हरवीर सिंह
शाकाहारी
बहुसंख्यक आबादी वाले हमारे देश में प्रोटीन के सबसे बड़े स्रोत दाल की प्रति
व्यक्ति उपलब्धता में लगातार कमी आई है
दाल की कीमतों में एक साल के
भीतर डेढ़ सौ फीसदी तक की बढ़ोतरी ने देश में सियासी पारे को आसमान पर पहुंचा दिया
है। दाल केंद्र की एनडीए सरकार के लिए वही कर रही है जो प्याज की कीमतें पिछली कई
सरकारों के लिए कर चुकी हैं। ऐसा नहीं है कि दाल की कीमतें अचनाक 60-70 रुपये
प्रति किलो के 200 रुपये प्रति किलो को पार कर गई। इसके पीछे जहां देश में कृषि
उत्पादन को लेकर नीतिगत विफलता है वहीं जमाखोरों और दाल निर्यातक देशों ने इस
मोर्चे पर आग में घी का काम किया है।
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि
भले ही हम हरित क्रांति के चलते खाद्यान्न निर्यातक देश बन गये हों लेकिन देश में
दाल के उत्पादन में हम लगातार फिसड्डी बने रहे हैं। शाकाहारी बहुसंख्यक आबादी वाले
हमारे देश में प्रोटीन के सबसे बड़े स्रोत दाल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में
लगातार कमी आई है। साठ के दशक में देश में प्रति व्यक्ति 65 ग्राम दाल प्रति दिन
उपलब्ध थी लेकिन अब यह आधे से भी कम होकर मात्र 32 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन
रह गई है। उत्पादन के मामले में 200 लाख
टन के आंकड़े को पार नहीं कर पाते हैं और हर साल 30 से 50 लाख टन दाल का आयात करते
हैं। देश में करीब ढाई करोड़ हैक्टेयर में दाल का उत्पादन होता है लेकिन इसमें में
20 फीसदी से भी कम सिंचित क्षेत्रफल है और दाल हमेशा एक उपेक्षित फसल की तरह बनी
रही है। पिछले साल देश में कमजोर मानसून रहा और दाल का उत्पादन 2013-14 के 192.5
लाख टन के मुकाबले 2014-15 में घटकर 172
लाख टन रह गया। इसके बाद चालू साल में भी मानसून खराब रहा और इस साल (2015-16) के
खऱीफ सीजन में उत्पादन और घटा है।
अब सवाल उठता है कि जब पिछले
साल करीब 50 लाख टन दाल का आयात किया गया था तो इस साल यह आयात 70 लाख टन तो होना
ही चाहिए था ताकि आपूर्ति को पिछले साल के स्तर पर बरकरार रखा जा सके। और यहीं पर
बड़ी चूक हुई है। खास बात यह है कि विश्व में भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक,
आयातक और उपभोक्ता तीनों है। विश्व में करीब सात करोड़ टन दालों का उत्पादन होता
है और इसमें करीब डेढ़ करोड़ टन का ही वैश्विक कारोबार होता है। यानी इस साल अकेले
भारत ही इसमें से आधे का आयातक हो सकता है। ऐसे में दाम बढ़ना ही था।
देश में दालों के आयातकों की एक
मजबूत लॉबी है और उनकी एसोसिएशन है। जब सरकार को पता था कि इस साल आपूर्ति का संकट
है तो समय से दाल आयात की रणनीति क्यों नहीं बनाई गई। साथ ही देश में कमजोर
उत्पादन का फायदा निर्यातकों और घरेलू आयातकों ने उठाया। वैश्विक बाजार में अरहर
दाल की कीमत करीब तीन गुना बढ़कर 2000 डॉलर प्रति टन को पार कर गई। इसी तरह उड़द
और मूंग की कीमत भी दो गुना से ज्यादा हो गई। हम दालों का आयात म्यामार, दक्षिण
अफ्रीका, कनाडा और आस्ट्रेलिया से करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि वहां भी हमारे
देश के कई ब़ड़े कारोबारी सक्रिय हैं। अगर सरकारी एजेंसियां बेमौसम बारिश से रबी
