपस्थिति न के बराबर रही । तमिलनाडु और केरल में खुफिया विभाग के तौर तरीके से थोड़ी सी असुविधा होती थी । लोगों की समस्याओं से अधिक उन्हे यात्रियों का फोटों खिचनें का शौक था सीधे सीधे बात करके जानकारी लेने के बदले यात्रियों के बारे में इधर उधर पुछने की भी उनकी आदत थी । इस कारण से मुझे एक बार उनके तौर तरीक के बारे में लेख भी लिखना पड़ा । लेकिन आंध्रप्रदेश में नक्शल प्रभावित क्षेत्र हो या तेलंगाना आंदोलन से प्रभावित क्षेत्र हो कही भी पुलिस खुफिया विभाग ने यात्रा को लेकर कोई खलबली नही मचाई । आम जनता को अपनी बात कहने की आजादी इस प्रांत में शायद अधिक है । इसी प्रकार यात्रा के स्वागत में अधिकतर बैठकें सरकारी भवनों में ही की गई । जहां बैठकर निरन्तर गरीब लोगों ने सरकार के बारे में शिकायत दर्ज कराई । मुझे केरल प्रांत के कासरकोड शहर की याद आयी, जहां हमारे पहुंचते ही खुफिया विभाग और पुलिस विभाग के लोग दौड़कर पहुंच गये । फोटो खिचने लगे साथ चलने वाले विदेशी मित्रों के पासपोर्ट मांगने लगे । उनके लिए आम जनता की समस्याओं से ज्यादा मतलब इस बात से है कि कौन आता है कौन जाता है । देश की सुरक्षा के ड््रामा में लगे हुए इन कर्मचारियों को इस बात की तनिक भी फ्रिक नही है कि आम लोग जिन परेशानियों को लेकर चर्चा कर रहे है । इससे पूर्व जब मै कासरकोड शहर का भ्रमण करने आया, उस समय जिला कलेक्टर से मिलकर निवेदन किया था, कि वे आदिवासियों की भूमि की समस्या जल्दी हल करंे । समस्या तो साल भर में हल नही हुए लेकिन कौन समस्याओं के बारे में पुछने आते हैं ? इस बात को लेकर फ्रिक जरूर है । यही हालात छतीसगढ़ जैसे प्रांत में भी है । लोगों के समस्या हल करने में सरकार को बिलकुल रूचि नही है । लेकिन समस्याओं पर चर्चा करने वालों को नक्सली समर्थक घोषित करने में पूरा तंत्र लगा हुआ है । ऐसा लगता है कि किसी को भी नक्सली समर्थक कहने से वह अपने जिम्मेवारियों से बच जायेंगे ।
आंध्रप्रदेश में एक खूबी यह रही कि इस बार यात्रा में मार्क्सवादी, गांधीवादी, अम्बेडकरवादी हम सब लोग एकजुट हुए । इस बात पर भी हमारी सहमति बनी कि वादों से उपर उठकर सबकी ताकत आम जनता की समस्या हल करने में लगनी चाहिए । प्रेरणा कहां से मिली है इस बात को लेकर लड़ने के बदले प्रेरणा को लेकर हम क्या कर रहें हैं, उस पर ध्यान देने की जरूरत है जिस देश में 40 प्रतिशत लोग गरीबी से पीड़ित है वहां हम अपने अपने प्रेरणा स्रोतों को बहस के द्वारा सबसे अच्छा साबित कर भी दिया तो गरीबों को क्या लाभ होने वाला है । उन्हें तो इस बात की फ्रिक है । कि उनका अगला भोजन कहां से आयेगा । आस पास के दादाओं से कौन बचायेगा ? सर्वधर्म समभाव के बारे में हम अकसर यही कहते हैं कि प्रेरणा किसी भी गुरू से मिली हो, या किसी भी भगवान से लेकिन सवाल यह है कि आप करते क्या हो ? समाज में नफरत और अंशाति फैलाते हों या शांति और समानता ।
