Wednesday, May 4, 2011

एक नई पहल


-तेजभानराम/ हरियाणा
देश के नक्से में हरियाणा एक ऐसा राज्य है जो दिल्ली के सबसे करीब रहते हुए भी कई स्तरों पर बहुत पिछड़ा हुआ है। वहां के गांवों में आज भी रूढ़ीवादी परंपराएं अपने उसी रूप में कायम है जैसे सदियों पहले थीं। खाप पंचायतों की तानाशाही जातीय संर्घष को और भी भयावह रूप दे रही है और बालिका शिक्षा को लेकर आज भी लोगों के मन में नीरसता का भाव साफ देखा जा सकता है। कन्या हत्याओं के सबसे अधिक मामले इसी प्रदेष से आते हैं। ताजा जनगणना रिपोर्ट में स्त्री पुरूष का अनुपात इसकी पुष्टी करता है, जो बेहद शर्मनाक है।
सागरपुर हरियाणा का एक ऐसा गांव है जो दिल्ली से 40 किलोमीटर और फरीदाबाद से 15 किलोमीटर दूर है। इस गांव की कुल आबादी डेढ़ हजार के आस-पास है जिसमें एक सरकारी स्कूल, एक पशु अस्पताल, एक पंचायत भवन और साथ में एक देशी शराब का ठेका है, जो सार्वजनिक है। बाकी का सब कुछ गांव वालों के हवाले है। गांव कई जातियों का मिश्रण है। कुछ नौकरी पेशे लोग भी है लेकिन दो तिहाई से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे गुजर करती है, जिनका मुख्य पेशा खेती है। इसलिए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां शिक्षा का स्तर क्या होगा क्योंकि जमाना भी कॉन्वेन्ट स्कूलों का है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली कॉलेज ऑफ आटर्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर इकोनॉमिक्स के पद पर कार्यरत वीर सिंह इसी गांव के रहने वाले हैं, जो मुश्किलों में पढ़ाई करके यहां तक पहुंचे हैं। उनका मानना है कि देश की सारी समस्याओं की जड़ लोगों का शिक्षित न होना ही है। शिक्षा ही एक ऐसा हथियार है जिसके बल पर किसी भी समस्या का हल निकाला जा सकता है। और दुर्भागय ही है कि आजादी के छः दशक बीत जाने के बाद भी आम आदमी शिक्षा की पहुंच से बहुत दूर होता जा रहा है। सरकारी स्कूलों का गिरता शक्षिक स्तर, प्राइवेट स्कूलों के अवैध करोबार और अच्छे स्कूलों में लगातार मंहगी होती जा रही शिक्षा आम आदमी को इससे वंचित करने की ही एक साजिश है, जिसमें सरकारी तंत्र शत-प्रतिशत लिप्त है।
आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों को शिक्षित करने और आम आदमी के बीच जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से वीर सिंह ने उन सभी बच्चों को मुफ्त पढ़ाने का काम शुरू किया है, जो पैसों के अभाव में अच्छे स्कूलों में नहीं पढ़ पाते हैं। इसके लिए उन्होंने दो तरह की योजनाएं बनाई है। पहली योजना में वह बच्चे है, जो हाईस्कूल, इंटर पास करने के बाद एसएससी, बैकिंग तथा अन्य कॉम्पटीशन्स की तैयारी करना चाहते हैं लेकिन पैसे के अभाव में वह शहर नहीं जा सकते या किसी कोचिंग संस्थान में एडमिशन नहीं ले सकते। दूसरे में वे बच्चे है, जो गांव के या आसपास के सरकारी स्कूलों में पढ़ते है, जहां शिक्षा का स्तर बहुत ही घटिया है। सागरपुर में एक सरकारी और पांच प्राइवेट स्कूल है। सरकारी स्कूल में महज दो सौ के आसपास छात्रों का नामांकन है जबकि प्राइवेट स्कूलों में इससे कई गुना ज्यादा छात्र नामंकित है। सरकारी स्कूल में 90 फीसदी बच्चे दलित हैं, जो पूरे देश के सरकारी स्कूलों के आकड़े से अलग नहीं है। इस कार्यक्रम को शुरू किए हुए उनको लगभग एक साल हो चुके हैं। वर्तमान समय में कॉम्पटीशन्स की तैयारी करने वाले कुल 12-15 बच्चे नियमित आते हैं, जिनमें सभी स्नातक के छात्र है। स्कूल में पढ़ने वाले कुल 50 बच्चे आते हैं, जिनमें कक्षा एक से लेकर दस तक के छात्र शामिल है। इसमें सबसे ज्यादा लड़कियां है। वीर सिंह स्वयं दलित समाज से ताल्लुक रखते हैं। उनका लक्ष्य आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाना है। और जाहिर सी बात है कि देश में सबसे ज्यादा उत्पीड़ित और शोषित दलित समाज ही है। वहां फिलहाल हफ्ते में कम से कम दो दिन शनिवार और रविवार गांव में जाकर पढ़ाते है। इसके अलावा अन्य छुट्टियां भी वहीं बिताते हैं। इस बार गर्मी की छुट्टियां वो बच्चों के साथ गांव में ही बिताएंगे। जुआरिओं और शराबियों का अड्डा बन चुके गांव के पंचायत भवन को अब बच्चों के पढ़ाने के काम में इस्तमाल किया जाता है।
गांव के बच्चों को हर क्षेत्र में निपुण बनाने के लिए इनके पास ऐसे लोगों की ऐ टीम भी है जो शिक्षा के अलग-अलग क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखते हैं। और बेहतर समाज की रचना के लिए अपना कुछ योगदान देना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें किसी तरह के मानदेय की आवश्यकता नहीं है। उन्हीं में से एक हैं- दीनामणि भीम, जो दिल्ली विश्वविद्यालय के सहीद भगत सिंह कॉलेज में पोलेटिकल के असिस्टेंट प्रोफेसर है। दीनामणी सप्ताह में दो दिन इंग्लिश स्पोकेन का क्लास लेने जाते हैं, जिससे बच्चों के भीतर आत्मविश्वास को बढ़ाया जा सके। उनका मानना है कि आज के परिवेश में हमें अपनी मातृभाषा के साथ-साथ सबसे ज्यादा जरूरत इंग्लिश की है। बड़े घरों के बच्चे तो प्राइवेट स्कूलों में इंग्लिश मीडियम से पढ़ाई करके आगे निकल जाते हैं, लेकिन सरकारी स्कूलों के बच्चे अंग्रजी के अभाव में हमेशा पीछे रह जाता है।
शिक्षा के नाम पर सरकार हर साल अरबों रुपये खर्च तो करती है लेकिन रिजल्ट हमेशा फिसड्डी ही रहता है। मीड डे मील जैसी योजना को लागू कर सरकार ने बच्चों का ध्यान शिक्षा से हटाकर खाने की तरफ लगा दिया है, जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा दलित और पिछड़े समाज को ही भुगतना पड़ रहा है। दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूलों में लगातार बढ़ते कारोबार से सरकार की मंशा साफ है कि वह शिक्षा का निजीकरण करना चाहती है और आम आदमी को इससे वंचित कर साम्राज्यवादी व्यवस्था को कायम रखना चाहती है।
यह तस्वीर देश की राजधानी दिल्ली से महज 40 कि.मी. दूर की है। दिल्ली में जहां देश की सारी योजनाएं सबसे पहले लागू की जाती है और विकास के नाम पर अरबों खरबों रुपये पानी की तरह बहाए जाते हैं वहीं इस गांव में विकास के नाम पर एक स्कूल के साथ एक शराब का ठेका मिला है। अमूनन यही स्थिति हरियाणा के सभी गांवों की है।
अपनी इस कार्य योजना को लेकर वीर सिंह पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं और ‘सेन्टर फॉर ह्यूमन रिसोर्स एंड डेवलपमेंट’ के नाम से एक संस्था बनाकर पूरे देश के गांवों में अपना नेटवर्क स्थापित करना चाहते हैं ताकि लोगों को जागरूक किया जा सके और देश तथा समाज की प्रगति में एक कदम और बढ़ाया जा सके।

