Wednesday, October 28, 2015

किसानों को बेहतर दाम है दाल संकट का हल

             हरवीर सिंह

शाकाहारी बहुसंख्यक आबादी वाले हमारे देश में प्रोटीन के सबसे बड़े स्रोत दाल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में लगातार कमी आई है

दाल की कीमतों में एक साल के भीतर डेढ़ सौ फीसदी तक की बढ़ोतरी ने देश में सियासी पारे को आसमान पर पहुंचा दिया है। दाल केंद्र की एनडीए सरकार के लिए वही कर रही है जो प्याज की कीमतें पिछली कई सरकारों के लिए कर चुकी हैं। ऐसा नहीं है कि दाल की कीमतें अचनाक 60-70 रुपये प्रति किलो के 200 रुपये प्रति किलो को पार कर गई। इसके पीछे जहां देश में कृषि उत्पादन को लेकर नीतिगत विफलता है वहीं जमाखोरों और दाल निर्यातक देशों ने इस मोर्चे पर आग में घी का काम किया है।
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि भले ही हम हरित क्रांति के चलते खाद्यान्न निर्यातक देश बन गये हों लेकिन देश में दाल के उत्पादन में हम लगातार फिसड्डी बने रहे हैं। शाकाहारी बहुसंख्यक आबादी वाले हमारे देश में प्रोटीन के सबसे बड़े स्रोत दाल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में लगातार कमी आई है। साठ के दशक में देश में प्रति व्यक्ति 65 ग्राम दाल प्रति दिन उपलब्ध थी लेकिन अब यह आधे से भी कम होकर मात्र 32 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई है।  उत्पादन के मामले में 200 लाख टन के आंकड़े को पार नहीं कर पाते हैं और हर साल 30 से 50 लाख टन दाल का आयात करते हैं। देश में करीब ढाई करोड़ हैक्टेयर में दाल का उत्पादन होता है लेकिन इसमें में 20 फीसदी से भी कम सिंचित क्षेत्रफल है और दाल हमेशा एक उपेक्षित फसल की तरह बनी रही है। पिछले साल देश में कमजोर मानसून रहा और दाल का उत्पादन 2013-14 के 192.5 लाख टन  के मुकाबले 2014-15 में घटकर 172 लाख टन रह गया। इसके बाद चालू साल में भी मानसून खराब रहा और इस साल (2015-16) के खऱीफ सीजन में उत्पादन और घटा है।
अब सवाल उठता है कि जब पिछले साल करीब 50 लाख टन दाल का आयात किया गया था तो इस साल यह आयात 70 लाख टन तो होना ही चाहिए था ताकि आपूर्ति को पिछले साल के स्तर पर बरकरार रखा जा सके। और यहीं पर बड़ी चूक हुई है। खास बात यह है कि विश्व में भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक, आयातक और उपभोक्ता तीनों है। विश्व में करीब सात करोड़ टन दालों का उत्पादन होता है और इसमें करीब डेढ़ करोड़ टन का ही वैश्विक कारोबार होता है। यानी इस साल अकेले भारत ही इसमें से आधे का आयातक हो सकता है। ऐसे में दाम बढ़ना ही था।
देश में दालों के आयातकों की एक मजबूत लॉबी है और उनकी एसोसिएशन है। जब सरकार को पता था कि इस साल आपूर्ति का संकट है तो समय से दाल आयात की रणनीति क्यों नहीं बनाई गई। साथ ही देश में कमजोर उत्पादन का फायदा निर्यातकों और घरेलू आयातकों ने उठाया। वैश्विक बाजार में अरहर दाल की कीमत करीब तीन गुना बढ़कर 2000 डॉलर प्रति टन को पार कर गई। इसी तरह उड़द और मूंग की कीमत भी दो गुना से ज्यादा हो गई। हम दालों का आयात म्यामार, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा और आस्ट्रेलिया से करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि वहां भी हमारे देश के कई ब़ड़े कारोबारी सक्रिय हैं। अगर सरकारी एजेंसियां बेमौसम बारिश से रबी फसल के खराब होने के साथ ही दाल आयात के लिए सक्रिय हो जाती तो यह संकट पैदा नहीं होता। अब दो हजार और पांच हजार टन के आयात की सरकारी विज्ञप्तियों का कोई असर बाजार पर नहीं हो रहा है। रही सही कमी जमाखोरों और बड़े रिटेल कारोबारियों ने पूरी कर दी। सभी ने कार्टेल की तरह कीमतों में इजाफा किया क्योंकि बाजार में दाल तो उपलब्ध रही लेकिन कीमतें अप्रत्याशित रूप से बढ़ती चली गई।
