Corruption in the country is as common as anything one could imagine. But there is a ray of light. The civil society is on an effective march against the menace
Amitabh Shukla / New Delhi
मुगल काल से ही विख्यात] असली सोने और चांदी के तारों से बनी बनारसी साड़ियां] आज नए अंदाज के साथ सबकी पहुंच में हैं।
बनारस की गलियों से गुजरते हुए हम यह सोच भी नहीं सकते की यही कहीं एक छोटे से दरवाजे से घूसते ही हमें वह जगह मिल जाएगी जहां उन बनारसी साड़ियों पर काम होता है जो मुगल काल में ही विख्यात हो चुकी थी] जिसकी पूरी दुनिया में अलग पहचान है। मदनपुरा] ललापुरा] बजरड़ीहा लोहता जैसे क्षेत्रों में साड़ियों के बनाने का काम होता है। मशीन तो एक ही होते हैं बस फर्क सूत का होता है। बनारसी साड़ी के अलग धागे होते हैं जिन्हें पूर्व काल में चाइना से और अब बंगलुर से मगाया जाता है। इन साड़ियों को मशीनों से नहीं हाथों से तराशा जाता है।
बनारसी साड़ियों को कई ढ़ग से तैयार किया जाता है। जैसे जंगला] तनचोइ] वासकत] टीसू] बुटीदार आदि और इनमें चार प्रकार के वस्तुओं का प्रयोग करते हैं। शुद्ध सिल्क] ओरगेंजा या जरी सिल्क] जियोरगेते और शातिर। विभिन्न प्रकार के बेल] बुटी] बुटा और लताओं की डिजाइनें बनाई जाती है। साथ ही सोने और चांदी के तारों से मोतियों की बुनावट करते हैं। यह बात अलग है कि पहले यह तार असली होते थे जिसके कारण इन्हें गरीब नहीं खरीद पाते थे अब यह सभी के पहुंच में है क्योंकि अब साधारण तारों का इस्तेमाल किया जाता है।
जामदानी बनारसी साड़ियों में कई तरह के फूलों की बुटियां सूती धागों पर बनती है तो जामवार साड़ी की डिजाइन कश्मीरी सॉल से प्रेरित है जिसमें सोने] चांदी और सिल्क के धागों का प्रयोग होता है। एक अन्य प्रकार बुटिक साड़ियों का है] जो बेलों की आकृतियों से सजाई जाती है। ये डिजाइन ग्राफ पेपर पर तैयार की जाती है और साड़ी पर उतारे जाने से पहले इसका पंच कार्ड बनाया जाता है। एक डिजाइन तैयार करने और बनाने से पहले लगभग 100 बार पंच कार्ड बन जाते हैं। ताकि बुनकर सही रंग और पैटर्न समझ सके। ये आकृति विभिन्न प्रकार के तारों पर बनती हैं। बच्चे की उम्र 10 साल के होते ही पीढ़ी दर पीढ़ी यह कला उन्हें सीखा दी जाती है।
एक साड़ी को तैयार करने में लगभग 5600 धागों की तारे] जो 45 इंच चौड़ी हो और 24 से 26 मीटर लंबी हो लगती है। 3 लोग 15 दिनों तक काम करते है। डिजाइन के अनुसार समय ज्यादा या कम लगता है। यहां ज्यादातर मजदूर गोरखपुर और आजमगढ़ से आते हैं। अकेले लोहता क्षेत्र में 2500 साड़ी बनाने के लूम चलते हैं। बनारसी साड़ियों की कीमत की बात करें तो शुरूआत 1500 से और अंत ५०]000 तक भी है। औसत दाम 3 से 15 हजार है। सभी वस्तुओं की तरह इनके बिकने का भी एक खास मौसम होता है त्यौहारों पर। अप्रैल से जुलाई तक काम ठंडा रहता है।