बेटियां बदल रही समाज


-राजेन्द्र बंधु
महाराष्ट्र में सावित्रीबाई फुले ने जब लड़कियों का पहला स्कूल खोला तो लोगों ने उसका घोर विरोध किया था। विरोध इतना तीव्र था कि जब वे लड़कियों पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थीं तो उन पर कीचड़ फेंका जाता था। इससे जाहिर है कि पारंपरिक समाज कभी भी लड़कियों की आजादी और विकास के पक्ष में नहीं रहा है। उन्हें शिक्षा, सम्पत्ति, रोजगार जैसे मामलों में उन्हें शुरू से ही वंचित रखा गया है। घर-परिवार से लेकर समाज और राजनीति तक बेटियों को विकास के अवसरों से वंचित रखने की परंपरा समाज में सदियों से चली आ रही है। इस जटिल परिस्थिति में जब परंपराओं को चुनौती देने के लिए लड़कियां आगे आती है तो एक नए सामाजिक बदलाव की संभावना उजागर होती है। मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र की देवास शहर की लड़कियों पिछले दिन इसी तरह के कुछ साहसिक कदम उठाए।

चार महीने पहले देवास की ही मोनिका ने दहेज मांगने वाले दूल्हे को बैरंग वापस लौटा दिया। दूल्हा जज के पद पर था और दहेज न दिए जाने के कारण लड़ाई पर आतुर हो गया था। यह मोनिका का साहस था कि उसने घर की दहलीज से बारात वापस लौटा दी और पुलिस में उसकी शिकायत दर्ज करवाई। नतीजतन लालची दूल्हे को जज का पद गंवाना पड़ा।
देवास में इस वर्ष फरवरी-मार्च माह में घटित तीन अन्य घटनाओं में यहां की लड़कियों ने अपने परिजनो के अंतिम संस्कार में शामिल होकर सदियों पुरानी पंरपराओं को तोड़ने का साहस दिखाया। यहां की तीन बहादूर लड़कियां मोनाली, सोनाली और नैनो ने 21 फरवरी को अपने पिता स्व. कृष्णकान्त के दुखद निधन पर अंतिम यात्रा में शामिल होकर अंतिम संस्कार की वे सभी रस्में पूरी की जो सिर्फ बेटों के लिए ही सुरक्षित मानी जाती हैं। स्पष्ट है कि स्व. कृष्णकांत का कोई बेटा नहीं है। सोनाली कहती है ‘‘हमें कभी ऐसा लगा ही नहीं कि परिवार में लड़का होना भी जरूरी है। समाज में लड़के-लड़कियों को अब एक समान समझा जाना चाहिए। लड़कियां किसी भी दृष्टि से कमजोर नहीं है और वे वह सभी काम कर सकती है जो अब तक सिर्फ लड़कों द्वारा किए जाते रहे हैं।’’ सोनाली और नैनो इन्दौर के एक कॉलेज से बिजनेस एटमिनिस्ट्रेशन में स्नातक की पढ़ाई कर रही है वहीं मोनाली नौवी कक्षा की छात्रा है।
इसी तरह 6 मार्च को देवास की अंकिता, ऋचा और आकांक्षा ने अपने पिता स्व. राजीव शुक्ला के निधन पर अंतिम यात्रा में शामिल होकर मुखाग्नि दी। अंकिता इंजीनियरिंग और ऋचा चार्टड एकांउटंट की पढ़ाई कर रही है वहीं आकांक्षा हाईस्कूल में अध्ययनरत् है। 13 मार्च को देवास की सुधा, शारदा, तारा और प्रेमकुंअर अपनी 97 वर्षीय मां की शव यात्रा में शामिल हुई। उल्लेखनीय यह है कि ये चारों बेटियां विवाहित है। बेटियों को पराया धन समझने वाले पारंपरिक समाज में विवाहित बेटियों द्वारा मां का अंतिम संस्कार किया जाना एक बदलावकारी घटना है।
मध्यप्रदेश के देवास शहर में घटित ये घटनाएं किसी संस्कार को पूरा करने तक सीमित नहीं है, बल्कि ये समाज को एक नया रास्ता भी दिखा रही है। स्पष्ट है कि पिछले कुछ सालों में देश के अन्य राज्यों की तरह मध्यप्रदेश में भी महिलाओं की आबादी में चिंताजनक कमी आई है। नई जनगणना के आंकड़ों में अनुमान लगाया जा रहा है कि प्रदेश में 1000 पुरूषों पर महिलाओं की संख्या 913 रह गई है। जबकि वर्ष 2001 में यह संख्या 936 थीं। प्रदेश में चम्बल एवं बुंदेलखण्ड क्षेत्र में तो यह आकाड़ा और भी कम है। कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराध के चलते अब प्रदेश के मालवा क्षेत्र में भी बालिकाओं की संख्या कम हो रही है। देवास जिले में स्त्री-पुरूष अनुपात में जिस गति से गिरावट आ रही है, वह हमारी विकास नीति और विकास की अवधारणा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। क्योंकि सर्वाधिक विकसित माने जाने वाले कस्बों व गांवों में महिलाओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है। जिले के मध्य नर्मदा क्षेत्र में स्थित खातेगांव नामक कस्बे की आर्थिक वृद्धि दर जिले के अन्य सभी कस्बों से सर्वाधिक है। इस क्षेत्र की आर्थिक सम्पन्नता का आंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां के 167 गांवो के बीच के स्थित कृषि उपज मण्डी द्वारा हर वर्ष दो करोड़ से ज्यादा की फसल क्रय की जाती है। यहां के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को भी तरक्की का पैमाना माना गया है। किन्तु तरक्की की इस तस्वीर का दूसरा पहलू अत्यन्त निराशाजनक है। इस क्षेत्र में महिलाओं की संख्या पूरे प्रदेश के औसत से कम है। सन् 1981 के जनगणना आंकाड़ों के मुताबिक देवास जिले के खातेगांव नामक कस्बे में 1000 पुरूषों पर 890 महिलाएं थीं, जो सन् 1991 में घटकर 879 हो गई और अब यह संख्या 870 तक सिमट गई हैं। महिलाओं की घटती तादाद की यदि यही गति कायम रही तो आने वाले समय में उनकी तादाद 850 तक हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
समाज में दिखाई देने वाले तमाम संकेतको और तथ्यों से यह बात साफ है कि समाज ने बेटियों को विकास की परिभाषा से ही अलग रखा गया है। ताजा जनगणना के अनुसार अब देश में प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या मात्र 927 के घटर 914 रह गई है। यानी अब बेटियों के पैदा होने का अधिकार भी छीना जा रहा है। शिक्षा के मामले में देश में जहां लड़कों की साक्षरता दर 73 प्रतिशत है वहीं लड़कियों की साक्षरता मात्र 48 प्रतिशत तक सिमटी हुई है। देश में साक्षरता और शिक्षा के ज्यादातर प्रयास लड़कों या पुरूषों पर ही केन्द्रित रहे हैं। शिक्षा के मामले में लड़कियों को पीछे रखे जाने की पंरपरा कोई नई नहीं है। आजाद भारत में साठ के दशक से पहले लड़कियों के गणित और विज्ञान की शिक्षा भी जरूरी नहीं मानी गई थीं। उस समय लड़कियां को गणित और विज्ञान विषयों के साथ कॉलेजों में प्रवेश तक नहीं दिया जाता है। सन् 1964-66 में नेशनल कमीशन ऑन एजुकेशन की रिपोर्ट की अनुशंसा के बाद ही गणित और विज्ञान की शिक्षा के दरबाजे लड़कियों के लिए खोले गए। किन्तु यह जरूरी नहीं कि सरकारी प्रावधानों के पारित हो जाने के विकास के अवसर सुनिश्चित हो जाए। यह बात इस तथ्य से भी साबित की जा सकती है कि सन् 2010 में बारहवी कक्षा में 75 प्रतिशत लड़कों की तुलना में 85 प्रतिशत से ज्यादा लड़कियां उत्तीर्ण हुई थीं। किन्तु यूपीएससी की परीक्षा में चयनित 857 प्रत्याशियों में से महिलाओं की संख्या सिर्फ 195 थी। यानी शिक्षा के अवसर भी यदि लड़कियों को दिए गए है तो वे पुरूष प्रधान समाज की दायरे में और पुरूष प्रधान समाज के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए!
इससे यह बात साफ है कि चांद और मंगल पर पहुंचने वाला समाज अभी भी बेटियों को बोझ मान रहा है। देवास की बेटियों ने लड़कियो को कमतर और कमजोर समझने वाली मान्यताओं को तोड़ने का साहस दिखाया है। उन्होंने यह साबित किया है कि विरासत सिर्फ लड़कों से ही नहीं चलती, बेटियों की भी उसमें बराबरी की हिस्सेदारी है।