आइए जानते हैं कि सरकार ने दाल की कीमतों को कम करने के लिए क्या कदम उठाये.एक्सपोर्ट पर प्रतिबंध लगाया और फ्यूचर ट्रेडिंग रोक लगाई गई। इंपोर्ट पर लगने वाली ड्यूटी को जीरो कर दिया। 500 करोड़ रुपए के प्राइस स्टैबिलाइजेशन फंड के जरिये सब्सिडी दी।  जमाखोरों और कालाबाजारी पर लगाम लगाने की कवायद की गई। स्टॉक होल्डिंग लिमिट लागू कर राज्यों को जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार दिया। लेकिन यह कदम देर से उठाये जाने के साथ ही केवल तात्कालिक राहत वाले ही कदम हैं। इसके स्थाई हल को लेकर सरकार की नीयत साफ नहीं रही है।
 असल में हम लगातार दालों के घाटे को बढ़ाते जा रहे हैं। इसकी वजह उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं होना है। दिलचस्प बात यह है कि सरकार कह रही है कि वह दालों का बफर स्टॉक बनाएगी। यह स्टॉक आयात से बनेगा। संकट को दीर्घकालिक रूप से हल करने के लिए यह सरकार का एकदम गलत कदम है। वैश्विक स्तर पर इस समय तमाम कृषि उत्पादों गेहूं, चावल, चीनी, कपास की कीमतें रिकॉर्ड निचले स्तर पर चल रही हैं लेकिन दाल में आग लगी हुई है। बेहतर होगा कि हम दालों का रकबा बढ़ाएं। इस साल किसान बासमती धान परमल धान की कीमत पर बेचने को मजबूर हैं। गन्ना किसानों का दस हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का बकाया है। इन किसानों को दाल उत्पादन के लिए तैयार किया जा सकता है क्योंकि यह फसलें सिंचित क्षेत्र में हो रही है। दालों को सिचिंत क्षेत्र में लाने से उत्पादकता मौजूदा 750 किलो प्रति हैक्टेयर से बढ़कर दो टन प्रति हैक्टेयर तक जा सकती है। हैदराबाद स्थित इक्रीसेट के सेंटर ने दालों की कई हाइब्रिड प्रजातियां विकसित की हैं जिनकी उत्पादकता भी अधिक है और इनकी रोग रोधी क्षमता भी ज्यादा है। लेकिन सरकार को किसानों को आश्वस्त करना होगा कि दाल की सरकारी खरीद होगी और वह भी बेहतर समर्थन मूल्य पर। ऐसा सरकार नहीं कर सकी है। चालू खरीफ सीजन (2015-16) के लिए सरकार ने अरहर और उड़द के समर्थन मूल्य में केवल 75 रुपये का इजाफा किया और 200 रुपये का बोनस देकर इसे 4425 रुपये प्रति क्विंटल किया है। इसी तरह मूंग के समर्थन मूल्य में केवल 50 रुपये की बढ़ोतरी कर 200 रुपये बोनस के साथ इसे 4850 रुपये प्रति क्विंटल किया है। वहीं रबी 2014-15 में चना का सर्मथन मूल्य केवल 75 रुपये बढ़ाकर 3175 रुपये और मसूर का समर्थन मूल्य 125 रुपये बढ़कार 3075 रुपये प्रति क्विंटल किया था। लेकिन इन सबके लिए उपभोक्ता 150 से 200 रुपये प्रति किलो तक चुका रहा है। बेहतर होगा कि सरकार तुरंत दालों का समर्थन मूल्य बढ़ाकर किसानों को प्रोत्साहित करे।  अगर इस समय हम 130 रुपये किलो की आयातित अरहर दाल के लिए व्यापारियों और विदेशी किसानों की जेब भर रहे हैं तो घरेलू किसानों के जरिये क्यों नहीं इस संकट का हल खोज लेते हैं जो सबसे आसान है।