फसल के खराब होने के साथ ही दाल आयात के लिए सक्रिय हो जाती तो यह संकट पैदा नहीं
होता। अब दो हजार और पांच हजार टन के आयात की सरकारी विज्ञप्तियों का कोई असर
बाजार पर नहीं हो रहा है। रही सही कमी जमाखोरों और बड़े रिटेल कारोबारियों ने पूरी
कर दी। सभी ने कार्टेल की तरह कीमतों में इजाफा किया क्योंकि बाजार में दाल तो
उपलब्ध रही लेकिन कीमतें अप्रत्याशित रूप से बढ़ती चली गई।
आइए जानते हैं कि सरकार ने दाल
की कीमतों को कम करने के लिए क्या कदम उठाये.एक्सपोर्ट पर प्रतिबंध लगाया और फ्यूचर
ट्रेडिंग रोक लगाई गई। इंपोर्ट पर लगने वाली ड्यूटी को जीरो कर दिया। 500 करोड़ रुपए
के प्राइस स्टैबिलाइजेशन फंड के जरिये सब्सिडी दी। जमाखोरों और
कालाबाजारी पर लगाम लगाने की कवायद की गई। स्टॉक होल्डिंग लिमिट लागू कर राज्यों को जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई का
अधिकार दिया। लेकिन यह कदम देर से उठाये जाने के साथ ही केवल तात्कालिक राहत वाले
ही कदम हैं। इसके स्थाई हल को लेकर सरकार की नीयत साफ नहीं रही है।
असल में हम लगातार दालों के घाटे को बढ़ाते जा रहे हैं। इसकी वजह उत्पादन
में बढ़ोतरी नहीं होना है। दिलचस्प बात यह है कि सरकार कह रही है कि वह दालों का
बफर स्टॉक बनाएगी। यह स्टॉक आयात से बनेगा। संकट को दीर्घकालिक रूप से हल करने के
लिए यह सरकार का एकदम गलत कदम है। वैश्विक स्तर पर इस समय तमाम कृषि उत्पादों
गेहूं, चावल, चीनी, कपास की कीमतें रिकॉर्ड निचले स्तर पर चल रही हैं लेकिन दाल
में आग लगी हुई है। बेहतर होगा कि हम दालों का रकबा बढ़ाएं। इस साल किसान बासमती
धान परमल धान की कीमत पर बेचने को मजबूर हैं। गन्ना किसानों का दस हजार करोड़
रुपये से ज्यादा का बकाया है। इन किसानों को दाल उत्पादन के लिए तैयार किया जा
सकता है क्योंकि यह फसलें सिंचित क्षेत्र में हो रही है। दालों को सिचिंत क्षेत्र
में लाने से उत्पादकता मौजूदा 750 किलो प्रति हैक्टेयर से बढ़कर दो टन प्रति
हैक्टेयर तक जा सकती है। हैदराबाद स्थित इक्रीसेट के सेंटर ने दालों की कई
हाइब्रिड प्रजातियां विकसित की हैं जिनकी उत्पादकता भी अधिक है और इनकी रोग रोधी
क्षमता भी ज्यादा है। लेकिन सरकार को किसानों को आश्वस्त करना होगा कि दाल की
सरकारी खरीद होगी और वह भी बेहतर समर्थन मूल्य पर। ऐसा सरकार नहीं कर सकी है। चालू
खरीफ सीजन (2015-16) के लिए सरकार ने अरहर और उड़द के समर्थन मूल्य में केवल 75
रुपये का इजाफा किया और 200 रुपये का बोनस देकर इसे 4425 रुपये प्रति क्विंटल किया
है। इसी तरह मूंग के समर्थन मूल्य में केवल 50 रुपये की बढ़ोतरी कर 200 रुपये बोनस
के साथ इसे 4850 रुपये प्रति क्विंटल किया है। वहीं रबी 2014-15 में चना का सर्मथन
मूल्य केवल 75 रुपये बढ़ाकर 3175 रुपये और मसूर का समर्थन मूल्य 125 रुपये बढ़कार
3075 रुपये प्रति क्विंटल किया था। लेकिन इन सबके लिए उपभोक्ता 150 से 200 रुपये
प्रति किलो तक चुका रहा है। बेहतर होगा कि सरकार तुरंत दालों का समर्थन मूल्य
बढ़ाकर किसानों को प्रोत्साहित करे। अगर
इस समय हम 130 रुपये किलो की आयातित अरहर दाल के लिए व्यापारियों और विदेशी
किसानों की जेब भर रहे हैं तो घरेलू किसानों के जरिये क्यों नहीं इस संकट का हल
खोज लेते हैं जो सबसे आसान है।