गिरता भूजल स्तर, बढ़ता जल संकट

देश में अत्यधिक दोहन के कारण भू-जल स्तर में गिरावट आ रही है। केंद्रीय भूमि जल प्राधिकरण के मुताबिक़ देशभर के 18
राज्यों में 286 ज़िलों में पिछले दो दशकों के दौरान भू-जल स्तर चार मीटर गिरा है। हरियाणा के महेंद्रगढ़ और कुरुक्षेत्र में भूजल स्तर हर साल क्रमश: 54 और 48 सेंटीमीटर की गति से गिर रहा है। पंजाब के 80 फ़ीसदी क्षेत्र में भू-जल स्तर में ख़तरनाक स्थिति तक गिरावट दर्ज की जा रही है। हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय से मिली जानकारी के मुताबिक़ कुरुक्षेत्र, करनाल, गुड़गांव, मेवात, पानीपत, कैथल, रेवाड़ी, यमुनानगर, पंचकुला, फ़रीदाबाद, सोनीपत और महेंद्रगढ़ ज़िलों में औसत भू-जल स्तर तेज़ी से गिर रहा है। क़ाबिले-ग़ौर है कि ज़मीन में पानी के रीचार्ज के मुक़ाबले ट्यूबवेल 40 से 50 फ़ीसदी भूजल का दोहन कर रहे हैं। हरियाणा स्टेट माइनर इरिगेशन ट्यूबवेल कॉरपोरेशन और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड की सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 1996 में 27,957 ट्यूबवेल थे, लेकिन 2000 में इसकी तादाद बढ़कर 83,705 हो गई। मौजूदा वक्त में राज्य में क़रीब 6,11,603 ट्यूबवेल बताए जा रहे हैं। इन में से 2,80000 ट्यूबवेल डीजल और तीन लाख ट्यूबवेल बिजली से चलाए जा रहे हैं। इसी तरह पंजाब में भी हर साल ट्यूबवेलों की तादाद में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। पर्यावरविदों के मुताबिक़ भारत में भूमि प्रबंधन का परिदृष्य बेहद निराशाजनक है। आज़ादी के बाद सिंचाई के परंपरागत तरीक़ों के बजाय आधुनिक सिंचाई प्रणालियों को अपनाया गया, जिससे भूमि की उत्पादकता में कमी आई है।

पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के सिविल रिट पटिशन संख्या 20032 (2008) के निर्देश के तहत गुड़गांव ज़िला प्रशासन ने 105 गांवों में ट्यूबवेल और बोरवेल लगाने पर पाबंदी लगा दी है। इनमें चौमा, पनवाला, खुसरोपुर, खुसरापुर, कार्टरपुरी, नसीराबाद, मौलाहेड़ा, डूंडाहेड़ा, नाथुपुर, सिकंदरपुर, चक्रपुर, वज़ीराबाद, घाटा, सिरहौल, सुखराली, मतीखेड़ा, चंद्रनगर, सालूखेड़ा, दौलतपुर, कन्हैई, झाड़सा, समसपुर, टींकरा, इस्लामपुर, नाहरपुर रूपा, शिवाजी नगर, गुड़गांव शहर, भीमगढ़, कादीपुर, खांडसा, मोहम्मदपुर, बामरोली, हरसरू, गाडरौली खुर्द व कलां, बसई, धनवापुर, दौलताबाद, गढ़ी हरसरू, हयातपुर, सिकंदरपुर बढ़ा, खेदकीदौला, नरसिंहपुर, रामपुर, शिकोहपुर, बेगमपुर खटोला, फाजिलपुर झाडसा, दरबारीपुर, हसनपुर, ढाणी रामपुर, पलडा, सकतपुर, नूरपुर, घसोला, बादशाहपुर, मैदावास, रामगढ़, उल्लाहावास, ब्रह्मापुरण्य, कादरपुर, बहरामपुर, गुड़गांव गांव, धूमसपुर, अकलीमपुर, टीकली, गवालपहाड़ी, रंगहरीखेड़ा, बजघेड़ा, टीकमपुर, मोहम्मदहेड़ी, अलावर्दी सराय, इनायतपुर, हैदरपुर, नंगली ओमेरपुर, आदमपुर, फतेहपुर, टीकरी, विंदापुर, सिही, शाहपुर, धर्मपुर, बाबूपुर नखडौला, चंदू, साढराणा, गोपालपुर, गढी, हमीरपुर, वजीरपुर, ढोरका, मेवका, नवादा फतेहपुर, काकरौला, कासन, नाहरपुर कासन, खोह, सहरावन, मानेसर, नौरंगपुर, नयनवा, बंडगुर्जर, बालियावास और बंधवाड़ी आदि शामिल हैं।
अमेरिका के नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के एक अध्ययन के मुताबिक़ आने वाले पांच से दस सालों में उत्तर भारत के हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में भू-जल स्तर तेज़ी से गिर रहा है। इन राज्यों में भू-जल स्तर में पिछले सात सालों में एक फुट प्रतिवर्ष की गिरावट दर्ज की गई है इसका मुख्य कारण सिंचाई में भूमिगत जल का इस्तेमाल करना है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत की सबसे बड़ी झील वानगंगा की क्षमता से दोगुना भूजल सूख चुका है। वैज्ञानिकों ने पाया कि उत्तर भारत में जेट पंप आदि से भूजल का दोहन तेज़ी से किया जता रहा है, जो कि प्राकृतिक दोहन से कहीं ज्यादा है। इतना ही नहीं इन राज्यों में मिट्टी में नमी भी खत्म होती जा रही है, जो खेती पर संकट की निशानदेही है।
जल संसाधन मंत्रालय के मुताबिक़ जनवरी, 2007 में उपहिमालयी क्षेत्र, गंगा नदी की उपरी ओर जल स्तर की गहराई साधारणतः 2-5 मीटर सतह के नीचे (एमबीजीएल) के मध्य है। कुछ स्थानों में 2 मीटर से कम उथला जल स्तरभी देखा गया है। देश के पूर्वी हिस्से में ब्रह्मपुत्र घाटी में कुछ स्थानों के अलावा जहां जल स्तर की गहराई 2 एमबीजीएल से कम है। अमूमन जल स्तर की गहराई 2-5 एमबीजीएल के बीच है। हालांकि ऊपरी असम में कुछ गहरे जल स्तर वाले स्थानों में 5-10 एमबीजीएल की गहराई भी पाई गई है। सिंधु बेसिन के अधिकांश हिस्सों में जल स्तर गहराई अमूमन 10-20 एमबीजीएल के बीच है। गुजरात और राजस्थान को शामिल करते हुए देश के पश्चिमी हिस्से में 10-20 एमबीजीएल के बीच ज्यादा गहरा जल स्तर पाया गया है। राजस्थान के जोधपुर, चुरू, जालोर, नागौर, झुनझुनु तथा जयपुर जिलों में 40 मीटर से गहरा जल स्तर पाया गया है। पश्चिमी तट पर जल स्तर सामान्यतः 5-10 मी. के मध्य है। महाराष्ट्र के पश्चिमी हिस्से में 5 मीटर से कम जल स्तर रिकॉर्ड किया गया। पूर्वी तट यानी तटीय आंध्रप्रदेश तथा उड़ीसा में सामान्यतः जल स्तर 2-5 मीटर के बीच है। हालांकि 2 मीटर से कम जल स्तर वाले कुछ पाकेट भी रिकार्ड किए गए। गंगा बेसिन के पूर्वी हिस्से में जल स्तर अमूमन 2-5 एमबीजीएल के बीच है। पश्चिम बंगाल के पूर्वी हिस्से में 5-10 एमबीजीएल के बीच जल स्तर पाया गया। मध्य भारत में कुछ पाकेटों जहां जल स्तर 10 एमबीजीएल से अधिक है अमूमन जल स्तर 2-10 एमबीजीएल के बीच है। देश के प्रायद्वीपीय हिस्से में एकाध पाकेटों में जहां जल स्तर 10-20 एमबीजीएल है सामान्यतः जल स्तर 2-10 एमबीजीएल के मध्य है। कुछ पाकेटों में 20-40 मीटर और 40 मीटर से ज्यादा गहरे जल स्तर भी पाए गए हैं।

जनवरी, 2006 में पिछले साल के जलस्तर के मुक़ाबले पूरे देश में जल स्तर के मिले जुले रूझान हैं। जल स्तर में गिरावट मुख्यतः आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु राज्य में देखी गई। आंध्रप्रदेश में राज्य के बड़े हिस्से में जल स्तर में व्यापक गिरावट देखी गई। 25 से अधिक मानीटरिंग कुओं में 2 मीटर से ज्यादा जल स्तर में गिरावट पाई गई। 2-4 मीटर की गिरावट तेलगांना क्षेत्र में खम्मम, करीमगंज, रंगारेड्डी नालगोंडा और महबूब नगर में, तटीय क्षेत्र के प्रकासम और नेल्लोर ज़िलों में और रायल सीमा ज़िले के हिस्सों में देखी गई। कर्नाटक में 2 मीटर से ज्यादा जल स्तर में गिरावट रायचुर, बेल्लारी, चित्रदुर्ग, चिकमगलूर, माण्डया, कोलार, सिमोगा, हवेरी गदग, कोपल, गुलबर्ग, मैसूर, बंगलौर शहरी तथा तुमकूर जिलां में देखी गई। तमिलनाडु में 2-4 एमबीजीएल के बीच जल स्तर में गिरावट 10 कुओं में पाई गई और कन्याकुमारी, नागपट्टनम, नीलगिरी और तुतीकोरीन ज़िलों के अलावा सभी ज़िलों में गिरावट का रूझान रहा।