Wednesday, October 21, 2015

Time to re-revitalize RTI


                                              SANJU VERMA


the Act now definitely needs a second revolution to revive the old fervour with which the RTI was first initiated.


With the RTI (Right to Information) Act entering into 10 years of its existence in 2015, it is an appropriate time to analyse its the efficacy and performance on the ground and make a judgment. As the Act came into being following a long and sustained civil society activism, it began very well impacting people’s life very positively.    

It heralded a new era of transparency and accountability in the country’s public life, specially matters pertaining to the governments at all levels- Centre, states and local self-government institutions. A number of significant disclosures were forced by the RTI, including the information regarding 2-G spectrum allocations and Commonwealth Games and so on.

Interestingly, the benefits of Act spread like fire in the jungle among the educated and otherwise empowered city dwellers. Most importantly, it led to the demand for several other equally important rights like the right to employment guarantee, the right to education and the right to food security. The RTI has had the effect of slackening the tight hold of the government and its officials on both information and instrumentalities of the state.

The decade following 2005 witnessed the slow withering away of the Central government and the RTI surely played a role in that unravelling — by increasing irreverence, scrutiny and through the critiquing of its authority among the general public.

However, of late, one witnesses a waning of fervour even though the number of RTI applications has been growing. Obviously, from the beginning, civil society activists and the media have been more enthusiastic about the RTI than civil servants, who have traditionally used information as the source of their power and mystique. The civil service’s indifference and hostility towards the RTI has not diminished over the years; if at all, it has only increased although many government servants, no doubt mostly disgruntled, have also been most successful users of RTI, largely seeking information to fix their own cases and fix those they did not like. Ordinary citizens mostly seek personal information regarding various services otherwise denied to them by the system, be it a passport or a ration card or various commonly required certificates.

Since disclosure of such information poses little threat to the system, the public authorities share such information relatively easily. It is the contentious or potentially controversial information that the public authorities have been very wary of disclosing. Thus, as far as personal information goes or information of an innocuous kind, the RTI has been a success. But as a tool to inculcate the value of transparency, the RTI has neither sunk deep into the government nor among most of the citizenry.

Meanwhile, almost 300 cases of murder, assault and harassment relating to information activism have been recorded in the ten years since the RTI Act came into force. Maharashtra has emerged as the most dangerous state for RTI activists in the country.

While there is no official data on RTI-related crime, figures compiled by the Delhi-based Commonwealth Human Rights Initiative found 230 cases of assault and harassment, 49 murders, and four suicides, over the past ten years.

CHRI data found that Maharashtra has double the number of cases (murders, attacks, harassment) than Gujarat, which comes in second followed by Uttar Pradesh, Delhi, Karnataka and Andhra Pradesh.

Maharashtra also has the highest number of murders followed by Gujarat, Uttar Pradesh, Bihar, Karnataka and Andhra Pradesh.

CHRI Data:

States with highest number of RTI-Related Murders from October (2005-2015)

Maharashtra 10
Gujarat 7
Uttar Pradesh 6
Bihar 5
Karnataka 4
Andhra Pradesh 3


Thus the Act now definitely needs a second revolution to revive the old fervour with which the RTI was first initiated. As far as laws go, the RTI Act has been the best thing to happen after the Constitution of India; we must make it work.

Wednesday, October 14, 2015

How many more farmers should commit suicide for govt to wake up?

                                                         Gee Yezdi

There is no single reason for all these suicides. Drought and access to credit and debt traps are causes of the menace. The government should evolve region-specific policies to address these issues

Farmers suicides in India have ceased to make headlines. Barring a few efforts by individuals and civil society, there has not been any serious initiative to find a permanent solution to the problem from the Centre and state government’s side. According to Maharashtra government’s figures, in this year, the suicide count in during January-June period was 1,300 cases.  This means in six months, the farmer suicide toll has already touched 66 per cent of the 1,981 cases recorded in the entire year of 2014.

When the Narendra Modi government took over, there was great hope. At least in some corners, this hope is fading. While he has announced many schemes such as Digital India, Skill India and Make in India, no targeted scheme was initiated with an aim to improve the condition of the farm sector.

Farmers suicide is only a manifestation of a deeper crisis in agriculture. However, I don’t agree with the general refrain of Modi baitors that first fight poverty, then Digital India. They should remember that this is also an anti-poverty initiative and all these efforts should go hand in hand.

But no one can deny that the focus agriculture sector should get is not getting from the current dispensation. The earlier dispensation was no better, though Rahul Gandhi has been beating his breast ever since Congress-led UPA was ousted from power.

There is no single reason for all these suicides. Drought and access to credit and debt traps are causes of the menace. The government should evolve region-specific policies to address these issues. Institutional finances are not adequately available and minimum support price fixed by the government do not reach the poorest farmer.

So the problems are plenty. Many farmers who undertake cultivation are not real owners of the land. But now we have to look at solutions.