जुलाई 2007 में ही बनारसी साड़ी को जीआई टैग मिल गया था इसके बावजूद भी जिस प्रकार से हो हल्ला मचा उस रफ्तार से काम नहीं हुआ। इस पर आजादी के पहले से स्थापित फराह साड़ी के मालिक अब्दुल से हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि वैसे तो हम दक्षिण भारत] गुजरात] बाम्बे आदि जगहों पर माल भेजते हैंA चेन्नई की एक पार्टी के माध्यम से श्रीलंका और सिंगापुर भी माल जाता है लेकिन अभी इसका व्यापार और बढ़ाने की जरूरत है। उनके अनुसार उन्हें इस व्यपार में कभी कोई परेशानी नहीं हुई। वहीं मदनपुरा साड़ी डिलर एसोसिएसन के अध्यक्ष उमादू रहमान है इसमें लगभग 50 लोगों की सदस्यता है लेकिन सोचने वाली बात यह है कि आज तक इनके लिए कोई ऑफिस ही नहीं है जिसके इन्तजाम का प्रयास जारी है। पहले यह काम हो जाए उसके बाद ही इस व्यापार का कुछ और बेड़ा पार हो पाएगा। दूसरी तरफ बुनकर जमाल ने बताया कि दक्षिण वाले अगर इन साड़ियों को खरीदना बंद कर दे तो इसकी खपत बहुत कम हो जाएगी। हम एक सप्ताह में एक साड़ी तैयार कर पाते हैं। जिसकी मजदूरी ७&8 सौ ही मिलती है। तानी का काम करने में दो दिन लगता है। जिसकी मजदूरी नहीं दी जाती है। औसतन उन्हें 100 रुपये मिल जाते हैं । कहीं&कहीं तो 65 रुपये तक भी देते हैं। इस काम में हजारों की तादाद में मजदूर लगे हुए हैं।
सिर्फ इनका ही नहीं हर जगह मार मजदूरी पर ही पड़ती है जबकि यह जग जाहिर है कि इनके बिना काम नहीं हो सकता। सबसे ज्यादा मेहनत यही करते हैं। देखना यह है कि इनकी दशा कब ठीक होगी।
& स्वतंत्र मिश्र
दलित और पिछड़ों के बच्चों में वैज्ञानिक चेतना की नींव रखने में जुटे कृष्ण मेनन बड़ी ईमानदारी के साथ अपने काम में लगे हुए हैं। बिहार में जहां शिक्षा की स्थिति बहुत अच्छी नहीं हैA वहां उनका प्रयास कुछ परिवारों में शिक्षा की रोशनी जला रहा है।
ज्ञान&विज्ञान प्रसार न्यास की स्थापना मेनन ने अपने 17 साथी न्यासियों के साथ मिलकर 30 नवंबर 2002 में की। इस न्यास के तहत पटना से दक्षिण 8 किलोमीटर की दूरी पर शाहपुर गांव में नर्सरी से लेकर पांचवीं तक के बच्चों के लिए स्कूल 19 जनवरी 2003 से ही चलाया जा रहा है। इस स्कूल में आस&पास के गांव के लगभग 125 बच्चे पढ़ते हैं। इन बच्चों से हर महीने ३०&40 रुपये की फीस ली जाती है। आर्यभट्ट ज्ञान&विज्ञान विद्यालय एवं संस्कृति केन्द्र के बच्चों के लिए फी चुकाना कोई अनिवार्य नहीं है। यहां यूनिर्फाम भी बच्चों के इच्छा और उनके अभिभावकों के भरोसे ही छोड़ दिया गया है। यहां चार शिक्षक हैं। शिक्षक की योग्यता कम से कम स्नातक है। स्कूल के शुरू होने से लेकर पिछले कई सालों तक फंड के अभाव में कई बार बंद करने तक की नौबत आ गई थी। ऐसे मुसीबत के क्षणों में न्यासियों ने कई बार अपनी पूरी तनख्वाह या अपनी बचत में से निकाल कर स्कूल और न्यास को डूबने से बचाया है। अब स्कूल के पास कॉरप्स फंड एक लाख रुपये हैं। 