जनवरी, 2007 और औसत जल स्तर (1997-2006) के बीच जल स्तर में उतार-चढ़ाव से पता चलता है कि पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश के पूर्वी हिस्से और पूर्वी राजस्थान में 20 से ज्यादा मानीटरिंग कुओं में जल स्तर में 2 मीटर से अधिक की गिरावट देखी गई। पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय के हिस्सों, त्रिपुरा और झारखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में जल स्तर में 2 मीटर से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई। आंध्रप्रदेश में अदिलाबाद, करीमनगर, मेडक, नालगोंडा और महबूबनगर ज़िलों तथा पश्चिमी गोदावरी, कुडुप्पा और चित्तूर ज़िलों के छोटे छिटपुट क्षेत्रों में जलस्तर में 4 मी. से अधिक की बढ़ोतरी देखी गई। उत्तर प्रदेश में अलीगढ़, रूच, बलरामपुर, बिजनौर, चन्दौली, झांसी, महाराजगंज जिलों के हिस्सों में जल स्तर में 2 मीटर तक की बढ़ोतरी देखी गई। आगरा, इलाहाबाद, बांदा, झांसी, कानपुर, मथुरा, प्रतापगढ़, मुरादाबाद और वाराणसी ज़िलों में 4 मीटर से अधिक की गिरावट पाई गई।

भू-जल स्तर लगातार गिरने से आने वाले वक्त में गंभीर जल संकट पैदा हो जाएगा। इसके अलावा भूजल स्तर गिरावट से पानी में खारापन बढ़ रहा है। खारा पानी सेहत के लिए नुक़सानदेह है। स्वास्थ्य विशेषज्ञ के मुताबिक पेयजल में 50 टोटल डिजाल्ड सॉलिड से ज्यादा नहीं होना चाहिए, जबकि कुछ इलाके में इसकी मात्रा 1200 तक पहुंच गई है इससे पेट और किडनी संबंधी बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है।

बहरहाल, गिरते भूजल स्तर को रोकने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य किया जाना चाहिए।

Tuesday, May 3, 2011

जनगणना कराना सरकार का धर्म है



- अविनाश वाचस्‍पति

जनगणना कराती है सरकार, फिर बताती है कि हम एक दो एक करोड़ हो गए। पहले एक करोड़, फिर दो करोड़ और वापिस एक करोड़, जबकि ऐसा संभव नहीं है। सरकार ने एक सौ इक्‍कीस करोड़ बतलाया है। होना तो यह चाहिए कि सिर्फ जनों को गिना जाए और जनानियों को छोड़ दिया जाए, पर सरकार यह नहीं करती, वो सभी को जन ही मानती है, चाहे कोई भी हों, इस गिनती से हिजड़े तथा समलैंगिक भी नहीं बच पाते हैं, सरकार उन्‍हें भी गिनवा लेती है। सज्‍जन और दुर्जन भी जन माने जाते हैं। अब आप सरकार पर आरोप नहीं लगा सकते कि वो भेद-भाव करती है।

सरकार का मानना है कि जन वही, जिसमें जान हो और सबसे अधिक जान जानवरों में होती है,जानवर सबसे जानदार शब्‍द है। उनकी जान के आगे इंसान की भला क्‍या बिसात ? मिसाल के तौर पर जान लीजिए कि घोड़े की शक्ति को पैमाना माना गया है। वो तो इंसान को अपने हाथों पर पूरा भरोसा नहीं है, दिमाग पर है, इसलिए उसने हथियार बना लिए, वरना समूची धरा पर शक्तिशाली जानवरों ने इंसानों को धराशायी कर दिया होता। इंसान लुका-छिपा गुफाओं में, नदी-नालों में रहने को विवश होता। यह विचार आते ही उन सबको भय की अनुभूति होने लगी होगी, जो डरते हैं, दूसरों की जान से उन्‍हें सिर्फ इतना सरोकार होता है कि उनके न होने से किसी काम में बाधा आ जाएगी।इसलिए धन सर्वोपरि, रिश्‍ते-नाते-अपनापे उसके बाद।

सरकार चाहे भी कि किसी को जनगणना में शुमार न करा जाए तो, जिनको नहीं गिनना चाहती है, वे दांत किटकिटाने लगते हैं। मानो निरीह सरकार को अपने दांतों के बीच में कुचल डालेंगे जबकि वे अपने ही ओंठ निज दांतों से काट हंसी उड़वाते हैं। गणना उनकी होती हैं जिनमें जन जुड़ा हो, चाहे उपसर्ग या अंतसर्ग अथवा बतौर प्रत्‍यय।

सरकार चाहे तो कह सकती है कि इंडिया गेट पर जनगणना के लिए परेड कराई जाएगी, आओ और खड़े हो जाओ। अपना-अपना नंबर बोलते जाओ और आखिरी की संख्‍या विश्‍वस्‍त आंकड़ा होगा। जनगणना धर्म निभाने का सीधा सरल तरीका। इस तरीके से सारा दारोमदार अंतिम जन पर है, उसनेगलत संख्‍या बोल दी तो सरकार की फजीहत हो जाएगी। नतीजा, सरकारी योजनाओं की वाट लग जाएगी, बजट सारे दोबारा बनाने होंगे, संख्‍या के हिसाब से करेंसी नोटों को अधिक छापना होगा, नहीं तो नकली करेंसी अधिक मात्रा में छपने का बुरा परिणाम होगा और यह सरकार नहीं चाहती है। सरकारी चाहना अधिक प्रभावी नहीं होती है, जिसका नतीजा फेक करेंसी वाले, बाजार में, बैंकों में, एटीएम में येन-केन-प्रकारेण फेक करेंसी फेंक ही देते हैं।

जनगणना में जिंदा जन गिन जात हैं, जिसका बुरा पक्ष यह है कि अध्‍यापकों को इस काम में लगाया जाता है और वे सदा से यही कहते पाए गए हैं कि जनगणना का काम करने से तो मरना अच्‍छा ? जब वे अपने को जिंदा मानने में शक करते हैं तो जनता खुद को जिंदा कैसे मान ले, वैसे आम जनता जिंदा होती नहीं है। कईयों की तो आंखों में ही शर्म नहीं बची होती है कि उन्‍हें जिंदा माना जाए पर, डॉक्‍टर उन्‍हें मरा घोषित नहीं करतेजनसंख्‍या के पेच मास्‍टरों के लिए बहुत दुखदायी होते हैं। जिन्‍हें गिनने जाते हैं, वे कई बार बिना गिने खूब डांट पिलाते हैं कि मानो डांट नहीं खाई तो पगार नहीं मिलेगी।