Sometime ago, there was a programme on a successful Kerala farmer who in his plot of 0.35 acres used to about Rs 35,000-40,000 a month and support a family of four. In his miniscule plot, he had everything, he has cattle, goats, poultry, rabbits, vegetables and other plants. He used to sell bananas, coconuts and so on.

Although a farmer in Vidarbha, the epicentre of suicides, and a farmer in Kerala live in separate climatic zones, the idea can be replicated. The farmers in these trouble zones should be encouraged to cultivate multi crops such as coconut, turmeric, pineapple, and banana, papaya. Other options like poultry could be tried and the government support. This works in both ways it will not make a farmer fully dependent on one particular crop and also he has an alternative source of income.

The government has tried special economic zones for industrial development. Similarly, it should promote special agricultural zones, where only farming and agriculture related activity should be allowed.

Technology should be taken to farm fields. The prime minister has spoken about it but so far there has not been any concerted effort to achieve this. Besides, we should have a mechanism on the lines of the national disaster management body for agriculture. There should be a relook at the water management efforts. Also, using technology market connectivity for farmers can be established cost-effectively and transparently.


Ultimately, we have to take whatever it takes to help farmers because it is not only in their interest but in nation’s interest.

Wednesday, October 7, 2015

Fashion posing serious threat to planet earth

                                                      Lakshmi Singh


How can the fashion industry become more sustainable is the most important question that has been a issue of major debate these days


The last post spoke of the environmentalists going against the massive project of linking of two major rivers Krishna and Godavari as disastrous citing deforestation and upheaval for large number of ethnic communities as a major concern.

The environmentalists need to look at the amount of damage the fashion Industry is causing to our environment today.  The globe is facing a serious threat in the form of fashion today as its access to water is essential for cotton cultivation, textile dyeing and finishing. 

According to WWF, it can take up to 2,700 litres to produce the cotton needed to make a single t-shirt. It doesn’t end with that alone. The final operation of all dyeing process involves washing in baths to remove excesses of the original or hydrolyzed dyes not fixed to the fibre. In all these,  it is estimated that approximately 10-50% of the dyes used in the dyeing process are lost, and end up in the effluent, i.e, contaminating the environment with about one million tons of these compounds. As a consequence, these industries produce coloured waste water with a high organic load, which can contribute enormously to the environmental pollution of surface water and  treatment plants if not properly treated before disposal into the water resources. The ingestion of water contaminated with textile dyes can cause serious damage to the health of humans and of other living organisms, due to the toxicity, highlighting mutagenicity of its components . Approach the massive Orathupalayam Dam by road.

Within 2 miles of the dam, the lush rice paddies, coconut palms and banana trees that have characterized this part of southern India suddenly give way to a parched, bright red landscape, dotted only with scrub forest. The Noyyal River, which used to be clean and clear,

now runs foamy and green, polluted with the toxic runoff of the titanic textile industry 20 miles to the west, in Tirupur.At first glance, Tirupur, “Knit City,” appears to be an exemplar of  how globalization can improve the developing world. The garment industry here in Tamil Nadu earns billions of dollars annually, employs about a half-million people and exports clothes to Europe
and the United States. Chances are good that if you have a Gap, Tommy Hilfiger or Wal-Mart T-shirt marked “Made in India,” it came from here.  Sadly enough, this garment industry is responsible for disturbing the ecological balance.There is an urgent need for action on this.

How can the fashion industry become more sustainable is the most important question that has been a issue of major debate these days. The industry needs events like the Copenhagen Fashion Summit, which, since it launched in 2009, has become the world’s largest event on sustainability in fashion, with more than 1,000 participants. Here, leading international industry players can share best practice with their peers and  to create the business models required to tackle the urgent sustainability challenges facing our planet. From governments and global brands to princesses and pioneers, each attendee had one thing in common: the vision of a sustainable future for fashion. One must try and replicate the efforts of GOONJ, an NGO in India whose focus is to turn huge old material into valuable resource with the large scale civic participation. It was the first to highlight clothing as a basic but unaddressed need which deserves a place on the development agenda.Goonj were the first NGO  to reposition discard of urban households as a development resource for villages, moving away from its age old stance as a charitable object. They annually deal with over 1000 tonnes of material, from clothes, school material to old doors, windows and computers. 