आंध्रप्रदेश के विशेष आर्थिक क्षेत्र और उससे जूड़ विस्थापन पर मैंने अलग से लिखा है । लेकिन भूमि सुधार को लेकर वारंगल जिले में जो उससे जूड़ अच्छा काम दिखाई उसके बारे में यहां लिख रहा हूं । वारंगल जिला एक समय नक्सल प्रभावित इलाका रहा है, लेकिन अब नक्सल प्रभावित गांव में ही भुमि सुधार का उपयोगी काम हो रहा है । जिला कलेक्टर श्री राहुल और संयुक्त कलेक्टर सुश्री करूणा ने मिल कर कुछ गांव के दीवारों में जमीन से संबंधित सब जानकारियों को लिखने लगे हैं । हर व्यक्ति इस चार्ट को देखकर समझ सकते है कि किसकी भूमि कहां और कितना है । अगर कोई ऋटि हो तो सुधारने के लिए आवेदन दे भी सकते हैं । कलेक्टर कार्यायल में ही भूमि सेल की स्थापना की है । कुछ वकीलों को इस काम में मद्द करने और उनके शिकायतों को देखने के लिए नियुक्त किये हैं । आम जनता के समस्याओं के प्रति संवेदनशील इन वकीलों से मिलकर और उनकी बात सुनकर सुखद आश्चर्य हुआ । हर जिलों में जरूर ऐसे वकीलों की टोली मिल सकती है । जिला प्रशासन से प्रोत्साहन मिलने से कई लोग इस प्रकार काम करने के लिए सामने आयेंगे । जिला प्रशासन के मुखिया जब आम लोगों की काम में रूचि लेने लगते हैं तब उनके नीचे काम करने वाले तमाम कर्मचारी भी रूचि लेने लगते हैं । वारंगल में करीब करीब यही हो रहा है । जिस तहसीलदार के कार्यालय का हमने भ्रमण किया वहां तमाम कर्मचारी आम जनता के प्रति संवेदनशील दिखाई पड़ा । जानकारियों को सुलभ कराने में और आम जनता के समस्याओं पर चर्चा करने के लिए अगर सरकारी कर्मचारी तैयार हो जाय तो आधी समस्या वैसे ही हल हो जायेगी । इसके विपरित अगर प्रशासन के मुखिया स्वंयम बहुराष्ट्रीय, राष्ट्रीय कंपनियों के दलाल जैसा व्यवहार करना शुरू करे तों पूरी प्रशासनिक ढ़ाचा उसी ओर मुडेंगें । वारगंल में एक और अच्छा काम हुआ है । प्रशासन ने वन विभाग व राजस्व विभाग को साथ बैठाकर आपसी विवादों को सुलझाना शुरू कर दिया है । विभागों के आपसी विवादों के कारण जमीन जोतने वाले कई लोग परेशान है । वन विभाग निरन्तर इन्हे परेशान कर रहे हैं और इनके खेतों में वृक्षारोपण कर रहे हैं । जिला प्रशासन के संयुक्त प्रयास से एक तरफ राजस्व विभाग के जमीन पर बसे हुए लोगों को सुरक्षा मिली है तो दुसरी ओर वन विभाग के जमीन पर बसे हुए लोगों को भूमि स्वामित्व मिला है तो दूसरी ओर वन विभाग के जमीन को जोतने वालों को फसल बचाने का मौका मिल जाता है । अगर यह प्रयोग वारंगल के कुछ गांव में हो सकता है तो देश के हर गांव में हो सकता है । जब देश के 70 प्रतिशत लोग खेती के काम में लगे है तो किसानों की समस्या हल करने के लिए इतना तो प्रयास हर सरकार को करना ही चाहिए । मध्यप्रदेश जैसे प्रांत में लाखों एकड़ जमीन विभागीय विवादों में फंसा हुआ है । जो वारंगल के कलेक्टर कर सकते हैं वही काम मध्यप्रदेश के कलेक्टर से भी कराया जा सकता है । मुझे यह डर जरूर लगा है कि जैसे जैसे आदिवासियों और दलितों की समस्या हल करने के में तभी आगे बढ़ेंगे । वैसे ही वारंगल के ताकतवर लोग उन्हे हटाने के अभियान में भी जूड़ेंगे । इस खतरे से मुक्ति तभी मिलेगी ? जब हर दल के नेता इस बात के लिए कमर कस लेंगे ? कि अब हमें सिर्फ बड़े लोगों को ही नही बल्कि वंचितों को भी न्याय दिलाना है । जिस देश के न्याय व्यवस्था निरन्तर सिर्फ पैसे वालों के लिए ही काम करेंगे, उस व्यवस्था को बदलना ही सही तरीका है । सवाल सिर्फ यह है कि इस बड़ी चुनौती को स्वीकारने के लिए कौन सी पार्टी तैयार है ?