मास्‍टर तबीयत खराब होने पर पढ़ाएं नहीं तो, दोषी और सरकार जनगणना कार्य सौंप दे और वे न करें तो भी सदोष। जन की गणना करना वास्‍तव में कठिन कार्य है, इसलिए इनके हिस्‍से आया है। मास्‍टरअपने छात्रों से गिनवा नहीं सकते हैं। बच्‍चा गिनती करते समय अपनी शंकाओं के निवारण के लिए वापिस घर लौट गया तो .....।

टीचरों को टार्चर पब्लिकली अधिकतर घरों में किया जाता है। इस सबकी एक फिल्‍म बनाई जाए तो वो अवश्‍य ही फीचर फिल्‍म से भी लंबी बनेगी और श्‍याम बेनेगल की भारत एक खोज की तर्ज पर उसका नाम मास्‍टर अब सोच रखा जा सकता है। फिल्‍म को देखकर चाहे पूरे जहां के मास्‍टर रोएं,परंतु फिल्‍म-दर्शक जरूर हंसेंगे और अपने दांत फाड़ ही देंगे। वैसे वे दांत नहीं फाड़ेंगे, मुंह खोलेंगे परंतु मास्‍टर ही ऐसे मुहावरे सिखाते हैं और अब ये उन पर ही फिट बैठ कर हिट हो रहे हैं। निश्‍चय हीमास्‍टरी पेशे वाले परिवार और उनके जन दुखी होंगे।

फिर भी मास्‍टर शुक्र मनाते हैं कि प्रत्‍येक वर्ष गणना नहीं करनी होती। अगर प्रत्‍येक वर्ष करनी होती तो तब भी वे यह कार्य करते क्‍योंकि अगर मास्‍टर खुद ही कहना मानना नहीं सीखेंगे, तो आप ही सोचिए कि उनके विद्यार्थियों पर कितना बुरा प्रभाव पड़ेगा।

साख का कारवां

अन्ना का आंदोलन : मंजिल अभी दूर है

उमेश चतुर्वेदी

दिल्ली के जंतर-मंतर पर तमाम तरह की वाजिब-गैर वाजिब मांगों, अनाचार-अत्याचार के विरोध आदि को लेकर ना जाने कितने धरने-प्रदर्शन हुए होंगे। लेकिन पांच अप्रैल को शुरू हुए महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के रालेगण सिद्धि के संत अन्ना हजारे का अनशन और धरना बाकी धरनों से अलग था। मौजूदा दौर में राजनीति और सिनेमा- दो ही ऐसी विधाएं हैं, जिनमें सक्रिय लोगों की जनता के बीच पूछ और परख ज्यादा रही है। राजनीति को लाख गाली दी जाए, राजनेता चाहे जितने भी बदनाम हों, लेकिन सिनेमा संस्कृति के अलावा उनकी ही कौम है, जिसे जनता पूछती-परखती है। इन अर्थों में अन्ना कहीं नहीं टिकते। ना तो राजनीति से उनका सीधे-सीधे साबका है, न ही सिनेमा जैसी प्रदर्शनकारी कला या क्रिकेट जैसे गगनचुंबी लोकप्रियता वाले खेल से वे जुटे हुए हैं। लेकिन पांच अप्रैल को संसद और राष्ट्रपति भवन से महज दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित जंतर-मंतर पर वे धरने पर बैठे तो यही माना जा रहा था कि उनके भी धरने की तासीर कुछ वैसी ही होगी, जैसी दूसरे धरनों की होती रही है। लेकिन जैसे-जैसे तारीख बढ़ती गई, मासूम मुस्कान वाले अन्ना की छवि महाराष्ट्र की सीमाओं को पार करके देश व्यापी होती गई और चौथे दिन जब राजधानी में उनके इर्द-गिर्द भीड़ जुटी तो सत्ता तंत्र का चौंकना स्वाभाविक था। हैरत की बात तो सबसे ज्यादा यह थी कि अन्ना के धरने में उन प्रदर्शनकारी कलाओं के लोग भी जुटते गए, जो खुद भीड़ बटोरू रहे हैं। फिल्म से लेकर भारतीय कारपोरेट जगत के साथ राजनीति की कौम भी उनके साथ आने लगी।

हालात कुछ वैसे ही थे, जैसे 1977 में जेपी की रामलीला मैदान की रैली से पहले थे। आपातकाल के बाद रामलीला मैदान की रैली में लाखों लोगों के जुटने की उम्मीद खुद जयप्रकाश नारायण को भी नहीं थी। लेकिन 11 बजते-बजते गांधी शांति प्रतिष्ठान में ठहरे जेपी को यह खबर मिली की राजधानी दिल्ली आ रहे हर रास्ते पर भीड़ ही भीड़ है और उस भीड़ के उद्देश्य रामलीला मैदान पहुंचना है तो सहसा उन्हें भरोसा ही नहीं हुआ। रामलीला मैदान पहुंचे जेपी ने जब लोगों को आसपास की इमारतों पर चढ़े देखा तो पहली बार लगा कि इंदिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ लोगों में काफी गुस्सा है। तब जाकर पहली बार जेपी को लगा कि इंदिरा गांधी की सर्वशक्तिमान सरकार को बदला जा सकता है। जंतरमंतर पर अपने अनशन के बारे में लोगों के इतने भारी समर्थन की उम्मीद खुद अन्ना हजारे को भी नहीं थी। खुद भी वे इसे स्वीकार कर चुके हैं। लेकिन आठ अप्रैल को जब जंतर-मंतर पर ही पचास हजार लोग पहुंच गए तो अन्ना को भरोसा हो गया कि अब सरकार को झुकना ही पड़ेगा और सरकार को झुकना पड़ा।