5 कंप्यूटर] कई खेलों के साजो&सामान हैं। यहां के पुस्तकालय में छात्रों और शिक्षकों के काम की 1000 से भी ज्यादा किताबें हैं। बहुत शानदार एजुकेशन किट और बच्चों के मनोविज्ञान] सामाजिक चेतना और विज्ञान पर आधारित बहुत सारी फिल्मों की सीडी ओर डीवीडी भी हैं। हाल ही में न्यास ने एक बहुत अच्छा फिल्म प्रोजेक्टर भी खरीदा है। संस्थापक मेनन की योजना इससे बहुत आगे निकलने की है। वह अब स्कूल को दो पालियों में चलाना चाहते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि उसके लिए फंड की व्यस्था कैसे हो पाएगीA इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि हम लोगों ने पिछले आठ सालों के दौरान किसी सरकारी या गैर सरकारी संस्थानों से पैसे नहीं लिए है। लेकिन हमारी योलना के लिए कॉरप्स फंड के तौर पर 5 लाख रुपये की जरूरत होगी। इसके लिए हम दिल्ली के नगर निगम के स्कूलों में जाएंगें। प्रोजेक्टर पर फिल्म दिखाएंगें और उनसे मदद की अपील करेंगे। मुझे उम्मीद है कि हमारे मिशन को लोग समझेंगे और उसे पूरा करने में भरपूर सहयोग देते रहे हैं और देते रहेंगे।
न्यास ने पिछले दो सालों से साल में चार मेमोरियल व्याख्यान का आयोजन करना शुरू कर दिया है। ये चारों व्याख्यान वैज्ञानिक व दार्शनिक जेसी बोस] राहुल] डीडी कौशाम्बी और रामानुजम के नाम पर कराए जाते हैं। मेनन का कहना है कि इन व्याख्यान माला के माध्यम से देश के बहुत सारे बुद्धिजीवी समुदाय के लोगों का जुड़ना हो रहा है। न्यास को भरोसा है कि बुद्धिजीवी देश में कायम अंधेरगर्दी को कम करने के लिए इस तर्कसम्मत काम को जरूर आगे बढ़ाना चाहेंगे।
कहने छापने की मिली इंटरनेटीय आजादी से जन्मी ब्लॉगिंग और इससे आगे हिन्दी ब्लॉगिंग मन माफिक तरीके से विकास कर रही थी कि अचानक ब्लॉगिंग विधा का विकास यानी इसका सहज रूप से बिना लाग लपेट के सच सच कहना सरकार के नुमाइंदों को रास नहीं आया। फिर इसी ब्लॉगिंग के चलते, फायदे जो हुए सो हुए परंतु इससे देशों में क्रांति भी आई, सत्ता भी पलटी तो सत्तानशीनों में सुगबुगाहट शुरू हो गई। ऊपर से जो सुगबुगाहट दिखलाई दे रही थी। दरअसल वो भीतर से जापान का विनाशकारी भूकंप था। उससे बचाव के लिए सरकार ने ब्लॉगिंग पर अंकुश कसने की ख्वाहिश जाहिर कर दी। कहा तो यह गया है कि इसे सबसे सलाह करके बनाया गया है और इसमें अभी परिवर्तन किए जाने हैं। लेकिन इस बहानेबाजी से सरकार की मंशा प्रकट नहीं होगी, इस मुगालते में जी रहे हैं सरकार के नुमाइंदे।