 GOONJ has set precedent in handling massive disaster wastage right  from Gujarat earthquake to Tsunami, Bihar floods of 2008, Andhra floods and Uttarakhand floods etc. This is where it works on a lot of rejected material sent by people and other agencies. Over 2.5 million sanitary pads produced out of waste cloth and reached to villages/slums across India as a viable solution and powerful tool to open up taboo subject like menses.

Over 3,00,000 Kgs of throw away waste cloth converted into traditional mattress/quilt (Sujni) as large scale income generation activity in villages.  Tolead the charge towards solving global environmental, social and ethical challenges, Sensitising the young minds through awareness campaigns to opt for only recycled brands would go a long way in saving us from the threat.

Thursday, October 1, 2015

मुनाफे की खेती

                                आशीष कुमारअंशु


खेती को मुनाफे की खेती बनाने का अर्थ किसी तीसरे हरित क्रांति की मांग नहीं है। हरित क्रांति से इसका अर्थ नहीं लगाना चाहिए क्योंकि वहां उत्पादन के साथ साथ किसानों की लागत भी बढ़ी थी। बाद के समय में पंजाब में हरित क्रांति के साइड एफेक्ट भी पूरे देश ने देखे



पिछले कई सालों से खेती से जुड़ी जो खबर अखबारों में  छपती है, या खबरिया चैनलों पर आती है, आम तौर पर वह कर्ज तले दबे किसान की खबर होती है या फिर किसान आत्महत्या की। इन खबरों से हम जान पाते हैं कि उड़िसा, महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश में किसान आत्महत्या की स्थिति एक सी है लेकिन कभी उन किसानों पर खबरिया चैनलों की नजर नहीं जाती जो अपनी खेती की वजह से मिसाल बन सकते हैं। समाज के लिए और किसानों के लिए। ऐसे समय में जब मीडिया कों निदान सुझाना चाहिए, वह समस्याएं गिनाने में व्यस्त है। सिर्फ मीडिया को दोष क्यों देना, खेती किसानी से जुड़े तमाम सेमिनार, वर्कशॉप और सिम्पोजियम में वक्ता किसानों की दुर्दशा की ही बात कर रहे हैं और फिर सरकार को कोसते कोसते सभा का समापन हो जाता है। खेती को लेकर देश के किसानों के बीच जो एक समझ पिछले दो तीन दशकों में बनी है, उससे यह साबित हुआ है कि खेती करना घाटे का सौदा है। इसी का परिणाम है कि बड़ी संख्या में किसानों ने खेती से पलायन किया है। अब भी पलायन का सिलसिला रूका नहीं है, यह जारी है। अब समय है कि खेती को मुनाफे की खेती कैसे बनाया जाए, इसके विकल्प और उपाय पर राष्ट्रव्यापी बहस की शुरुआत की जाए। वैसे यहां यह बताना जरूरी है कि खेती को मुनाफे की खेती बनाने का अर्थ किसी तीसरे हरित क्रांति की मांग नहीं है। हरित क्रांति से इसका अर्थ नहीं लगाना चाहिए क्योंकि वहां उत्पादन के साथ-साथ किसानों की लागत भी बढ़ी थी। बाद के समय में पंजाब में हरित क्रांति के साइड एफेक्ट भी पूरे देश ने देखे। किस प्रकार पंजाब में गांव के गांव कैंसर पीड़ित हुए। किस प्रकार कर्ज तले दबे किसानों ने अपनी जमीन बेची और मालिक से मजदूर हुए। इसलिए खेती में जिस क्रांति की बात यहां की जा रही है, उसे आप खेती में मुनाफे की क्रांति नाम दे सकते हैं। 
23 जुलाई 2015 को देहरादून में इंडिया फाउंडेशन फॉर रुरल डेवलपमेन्ट स्टडिज और पत्रिकासोपान स्टेपने मिलकर मुनाफे की खेती, विकल्प और उपाय विषय पर एक अकादमिक बहस की शुरूआत की। इस आयोजन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ साथ उत्तराखंड, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के किसानों ने हिस्सा लिया। 