अन्ना के अनशन और उसे लोगों से मिले समर्थन ने कई सारी स्थापनाएं की हैं तो कई हैरत अंगेज सवाल उठाने के मौके दिए हैं। 2009 के आम चुनावों से ही भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों के बीच आवाज उठा रही है। स्विस बैंक में जमा 72 लाख करोड़ की रकम वापस लाने का दावा हो या फिर काले धन का मसला, भारतीय जनता पार्टी उठाती रही है। लेकिन ना तो उसे चुनावी मैदान में समर्थन मिला और न ही उसके धरने-प्रदर्शनों में लोग जुटे। लेकिन अन्ना की आवाज पढ़े-लिखे से लेकर अनपढ़ तक सब जगह सुनी गई। यह सवाल लोगों को आज मथ रहा है। अपनी मोटी बुद्धि को यही समझ में आता है कि चूंकि अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की अपनी साख बनाई है। महाराष्ट्र में उनके आंदोलन के चलते कई मंत्रियों को अपना मंत्री पद गंवाना पड़ा। एक बार विलासराव देशमुख सरकार गिरते-गिरते बची। आज के दौर में भ्रष्टाचार के मामले उठाने या उन्हें टालने के पीछे शुद्ध भ्रष्टाचार विरोधी मकसद काम नहीं करते, बल्कि दूसरे मकसद काम करते हैं। कई बार भ्रष्टाचारियों को ब्लैकमेल भी किया जाता है, राजनीतिक पार्टियों की तो आदत ही हो गई है सुविधानुसार भ्रष्टाचार का विरोध करना। चूंकि भारतीय जनता पार्टी के एक कद्दावर नेता बी एस येदुयुरप्पा खुद भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी चाहे जानबूझकर या फिर अनजाने में उन्हें नहीं हटा रही है, इससे भ्रष्टाचार को लेकर भारतीय जनता पार्टी की लड़ाई को जनता गंभीरता से नहीं ले रही है। लेकिन अन्ना का साख के अलावा चूंकि कुछ भी दांव पर नहीं है और उनके अनशन और धरने का दूसरा कोई और मकसद भी नहीं है, लिहाजा उनकी आवाज पर लोगों ने भरोसा किया है।

उदारीकरण का सबसे बड़ा संकट माना जा रहा है कि उसने लोगों – खासकर नई पीढ़ी को सुविधाभोगी और संघर्ष की मानसिकता से उदासीन बनाया है। नई पीढ़ी पर दूसरा बड़ा आरोप कैरियरिस्ट होने का भी है। एक हद तक यह सच भी है। लेकिन अन्ना के आंदोलन और उसमें अलीगढ़, बनारस, इलाहाबाद के युवाओं की शिरकत, खाए-पिए घरों के नौजवान-नवयुवतियों की भागीदारी ने साबित कर दिया है कि अगर साख वाला नेतृत्व जीवन के मूलभूत सवालों को उठाए तो आज की पीढ़ी भी संघर्ष कर सकती है। उसे संघर्ष से कोई रोक नहीं सकता और उसके नतीजे बेहतर ही होंगे। अन्ना के साथ लोग इसलिए भी जुड़ते गए, क्योंकि भारतीय जिंदगी में भ्रष्टाचार ने संस्थानिक रवैया अख्तियार कर रखा है। पानी- बिजली के कनेक्शन से लेकर बिल भरना हो या बैंक से लोन लेना हो, घर खरीदना हो या घर बेचना हो, अस्पताल में दाखिला लेना हो या फिर स्कूल में ..भ्रष्टाचार और घूस का बोलबाला है। शायद ही कोई भारतीय होगा, जिसे घूसखोर कर्मचारियों-अधिकारियों से पल्ला न पड़ा हो। आज की महंगाई के पीछे दूसरे कारणों के अलावा भ्रष्टाचार का भी हाथ है। लोग हर तरफ त्रस्त हैं। विनोबा भावे का एक निबंध है – तरूणों से। उसमें उन्होंने लिखा है कि पूरे राष्ट्र में सुराख ही सुराख है। साठ के दशक में उन्होंने देश की दशा का जो चित्र खींचा था, उसमें आज भी बदलाव नहीं आया है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन व्यवस्था नहीं बदलती, सिर्फ उसे चलाने वाले बदल जाते हैं। भाषा और वार्ता जैसी हिंदी समाचार एजेंसियों के संस्थापक स्वर्गीय शरद द्विवेदी कहा करते थे कि मौजूदा व्यवस्था यानी सत्ता अपने चलाने वालों को कांग्रेसी बना देती है। दूसरे शब्दों में कहें तो वे भी भ्रष्टाचार की संस्थानिकता को स्वीकार करते थे। बहरहाल यही वजह रही कि लोग अन्ना के साथ जुटते चले गए और कारवां बनता गया। कारवां इतना ताकतवर बना कि उसके सामने सर्वशक्तिमान समझने वाली भारत सरकार को भी झुकना पड़ा।

अन्ना के आंदोलन को आगे बढ़ाने में निश्चित तौर पर फेसबुक, ट्विटर जैसे न्यू मीडिया के साथ ह मिस्र के तहरीर चौक के धरने और ट्यूनिशिया जैसे देशों के आंदोलनों से भी बल मिला। न्यू मीडिया ने अन्ना की आवाज को कम से कम इसे इस्तेमाल करने वाले लोगों के बीच दूर-दूर तक पहुंचा दिया और उनके साथ लोगों को खड़ा करने के लिए प्रेरित किया। चूंकि अन्ना ने लोगों से कह रखा था कि किसी भी तरह से किसी के साथ बदतमीजी ना हो, सार्वजनिक या निजी संपत्ति को भी नुकसान न पहुंचाया जाय, इसका भी असर पड़ा। यानी अन्ना यह साबित करने में सफल रहे कि उनके विरोध का तरीका नकारात्मक नहीं, बल्कि सकारात्मक है। सकारात्मक विरोध की बात लोगों की समझ में आई और उनका समर्थन लोगों को मिला। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि सरकार के झुकने भर से आंदोलन का लक्ष्य हासिल कर लिया गया। जन लोकपाल बिल बनाना और पारित होना, लोगों को जितना आसान लग रहा है, उतना आसान है भी नहीं। सत्ता की जो प्रवृत्ति रही है, वह लोगों के सामने जल्दी हथियार नहीं डालती, भले ही वह फौरी तौर पर हथियार डालती प्रतीत हो। वह जनता के उन लक्ष्यों को भ्रष्ट करने की हमेशा कोशिश करती है, जिससे उसकी सर्वशक्तिमान छवि को आंच पहुंचती हो। इसलिए अन्ना को अभी और आगे जाना है। उनके साथ अगर जनता खड़ी रही तो निश्चित तौर पर वे आगे जाएंगे। लेकिन उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि उनकी एक भी चूक भ्रष्टाचार के बूते फल रहे राजनीतिक और सत्ताधारी तंत्र को इस आंदोलन को बिखरने का बड़ा मौका मुहैया करा देगी। लेकिन पकी उम्र के अन्ना से यह उम्मीद भी बेमानी नहीं है कि सत्ता के इस चक्रव्यूह को वे जनता रूपी रथ के पहिए से अपने सहज विवेक के सहारे काटने में कामयाब रहेंगे।

Monday, May 2, 2011

Effective deterrence to help fight the menace


India Against Corruption believes that only an effective Jan Lokpal Bill can help rid the country get free from the clutches of graft


Manish Sisodia


The prevailing situation in the country has been depressing for quite some time and consequently simmering discontent and anger against those, who wield power, has all along been there at the sub-surface of national conscience. People looked for an opportunity to vent their anger and agony.