दरअसल, यह कहना कि एक बिल्ली खिसियाए बिना ही खंबे को नोचने लग गई है, तो गलत न होगा। अब कौन बिल्ली है और कहां पर खंबा है, इसे साफ शब्दों में कहता हूं। जी हां, ब्लॉगिंग की दुनिया में यही होने जा रहा है। ब्लॉगिंग की यह दुनिया भारतीय है। जहां पर संपूर्ण लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते न सरकार थकती है और न सरकार के नुमाइंदे, पर भीतर ही भीतर पूरी तरह खौफजदा हैं। ऐसा भी नहीं है कि होली से ठीक पहले इसकी भनक लगी है तो इसे मक्खी की भनभन मानें।
सरकार बिना बीमारी के सिर्फ अंदेशे के बूते ही चिकित्सा करने को तैयार हो गई है। पोस्टों और टिप्पणियों में हम चाहे कितना ही शोर मचा लें, आपस में एक दूसरे के सिर फोड़ डालें, बिना किसी बात के एक दूसरे की टांगे खींचने या गला भींचने पर उतारू हो जायें। जरूरत न पड़ने पर भी टांग तोड़ डालने पर तैयार हो जाएं और शब्दों में घमासान ऐसा मचा दें कि विश्वयुद्ध का सा आभास होने लगे। तेरी टिप्पणियां मेरी पोस्ट मिलकर खूब गजब ढाएंगी, पर रेल पटरियों पर जाकर कब्जा करना जाटों के बस का ही है।
जहां जनता के नुमाइंदे सरकार से जन-कल्याण के लिए राशि लेकर उस पैसे का सदुपयोग वोटर को खरीदने में कर सकते हैं। सरकार की बेबसी पीएम भी स्वीकार चुके हैं। स्वीकारने का तरीका और माहौल दूसरा था। पर सब जगह मौसम होलियाना नहीं है। मालूम नहीं सरकार की आंखें चौंधिया रही हैं या बुद्धि भ्रष्ट हो गई है अथवा सरकार में बैठे दुष्टों को पता नहीं कि क्यों वे रुष्ट हैं जो ब्लॉगरों को कष्ट बांटने पर उतारूं हैं।
यकीन मानिए, ब्लॉगिंग पर अंकुश का शिकंजा असलियत बनने की तैयारी में है। ब्लॉगिंग मीडिया पांचवां खंबा है, इससे किसी को एतराज नहीं है और सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगाने की बात करके इसके मजबूत खंबत्व को स्वीकारा ही है और वो बिल्ली की उस भूमिका में आ गई है जिसमें बिल्ली को लगता है कि उसके नाखून जरूर ही इस खंबे को ढहाने में सफल हो जायेंगे। जब बिल्ली सफल हो सकती तो दूसरे जानवर जैसे रंगा सियार, धूर्त लोमड़ी, काना बंदर और गिलहरी-चींटी के पर निकलते भी जरूर दिखलाई देंगे।
सरकार ने इंडियन ब्लॉगर्स कंट्रोल एक्ट के जरिए गैर व्यावहारिक लोगों द्वारा जो बदलाव सुझाए हैं, वे दूषित मानसिकता को दर्शाते हैं। जरूरत है कि इसमें ब्लॉगों से प्रतिनिधित्व लिया जाये लेकिन कुछ भी कर लिया जाये, अब भविष्य में इसके दुर्दिन आते दिखलाई दे रहे हैं। लगाम लगाने से जिस प्रकार कार्य करने का जोखिम बढ़ता है, इसी प्रकार उत्साह में भी बढ़ोतरी होती है। उसे करने वाले विशेष सुविधाओं और गौर करने के हकदार बन जाते हैं। जैसे सब जानते हैं कि आतंक फैलाना जुर्म है फिर भी आतंकी मिलते हैं, उन पर खूब फोकस किया जाता है। इसलिए प्रतिबंध लगाने से ब्लॉगरों की वो शिकायत तो दूर हो ही जायेगी कि उन्हें फोकस में नहीं रखा जा रहा है। वैसे यह भी विचाराधीन है कि सरकार कुछ नामचीन ब्लॉगरों को संसद की सदस्यता या ऐसा ही कोई प्रलोभन देने वाली है ताकि वे सरकार के प्रतिबंधों का विरोध न करें और इस कार्य में सहयोगी की भूमिका निभायें।