मुनाफे की खेती विषय को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने आकर्षक विषय बताया। अपने वक्तव्य मंे श्री रावत ने स्वीकार किया कि तकनीक और विकास के इस दौर में हम अपनी खेती को मुनाफे की खेती नहीं बना पाएं हैं। खेती में मुनाफे के लिए इसमें निवेश किया जाना जरूरी है। श्री रावत ने कहा- कृषि विकास दर को 4.5 प्रतिशत पर कैसे बनाए रखा जा सकता है, यह कृषि के नीति नियंताआंे के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। 
जिस प्रकार पूरे देश में भूमिगत जल का स्तर लगातार नीचे गिर रहा है। मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। ऐसे में किसान बेबस होकर छोटी छोटी मदद के लिए सरकार की तरफ टकटकी लगाए देख रहा है। इस स्थिति से एक किसान को उस वक्त निकाला जा सकता है, जब उसकी खेती मुनाफे की खेती बने। 
हाल मेंइंडियन एग्रीकल्चरल एक्सपोर्ट क्लाइम्बस टू रिकॉर्ड हाईनाम से आई रिपोर्ट बताती है कि भारत का कृषि निर्यात जो 2003 में 5 बिलियन डॉलर का था, वह 2013 में बढ़कर 39 बिलियन डॉलर का हो गया। यदि यूएस डिपार्टमेन्ट ऑफ एग्रीकल्चर द्वारा जारी की गई इस रिपोर्ट में दी गई जानकारी सही है तो किसानों के जीवन स्तर में बढ़े इस निर्यात के बाद कोई सुधार देखने को क्यों नहीं मिला?  
खेती को मुनाफे की खेती बनाने के लिए जरूरी है कि खेती करने से पहले किसान अपनी जमीन और उसकी मिट्टी को समझे। वह अपने जमीन की भौगोलिक परिस्थिति को समझे। उसके बाद अपनी खेती के लिए योजना बनाए। भारतीय किसान साल दर साल एक ही तरह की खेती करने का अभ्यस्त हो गया है। उसे अपनी यह आदत बदलनी होगी। उत्तराखंड की बात की जाए तो राज्य में खेती के लिए जो भौगोलिक परिस्थितियां है, वह कहीं और नहीं। इस परिस्थिति में हाई एल्टीट्यूड खेती अच्छी हो सकती है। इस परिस्थिति में उगने वाले फलो, सब्जियों और अन्य उत्पादों की बाजार में भारी मांग है। ऐसे में ऐसी खेती को यहां के किसानों को अपनाना चाहिए। उत्तराखंड में पर्वतीय खेती प्रोत्साहन के अभाव में दम तोड़ रही है, जबकि पर्वतीय खेती से राज्य को भारी लाभ हो सकता है और किसानों को रोजगार भी मिलेगा। 
खेती को मुनाफे की खेती बनाने के संबंध में इफको के विपणन निदेशक रॉय ने कहा कि अधिक यूरिया के इस्तेमाल की वजह से मिट्टी की उर्वरा शक्ति लगातार कम हो रही है। इसे लेकर किसानों को सावधानी बरतने की जरूरत है। श्री रॉय की तरफ से किसानों को बताया गया कि वे अपनी मिट्टी की नियमित जांच कराएं और अपनी मिट्टी में जिंक सल्फेट जैसे पदार्थों का इस्तेमाल करें। किसान सस्ता होने की वजह से अपने खेतों में यूरिया का इस्तेमाल अधिक करता है। श्री राय के अनुसार सरकार को यूरिया की सब्सिडी अब कम करके किसानों को जिंक सल्फेट उपलब्ध कराना चाहिए। श्री राय के अनुसार उनकी सहकारी संस्था एक विदेशी कंपनी से इस संबंध में बातचीत कर रही है, जल्द ही उस कंपनी के साथ मिलकर उनकी सहकारी संस्था इसे किसानों को सस्ते दामों में उपलब्ध कराएगी। 
डेमस्क गुलाब, कैमोलिन, जैपनिकज मिंट, लेमनग्रास जैसे दर्जनों सुूगंध फैलाने वाले पौधे हैं, जिनकी खेती से खेती मुनाफे की खेती हो सकती है। डेमस्क गुलाब की ही बात करें, जो झाड़ियों में उगता है। उसके तेल की कीमत चार लाख रुपए प्रति किलो है। डेमस्क गुलाब से उम्दा दर्जे का इत्र तैयार किया जाता है। 
चलते चलते सामली (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) से आए एक किसान का सवाल- एक लीटर तेल में जब नौ सौ दस ग्राम तेल आता हैं फिर एक लीटर दूध में गौ पालकों को एक हजार ग्राम दूध क्यों देना पड़ता है
इस सवाल का संतोषजनक जवाब यह आलेख पूरा किए जाने तक मिल नहीं पाया है। 
बहरहाल, यह समय पलायन का नहीं बल्कि किसानों के खेत में डंटे रहने का है और खेती को मुनाफे की खेती बनाने का है।