Despite many vocal faces against corruption, they could not catch the imagination of public at large, as most of them lacked credibility and conviction in one way or the other. We at “India Against Corruption”, being a non-political and non-governmental entity, thought to provide a platform, where people can come and join hands against the malice, which is eating the very existence of our collective political living.

We believe there are reasons for creeping corruption in the country and we need to address them rather than pin point one individual or a group of individuals. Though I am not saying that individuals should not be punished for acts of corruption, court trials of individuals in cases of graft will not serve the larger national purpose given the penetration and quantum of cases involving unimaginable amount of money involved. We need to find out reasons for such incidences in the system. I think “deterrence” at all level including high and mighty, reforms in electoral system and de-linking investigation and prosecution of corruption cases from political masters will go long way in purging the system of the ills plaguing it.

“Deterrence” has a big role to play in fight against corruption, so a robust legal framework is required to deal with the situation. One such could be provided by enacting the “Jan Lokpal Bill”, which India Against Corruption has drafted.

No doubt there exist varieties of laws to deal with graft cases, but most of them lack the required bite to actually nail alleged culprits. Most of the existent laws depend on political expediency for their effectiveness. In the name of protection against frivolous charges, a lot of immunities have been inbuilt into the laws. Though they are being inbuilt to protect honest and upright in the system, they have ended up protecting the corrupt.

In the present system neither the investigative agencies nor the prosecuting process is independent of political masters of the day and so we find in many cases high and mighty escape the clutches of law.

The present “Jan Lokpal Bill” actually addresses this very edifice of the current law and so a lot of hue and cry is being generated in the system. Those, who matter in the society, are up against enactment of such a law and raising procedural matter relating to democracy and supremacy of Parliament. Where are we challenging the authority of the government and Parliament? We are not asking that we should be given authority to enact the law. Rather, we are trying to help the government in enacting an effective “Jan Lokpal Bill”. Our role is limited to generate public opinion in favour of creating an effective mechanism to deal with the malice.

Anna Hazare’s fast-un-to-death demonstration was part of such an exercise and through this India Against Corruption could largely achieve the purpose of generating public opinion against corruption. Mr Hazre’s face could appeal to the people at large, as he proved to be a credible face to fight against corruption. Since there were doubts that the government could enact an effective Bill, we asked for a joint panel to draft the law. Public pressure forced the government to accept our demand and thus the joint panel was formed.

Since then a campaign was launched to discredit the civil society members on the panel and shift focus from the main issue of corruption. It was natural and we expected that this would happen. But still our resolve is there and we would try our best to see through that an effective Bill is drafted, adopted by the government and passed by the Parliament.

(The writer is an RTI Activist, a prominent face of ‘India against Corruption’ and a close Associate of Anna Hazare)

Real goal is to end corruption: Kejariwal


SOPAN INTERVIEW

Corruption has become a secular evil to live with. Anna Hazare has struck a chord with the common man. However, the controversies continue to dog. The Jan Lokpal Bill has united the common men but divided many, khadi wearing pot-bellied leaders in particular. Some have camouflaged their discomfort with an ideological guise or intellectual argument. RTI activist, Magsaysay award winner and a member on the joint committee for drafting the Lokpal Bill, Arvind Kejariwal speaks to Shitanshu Shekhar Shukla on all issues, including the recent controversies.

Q. What If Lokpal himself becomes corrupt?

A. In order to ensure only an incorrigible person occupies the coveted post of Lokpal, there will be committees to select him. Election is not an option. The committees will have representatives of legislature, judiciary besides the civil society. If Lokpal were still to be found indulging in corrupt practices, the Supreme Court would expeditiously look and decide within stipulated period of one month whether the case prima facie holds water. If yes, a recommendation would be placed before the President of India to remove the Lokpal.

Q. The panel will, we hear, include Prime Minister, leader of opposition, Supreme Court judges etc. Since the Lokpal will have jurisdiction over them all, will not it lead to deadlocks? Don’t you think consensus will be elusive?

A. It may. Yes. But there is no option.

Q. The CD controversy has dented the credibility of the Bhushans. They are still on the panel. What is important for you at this stage -- Probity or legal brain?

A. True that they are on the panel only and only because the draft needs a legal brain. At this stage at least. One can say that probity is not so important as legal brain to draft the Bill. However, we emphasise on both – probity and legal brain. Both Prashant and Shanti Bhushan are clean lawyers. Not a single case has ever been proved against them. Not only that we, each one of us, are open to any independent inquiry. We are writing letter to the prime minister and the SC judges to hold against us any independent investigation they want. The CD was circulated and made by the corrupt forces trying to disrupt and divert the movement.

Q. Some politicians appeared to run a smear campaign against you all. Probably they saw the movement as opposed to them.

A. No. Not the entire political class. Only the corrupt elements did it because they felt threatened.

Q. Could you have avoided the controversy if you had a politician on your side?

A. No. Because it would have invited us more trouble. We would have been identified with certain party. Even as we are all apolitical, allegations fly thick and fast against us that we are getting help from this party or that party. Imagine what would have happened if we had beside us a politician.

Q. Will the Lokpal have enough teeth to bite? Or will it be just a barking watchdog? Hawala case is a poignant reminder. Despite the Jain diary mentioning the high and mighty, the case fell flat in the court. The shoddy investigators can sabotage the best of cases.

A. The Jan Lokpal Bill gives Lokpal enough teeth to bite. It will have its own prosecuting and investigating agency. The CBI dealing with corruption cases will come under jurisdiction of Lokpal.

Q. There are some disconcerting voices that your movement is running down the democracy.

A. I have before me a news clipping. Congress leader Mani Shankar Aiyer has been reported as saying that the anti-corruption movement spearheaded by civil society is undermining democracy. Frankly, I am unable to understand it. The power of legislature to legislate has not been and can’t be usurped. We are only trying to give a few inputs but it will be for Parliament to discuss, debate and pass the Bill. We are strengthening democracy, not weakening it. It is similar to pre budget exercise when finance minister meets and invites several economists, business honchos for their views and their expectations from the budget. The intention is to help each other and grow economically faster. We are also doing same thing here. Is it a mute society which they want to rule? A speaking, discussing, deliberating society can make a democracy participatory. This is our sole objective and we shall achieve it.