फिर आप देखिए, अगर लाल बत्ती क्रास करना मना है या सिगरेट पीना मना है तो जो आनंद कानून तोड़ने में मिलता है वो आनंद सामान्य ब्लॉगिंग में नहीं मिल सकता है। आनंद चाहिये तो कानून तोड़ना ही होगा। प्रतिबंध लगाने के बाद सिखाने वालों की डिमांड बढ़ सकती है। किसी क्षेत्र में विकास के लिए काले धन की संभावनाएं उपयोगी खाद बनती हैं। फिल्मों को ही लीजिए, क्रिकेट में देखिए – उन दिनों की कल्पना कीजिए जब पोस्ट या टिप्पणी पर सट्टा लगाया जाया करेगा तो ब्लॉगिंग एक नहीं दो नंबर का धंधा बन जाएगी और वो खूब चल निकलेगा, और किसी के रोके नहीं रूकेगा। मतलब दो नंबर का जुड़ाव इस पांचवें खंबे के साथ विकास के लिए निहायत ही जरूरी है।
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यहां पर आज भी बिजली नहीं है, लोग इस बात से आस बांध रहे हैं कि खंभे तो आ गये हैं। पिछले 25 वर्षों में दूसरों को बिजली देने के कारण डूबे इन गांवों में आज भी अंधेरा है। यहां पर आजीविका का कोई साधन नहीं है, लोग पलायन पर जा रहे हैं। यदि मजदूरी पर जाना भी है तो लोगों को 20 रुपये पहले अपने खर्च करने पड़ते है, महिलाओं के पास तो पिछले 25 वर्षों से घर के काम के अलावा कोई काम ही नहीं हैं और यही कारण है कि यहां के नवयुवकों ने यहां से बाहर निकलने के लिए कलेक्टर को पत्र लिखा है। लोग इतने हताश है कि रछूछ कहते हैं कि सरकार ने हमें डूबा तो दिया है, अब बस एक परमाणु बम और छोड़ दे तो हमारी यहीं समाधि बन जाए। जरा सोचिए कि यह गांव तो डूबा ही इसलिए कि बांध बन जाए और उससे बिजली बने, सभी को रोशनी मिले। लेकिन दूसरे गांव तो इससे रोशन हो गए यह गांव आज भी रोशनी का इंतजार कर रहा है।
साहब, इंदिरा गांधी के कहने पर बसे थे जहां पर! तब आप ही बताओ देश का प्रधानमंत्री आपसे कहे कि उंची जगह पर बस जाओ, तो बताओ कि आप मानते कि नहीं। हमने हां में जवाब दिया जो उन्होंने कहा कि हमने भी तो यही किया। उनकी बात मान ली तो आज यहां पड़े हैं। इंदिरा जी बरगीनगर आई थी और उन्होंने खुद आम सभा में कहा था। श्रीमती गांधी ने यह भी कहा था कि सभी परिवारों को पांच-पांच ऐकड़ जमीन और एक-एक जन को नौकरी भी देंगे। अब वो तो गई ऊपरे और उनकी फोटो लटकी है, अब समझ में नहीं आए कि कौन से सवाल करें? का उनसे, का उनकी फोटो से? सरकार भी सरकार है, वोट लेवे की दान बारी तो भैया, दादा करती है और बाद में सब भूल जाते हैं। फिर थोड़ा रूक कर कहते है पंजा और फूल, सबई तो गए भूल। यह व्यथा है जबलपुर जिले की मगरधा पंचायत के बढ़ैयाखेड़ा गांव के माहू ढ़ीमर की, जो अपने आप को इस गांव का कोटवार मानते हैं।