आंध्रप्रदेश में बहुत दिनों से तेलंगाना आंदोलन चल रहा है । आंदोलनकारियों का कहना यही है कि संयुक्त प्रांत में उनके साथ न्याय नही हो रहा है ? इसलिए उन्हे अगल प्रांत चाहिए । ऐसा कई आंदोलन हमने पहले भी देखा है । आंदोलन के कारण छतीसगढ़, उतराखण्ड और झारखंड बना । कोई भी साधारण व्यक्ति इस बात को जांच सकते हैं कि छोटे प्रांत बनने से आम लोगों को कोई राहत मिली की नही मिली । इन प्रांतों में लोग कहने लगे हैं कि इससे अच्छा तो पहले था । छोटे प्रांतों में संसाधनों की जिस प्रकार की लूट मची है उसे देखकर घबराहट होने लगती है । विकास के नाम पर जल,जंगल, जमीन सब कुछ छीना जा रहा है । राष्ट्रीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में जीवन जीने के तमाम संसाधन सौंपा जा रहा है । कानून और नियम के धज्जियां उठा रहा है । विरोध करने वाले लोगों को पुलिस और गुण्डों के बल पर दबाया जा रहा है । यह सब कुछ विकास के नाम पर किया जा रहा है । मैं अपने मित्रों को सतर्क करने का प्रयास किया हूं कि छोटे प्रांत की कल्पना अपने आप में समस्याओं का हल नही है । छोटे प्रांत के आंदोलन के दरमियान अगर उन वंचितों के जीवन से जूड़े मुद्दों पर बहस नही होगी तो प्रांत बनने के बाद भी सरकार और वंचितों को कुछ नही मिलेगा । प्रांत तो बनेगा ? मंत्री मंडल भी होगें और तमाम सरकारी कर्मचारी भी नियुक्त होंगे आम जनता तब भी आवेदन लेकर हाथ जोडकर दर दर भटकते हुए दिखाई पड़ेगें । जैसे रायपुर में या रांची में हो रहा है, उसी प्रकार राजधानी और एयरपोर्ट के बनाने के लिए हजारों मजदुर और किसानों की कुर्बानी होगी । हवाई जहाज से सूटकेस लेकर उतरने वाले लोग तमाम जमीन खरीदेंगे । उस समय अन्याय के विरोध करने वालों पर अधिक दमन होगा । जैसे आज छतीसगढ़ और झारखंड में हो रहा है । छोटे प्रांत के सपना लेकर लड़ने वालों को अभी से सतर्क रहेना होगा । और जहां जहां नये प्रांत बने है वहां से सबक सीखना होगा ।
बुंदेलखण्ड प्रांत के नाम लड़ने वाले मेरे उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के मित्रों से भी मैं बार बार यही निवेदन करता हूं कि आंदोलन के कोख में ही परिवर्तन वादी बीज डालिए, अन्यथा एक राक्षस और पैदा होगा जो पहले से भी खतरनाक हो सकता है । विकेन्द्रीत सत्ता ही अगर हमारी आवश्यकता हो तो सबसे जरूरी ग्राम सभा को मजबूत करने का है । ग्राम सभा, विधान सभा और लोक सभा इसके अलावा और कोई सभा की जरूरत नही है । इसी तीन स्तर पर समस्यांए हल होनी चाहिए ।
आंध्रप्रदेश में दलित आंदोलन ताकतवर रूप में है पूरे 15 दिन के यात्रा में दलित आदिवासी मछुआरे और घुमंतु आदिवासियों के बीच में ही रहने का मौका मिला । कई सभा में दलित संगठनों के और वामपंथी दलों के स्थानीय लोग साथ-साथ उपस्थित हुए । गांधी जी ने जो ताबीज दी है ? उसके अनुसार सभी गांधीजनों को वही जगह काम करने की जरूरत है । पर जिनके बीच होकर हम हम गुजर रहे थे, जैसे गांधी के नाम लेने वाले राजनैतिक दल वंचित और पीडीतो से दूर हो गये, वैसे ही गांधी जी के नाम पर काम करने वाले सामाजिक संगठन भी धीरे धीरे आदिवासियों से, दलितों से, मछुवारों से दूर तो नही जा रहे हैं, गांधीजनों को इन बात पर गंभीरता से विचार करना होगा । समाज परिवर्तन के काम में लगे हुए लोगों को यह समझना ही होगा । हमारे बुद्धि और शक्ति की जरूरत उन्ही लोगों को अधिक है, जो आजाद भारत में आज भी गुलाम हैं । हमारी कार्यशैली में जो कमी है इसी के ही कारण गांधी जी वंचित समाज से दूर होते जा रहे हैं । गांधी जी को वंचितों के करीब ले जाने का दायित्व उन सबका है जो गांधी जी का नाम लेकर समाज में काम कर रहे हैं ।

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